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ब्रह्मचय्य ही जीवन हे ओर

वीर्य्यनाश ही सत्यु है

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लेखक ' स्वामी शिवानन्द्‌ +.. ++रनिशिशा०- * अकाराक कैदारनाथ गुप्त छात्रदितकारी-पुस्तकमाला दारागंज, इलाहाबाद

>--+१9०+ 67 77838 #६9६/ 0४ थे

वाँ संस्करण ) जनवरी [ मूल्य ॥) १९२९ 0324

३००५

अकाशक---

केदारनाथ शु्त मैनेजिद्-प्रोप्राइटर छात्रदितफारी-पुस्तकमाला दारागंज; प्रयाग

प्रथम संस्करण सन्‌ १५२२---१०५०० द्वितीय + फरवरी सन्‌ १९२५--३००० तृतीय » दिसम्बर सन्‌ १९२६--२००० चतुर्थ दिसम्बर सब्‌ १९२७--२०००

पंचम ,, जनवरी सम १९२९--३०००

झुदृक-- पं० विश्वम्भरनाथ वाजपेयी ओंकार प्रेस, इलाहाव'

बल वन अार्टचाएर, श्रीजुस्मादादा-व्यायाम-मन्दिरके संस्थापक संचालक

आदर वालब्हाचारी नरकेसरी राजरत्न भो० माणिकराव-बडोदा,

समपंण-पत्र

७००००» >> 3 4) “75

पकोषहू अखहायो5हं छृशोष्द॑ अपरिच्छद: स्वप्नेप्येषविधा चिन्ता मसतगेन्द्रस्य जायते॥ १॥ >> 25. परम सनन्‍्माननीय अ्रद्धास्पद योग, सह्कल तथा शख्रविद्या- विशारद्‌ सिंहतुल्य अत्यन्त निर्भय, शुर बलवान परम तेजस्वी, ओजस्बी, यशस्त्री, पूर्ण सदाचारी, अतीबव देशहितकारी, महत- परोपकारी कर्ंवीर, निस्सीस चम्र, निमेल शान्त नरकेशरी आदर्श बालत्रह्मचारी,

मओफेसर साणिकरावजी के परम पवित्र, कठोर, अखण्ड दिव्य ज्ह्मचण्ये ब्रत को वा तपस्या को यह वामन-कृति सप्रेम सादर समर्पित ! भवदीय नम्र बन्धु शिवानन्द कक !

है.

सम्पादकीय वक्तव्य

वॉक ( प्रथम संस्करण से ) प्रिय पाठकवृन्द्‌,

“अह्यचय्य ही जीवन है और वीय्यनाश ही मृत्यु है? यह सार गर्मित और महत्वपूर्ण सिद्धान्त अक्षरद्ञः सत्य है देश में अह्यचय्य का कितना पतन हुआ है यह हम और आप सभी जानते हैं विद्यार्थियों के साथ २४ घरटे रहने के कारण हमें अच्छी तरह ज्ञात है कि वीय्य॑नाश के कैसे कैसे विचित्र विचित्र कृत्रिम उपाय निकाले गये हैं, जिनके स्मरण मात्र से शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वीस, वीस पचीस पचीस वर्ष के नवयुवक्कों के कपोल पिचके

हुये हैं और ये इंस तरुण अवस्था ही में बूढ़े दिखलाई पढ़ते हैं उसमें इंन नवजबानों का भी दोप नहीं है दोप है शिक्षकों ओर विशेष कर आप लोगों का, जो उनके माता पिता होने का दस भरते हैं। अधिकतर शिक्षक पाठशालाओं में केवल इतिहास, भूगोल, गणित और अद्जरेज़ी आदि विपय पढ़ाना और उन्हे घुटवाना ही, अपना मुख्य ध्येय सममते हैं; श्ह्मचय्यं विषय पर किसी प्रकार की चर्चा करना नापसन्द करते है। लड़के गाली व्यभिचार करते हैं और आप ( उनके माता-पिता ) ऐसी

एसी गम्भीर ओर ध्यान देने योग्य वाता को या हा टाल देते हैं हमारी इच्छा है यह पुस्तक आप पढ़ें ओर यदि आप का पत्र स्वोध है, तो उसके हाथ में यह दिव्य पुस्तक रक्‍्खें और उससे इसी पुस्तक के नियमों के आधार पर अपना चरित्र ढालने का

(२ )

अनुरोध करें। आप का बच्चा निस्सन्देद्द तेजस्वी दोगा, निरोग होगा, साहसी होगा, दीघजीवी होगा और सच्चा देश-भक्त निकलेगा !

यह अन्ध पूर्ण मौलिक है.। इसके लेखक स्वामी शिवानन्द नाम के एक युवा ग्रहस्थ सन्यासी हैं लगभग बर्ष पूत्े हमारा और आपका परिचय पहले पहल मिजापुर में हुआ था। मिरज़ापुर में आप क़रीब वर्ष रहे पाठशाला से जब हमें सावकाश मिलता था; तो प्रायः हम आप के पास जाया करते थे | आप की आयु इस समय ( सब १९२२ में ) ३२ धर्ष की है और यद्यपि आप का विवाह हो गया है किन्तु आप पूर्ण अह्मचर्ण्य का पालन कर रहे हेंक।

स्वामी जी के विचार, स्वामी जी का रूप और स्वामी जी की दिन-चस्यी इत्यादि को देखकर आपके श्रति हमारे हृदय में बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हुई सौभाग्यवश आपकी भी हमारे ऊपर बड़ी कृपा हुई | अन्यान्य असच्ता से हमारा और स्वामी जी का सम्बन्ध आर भी भगाढ़ हो गया और हमारे जीवन में आप के सत्सड्ग से चहुत परिवतेन हुआ |

#ग्रथ स्वामी जी की घर्मेपत्नी का ता० २९ फरवरो १९२६ शुक्रवार के दिन 'स्वगंबास? हुआ है। आ्राप बड़ी दी सत्यशील सतो देवी थीं आप पतिब्ता स्त्रियों में | म्तिमारुश्रादर्श थी। मृत्यु के समय 'माताजी! की आय केवल २५वप की थी। हमने 'माताजी' को प्रत्यच देखा था इस कारणा विशेषतः दें यह अशुम समाचार सुनकर अहुत ही दुःख हुआ है परमात्मा इस सती की श्ात्मा को घृ्ण शाम्ति और स्वामी जी फे घर सैय प्रदान करे।

--खस्पांदुक

(३)

आप को मालूम था कि मैं एक भ्रन्थमाला का सम्पादक भी हैँ; अतएव आपने मेरे ऊपर वड़ी कृपा करके 'अहायचय्य” विषय पर एक उत्तम अन्थ लिख कर देने का वचन दिया और वह वचन शात्र पूरा भी किया गया | यद्यपि यह अन्थ हमारे पास क़रीब एक वर्ष से लिखा रबखा था किन्तु धनाभाव और पाठशाला सम्बन्धी कार्य्य वाहुल्य के कारण हम इसे शीत्र प्रकाशित कर सके | इसके लिये हम आप लोगों से और स्वामीजी से ज्ञमा माँगते हैं

इस अन्थ को स्वामी जी ने बहुत से अन्थों का ध्यानपू्वक अध्ययन करके लिखा है और उसमें अपने अनुभव का भी पूर्ण समावेश किया है। इस कारण यह प्न्थ बढ़े द्वी महत्व का हुआ है। इस अन्थ को पढ़ने और उसके अनुसार चलने से पतित से पतित मनुष्य का भी जीवनप्रवाह अवश्य बदल सकता है, इसमें कुछ भी शक्झा नहीं है।

हमारी आप से अन्त में यही प्रार्थना है कि आप स्वामी जी के लिखे हुये इस अनुपम अन्थ को पढ़ें, मनत करें, स्वयं नियमों का पालन करें और अपने वाल बच्चों से भी पालन करावें। थदि हमें प्रोत्ताहन मिला, कि आप लोगों ने इस ग्रन्थ को अपनाया है, तो हम अपने को धन्य मानेंगे और दूसरे संस्करण में हम भ्न्थ को बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे।

0 हाईस्कूल, प्रयाग ) केदारनाथ गुप्त जेष्ट विजयादशर्मी १९७९

छात्रहितकारी पुस्तकमाला के

स्थायी ग्राहक बनने के नियम

(६) इस त्रन्थ माला में नवयुवकोपयोगी सदाचार स्वास्थ्य, नीति तथा चरित सम्बन्धी मौलिक तथा अनुवादित पुस्तक प्रकाशित की जांती हैं

(२१ इसमें इतिहास, जीवनी, उपन्यास, नोदक गहप, तथा, अन्य साहित्यिक पुस्तक प्रकाशित की जाती हैं जो उपयुक्त उद्दे श्य की पूर्ति करे

(३) प्रत्येक सज्जन ॥) पेशगी जमा कर इस श्रन्धमाला के स्थायी ग्राहफ बन सकते है उन्हें प्रत्येक प्रकाशित पुस्तक पर एक चौथाई कमीशन दिया जाता है

(४ ) पहले की प्रकाशित पुस्तकों का लेना अथवा लेना ग्राहकों फी इच्छा पर निर्भर है। परन्तु भविष्य में प्रकाशित होने चाडी पुस्तकों का लेना श्रावश्यक होगा। यदि सूचना पाते ही सूचित कर दंगे तो वह पुस्तक भेजी जायगी |

मनेजर-छाचहितकारी पुस्तकमाला, दारागंज, प्रयाग

विषयानुक्रमणिका

विषय की 55५ पृष्ठांक लेखक की यूमिका “४: कि, ब्रह्मचय्य को महिमा हक गा 8 कि अष्ट-सैथुन शक ** हस्तमैथुन और उसके दुष्परिणाम **' 3 (अ) चीय्य नाश के भुख्य लक्षण *** ४7 रं३े माता पिताओं का कतेव्य 88 ***. १७ चैद्य डाक्टर ००० न्न्न न्ग्ग १९ ब्रह्मचय्य आरोग्य हज ब्रह्मचस्य के विपय में प्रमाद_** >**. २४ ब्रह्मचय्य आश्रम चेतुप्य.._ ४४: * २७ ब्रह्मचय्य और विद्यार्थी (38 १० काम का दमन... है 5 2४ ११ प्रकृति का खमाव *** सह . हें८ १२ मन व॑ इन्द्रियाँ ह+००० है कक के 0्०्छ १३ वीर्य की उत्पत्ति. *** जोक 7. ४४ १४ भृहस्थी में व्द्माचय्ये *'* का लक कक १५'वाल विवाह - हक ५८

१६ वबीस्ये को प्रचए्ड प्रताप

१७ अज्ञान का फल स॒त्यु है १८ वीयरज्ा के अनूठे नियम | जे १पवित्न संकरप पर पविन्न मांत्भाव दृष्टि हे हो सादी रहन सहन. हर ८8

9 सत्संगति' ' *

(२)

विपय पृष्ठांक

सदसन्थावज्ञोकचन_ '** 0; !ह ८८ धर घर्पण-स्नान 2] ब्न्ग ब्न्न ९५ सादा वाजा अल्पाहार कक १४%० ९६ निन्‍्येसनता ब्ढ्न 8०० न्न्न ११९ दो बार मल्मृत्र त्याग 28 १० इन्द्रिय स्नान ३5०० न्६० ऋ०० श्श्श्‌ ११ नियमित व्यायाम *** बडा ** शश्ट १३ जल्दी सोना जल्दी जागना. **.. **** १३१ १३ आणायाम' ००० ००० ्७+क १३६ उपचास"' 5३ न्म्न कक १३९ १५ इद्मतिज्ञा 5.९० ००० ्ण्क 24 १६ डायरी ०१० 4१०० 4 १४७४ १७ सततोयोग १० *** १४६ १८ खघमोनुष्ठान शा दा "१* १४७ १९ नियमितता...“ के *** १४९ २० लंगोटवन्द्‌ रहना ०० न्ग्न ००७ १५१ २१ खड़ाऊं* * ००० 3०० १०० १५१ २२ पैदल चलना कप 52/5 "** श०श २३ लोकनिन्दा का भय *** *** १०३ २४ ईश्वर भक्ति हक ३४५ *"*. श्ष५ २५ नित्य नियमावली का पाठ 5298 *** १०८ १९ सम्पूण सुधारों का दादा त्ह्मचय्य *** १५७८ २० हमारी भारत-माता 525 *** १६१

परिशिष्ट (याग-चिकित्सा) **० **- १६५

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महाराज, ( जि० अमरावती

शान $

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स्वामी

२९,०,.-ग्र&छए70, ( एछ, 3णा॥०४. )

भ्रीमत्‌ स्व आश्रम

३5

भूमिका अथम संस्करण .से

“मूर्क॑ करोति वाचार्ल पंगु' छंघयते गिरिम्‌। यत्कपा तमहं बन्चे परमानन्द माधवम्‌॥ १॥

इस छोटे से प्रन्थ में सर्वत्र स्वानुभव-प्रकाश और साथ ही साथ शाल्ष परातुभव-प्रकाश भी किया है। इसमें अनुभव की वातें कूट कूट कर भरी होने के कारण यह ग्रन्थ और भी महत्ल का हुआहे इसका मुख्य विषय “0॥880#97 48 [#8 8708879789 8 7008॥07” यानी “ब्रह्मचय॑द्दी जीवन है और वीय नाश दी स््त्यु है? यह है जब शरीर में से चैतन्य निकल जाता है. तव उसके साथ ही साथ रक्त और वीये, ये दो जीवन-अद वल्न भी सत्यु के वाद शीघ्र ही ग़ायव हो जाते हैं; और उनका पानी वन ऋाता | जिस मनुष्य को हैज़ा' होता है उसके रक्त का पानी बनने लग जाता है और वही पानी फिर के और दर्त के द्वारा बाहर निकलने लगता है। कोई अंग काटने पर भी उसके शरीर से खून नहीं निकलता; पश्चात्‌ वह बहुत जल्द सत्य को प्राप्त होता है। अतः यह सिद्ध है... कि “जब तक मनुष्य के शर्यर में रक्त वीथ्य ये वो चीजें मौजूद हैं, तसी तक बद जीवित रह सकता है और इनका नाश होने से उसका भी तत्काल नाश हो जाता है। जितना मलुष्य वीय्ये का नाश करता है उतना द्वी-चद रक्त-वेहीन बन कर ख्यु की ओर बराबर झुकवा जाता है | जितना अधिक मलुष्य ब्रीवे को धारण करता है उतना ही अधिक वह सर्जीव वनता जाता

[१ ]

है; उसमें शक्ति, तेज, निश्चय, सामथ्य, पुरुपार्थ, चुद्धि, सिद्धि और ईश्वरत्व प्रगट होने लगते हैं और वह दीर्घकाल पर्यन्त जीवनलाभ कर सकता है। घीर्य द्वीन पुरुष फो फाई भी तार नहीं सकता और घीय॑वान पुरुष के काई भी (रोग) अफाल में मार नहीं सकता ! दुवल को ही सब कोई सताते हैं। “देवों दुर्बलघातकः” यही प्रकृति का नियम है सच पूछिए तो "बीय्ये दी अ्तरहै ।” इसी के रक्षा करने से अथोत्‌ धारण करने से मनुप्य 'अजर अमर होता है। भीप्म पितामह इसी संजीवनी शक्ति के कारण अमर (यानी अकाल में मृत्यु पाने वाले ) और इतने सामथ्य-संपत्न हुए थे। यदि हम भी इस की रक्षा करें अथान्‌ वीर्य रोक कर ब्रह्मचय धारण करेंगे, तो हम भी चैसे ही प्रभावशाली भौर उन्नतिशाली वन सकते हैं। क्योंकि चीर्य रक्षा ही आत्मोदार फा रहस्य है और इसी में जीवमान्न का जीवन है।

इस अन्थ में वीयरत्ता सम्बन्धी जो अनूठे और स्वाजुभूत नियम बतलाये गये हैं. वे बहुत ही अनमोल हैं ! स्वतः अनुभव किये होने के कारण वे अत्यन्त ही सिद्ध हैं--रामवाण हैं--कभी भी निप्फल होने वाले नहीं हैं। केवल नियम ही भर पढ़ लेने से मनुष्य वीयेरज्ञा करने में निःसन्देह समर्थ हों सकता है, परन्तु यदि बह इस अन्ध को “आद्योपान्त” पढ़ छेगा तो वह उन नियमों का सर्म भली भाँति समझ जायगा और उसमें वीयेरज्ञा के लिये एक अद्भुत जोश पैदा होगा, जिससे वह्‌ उन्नति अवश्य करेगा। आप स्वयं अनुभव करके देख लीजिये

क्या तुम जीवित रहता चाहते हो ? तव फिर तुम्हें अवश्य ही वीये के नाश से वचना होगा और इस अन्ध में दिये हुये नियमों

शान में प्रमृत का रूप 'शूश्र' द्णन किया है।

[ |

के अजुसार सन, क्रम, वचन से चलना होगा जो महुष्य इन नियमों के अनुसार केवल दो ही साल तक चढेगा उसका जीवन- परवाह बिल्कुल ही बदल जायगा, शरीर और मन में अद्भुत परिवत्तेन होगा, पापात्मा भी निःसंशय पुण्यात्मा वन जायगा ! व्यभिचारी भी अह्यचारी वन जायगा !! और दुर्वल भी सिंह तथा दुरात्मा भी साधु महात्मा चन सकेगा !!!

पर हाँ; नियमों को किसी कारण तोड़ना होगा ! उन्हें हृढ़ता के साथ निवाहना होगा। यदि कोई जीवन-पर्यन्त इन नियमों के अनुसार चढ़े तो फिर कहना ही कया है ? वह इस भृत्युलोक में ही देवता के तुल्य पूजनीय वन जायगा, इसमें कोई : सन्देह नहीं है

इस अन्थ में दिये हुये ब्रह्माचय-पालन के नियम अत्यन्त ही सरल सुलभ हैं। उनमें एक कोड़ी का भी खर्च नहीं है। जैसे हम पालन कर रहे हैं वैसे आप भी पालन कर सकते हैं। यदि दिल से निमश्बव करलो तो क्‍्यानहींहो सकता “86800॥ 88 'एै०४०79” अर्थात्‌ निश्चय ही वल है ओर निश्चय ही फल है !

प्रत्येक महुष्य में ईश्वरीय शक्ति वास कर रही है दया, क्षमा, शान्ति, परोपकार, भक्ति, प्रेम, वीरता, स्वतंत्रता, सत्य और कुकमे से अरुचि इन सब के अंकुर हृदय में रकखे हुए हैं चाहे उन्हें सींच कर वढ़ावो चाहे सुखा दो !

परमात्मा सव को सुबुद्धि अदान करे और उनका उद्धार करे !

सथ का नप्न वच्चु-- शिवानन्द्‌

के] 55 | के !!!

थ्शे्‌ | ऊँ तत्सत्‌

ब्रह्मचय्य ही जीवन हैं

१-अद्यवर्य की महिमा >>*फ2020००

तपस्तप इत्याइमंहाचय्य॑ तपोत्तमम्‌ | ऊर्ध्वरेता भचेद्र यस्तु देवों तु मान्नप: १॥ भगवान्‌ कैलाशपति शह्डर कहते हैं:--“त्रद्माचर्य अर्थात्‌ वीर्य धारण यही उत्कृष्ट तप है। इससे वढ़ कर तपश्चयां तीनों छोकों दसरी कोई भी नहीं हो सकती ऊध्वरेता पुरुष अथात्‌ अखरण्डचीर्य का धारण करनेंवाला पुरुष इस छोक में सनुण्य रूप में प्रत्यक्ष देवता ह्दी हल 2 अहा हा ! क्या ही महान्‌ इस अह्यचय को महिमा है ! परल्तुं आज हम इस महानता को भूलकर नीचता की घूल में दास्य॑ंभांव से विचरण कर रहे हैं। कहाँ हमारे वीयंवान; सामथ्य-संपन्न पूवज कहाँ हम उनकी निर्वीय और पद-दल्ित दुवेढ्ं सन्तान ! ओफ़ ! कितना यह आकाश पाताल का अन्तर हो गंया है ? हमारा कितना भयंकर पतन हुआ है ? इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि हसारा यह जो भीषण पतन हुआ है इसका मुख्य कारण एक मात्र

६] #$ ब्रद्माचय्ये ही जीवन है है

कश्जलिज +> बज

हमारे “त्रह्मचय का हास” ही है| ब्रद्मचय के नाश से ही हमारा संपूर्ण सत्यानाश हो गया है | हमारा सुख, आरोग्य, तेज, विद्या, बल, सामथथ्य, स्वातन्त्य और घम सम्पूर्ण हमारे ब्रक्मचर्य के ऊपर ही सर्वथा निर्भर है। त्रद्मचये ही हमारे आरोग्य-मन्द्रि का एक सात्र आधारस्तंभ है। आधारस्तंभ के हटने से जैसे सम्पूर्ण भचन ढद्द जाता है, वैसे द्वी घीयंनाश होने से संपूर्ण शरीर का भी नाश अ्रति शीघ्र हो जाता है। जैसे जैसे हमारे अद्यचय का नाश होता है, वैसे बैसे हमारा स्वास्थ्य का भी नाश होता जाता है। “मरण विन्दुपातेन जीचन विन्दुधारणात्‌ ।”यह भगवान्‌ शंकर का अमिट सिद्धान्त है। वीय को नष्ट करने वाला पुरुष कभी बच नहीं .. सकता और वीर्य को धारण करनेबोछा कभी अकाल में मर नहीं सकता तत्नतः वस्तुतः त्रह्मचर्य ही जीवन है और वीय॑नाश ही मृत्यु है। महाचये के अभाव से हम किसी अवस्था में सुखी और उन्नत नहीं हो सकते त्रह्मचय ही हमारे इह लोक परछोक के सुख का एक मात्र आधार है। यही नहीं किन्तु ऋह्चर्य ही हमारे चारों पुरुषा्ों फा मुख्य मूल है-मुक्ति का अ्दाता है। वीर्य अत्यन्त अनमोल बस्तु हैं। इसी धीय॑ के बल पर मनुष्य देवता चनता है और उसके नाश से बह पूर्ण पतित यन जाता है। विना ब्रह्मचय धारण किये हुए कोई भी पुरुष कदापि श्रोष्ट पद को प्राप्त नहीं कर सकता। वीय॑-प्रष्ट पुरुष कदापि, पांवेात्मा, घर्मात्मा महात्मा नहीं हो सकता। विना अ्मचय के प्रत्यक्ष इन्द्र भी तुच्छ और पद्दलित हो सकता है तव फिर सामान्य मनुष्यों की बातही क्या है ? अतः बह्मचय ही हमारी सम्पूर्ण विद्या, वैभव और सौभाग्य का आदि कारण है ! अ्न्मचर्य ही हमारी श्रेछता, खतंत्रता-

$ अष्ट मैथुन के -. [७

. और सम्पूर्ण उन्नति का वीज मन्त्र है !! त्रह्मचय ही हमारी सम्पूर्ण सिद्धियों का एकमात्र रहस्य है !!! २-अष्ट मेंथुन

“स्मरण कीर्तन केलि: प्रेच्नणं गुह्ममापणं। -

संकल्पोषध्यवसायश्व क्रिया निष्पत्तिरेव

भपुतन्मैथुनमष्टांग॑ प्रवदन्‍न्ति मनीपिण: |

विपरीत' बह्मचय्यं एतत्‌ एवाष्ट लक्षणम॥ १॥

शास््र में त्रह्मचय-नाश के आठ मैथुन बतलाये हैं:--(१)

किसी जगह पढ़े हुए, सुने हुये या चित्र में वा अत्यक्ष देंखे हुए ञ्री - का ध्यान, चिन्तन वा स्मरण करना (२) ल्ियों के रूप, गुण और, अंग प्रत्यक्ष का वर्णन करना--श्वज्ञारिक गायन वा कजली गाना अथवा भद्दी वातें वकना (३ ) स्त्रियों के साथ गेंद, ताश, शतरंज होली इत्यादि खेल खेलना (४ ) किसी त्री की ओर गीघ या ऊंट की तरह गदन उठा कर या घुमाकर पाप-दृष्टि से अथवा चोर-दृष्टि से देखना | (५ ) द्वियों में वार वार आना, जाना और उनके साथ एकान्त में बातचीत करना। खज्नार-रस-पूर्ण वादियात उपन्यास पढ़कर किंवा ल्षियों के भद्दे फोटो देखकर, अथवा नाटक वा सिनेमा के रद्दी कामचेष्टापूर्ण दृश्य देखकर उन्हीं की कत्पनाओं में निमभ रहना। (७) किसी अ-प्राप्य स्री की आप्ति के लिये व्यर्थ पापपूर्ण प्रयन्न करना | और (८) अत्यक्ष संभोग। ये ही अष्ट मैथुन हैं इन लक्षणों के बिलकुल विरुद्ध लक्षण अखरड ब्रह्मचय के होते हैं आदरश त्रह्मचये में इनमें का एक लक्षण बा मैथुन नहीं आना चाहिये | क्‍योंकि इनमें का कोई भी मैथुन किंवा लक्षण मनुष्य को नष्ट अष्ट करने में पूर्ण समर्थ है।

८] 88 अह्ाचग्य ही जीवन है ६8

३-हस्तमेंथुन और उसके दुष्परिणाम

आजकल समाज में उपयुक्त अष्ट मैथुनों के अलावा और भी एक मैथुन नवयुवकों में बड़े भीषणरूप से फेल गया है इस मैथुन से तो वालकों का बड़ा ह्वी भारी संदार हो रहा है; प्लेग ओर इनफ्छुएडज़ा से कहीं वढ़कर यह नया रोग नवयुवकों को जान से मार रहा है। यही नहीं, वल्कि बड़े-बड़े लिखे-पढ़े हुए लोग भी इस काल के कराल पंजे में 'मोहबश' जा रहे हैं. हा ! यह्‌ बड़े ही दुभाग्य की बात है | इस मद्दारोग से पिए्ड छुड़ाना फ़रग इन्फूलुएब्ज़ा से भी महा कठिन हो गया है।इस महारोग को “हस्तमैथुन” & फा रोग कहते हैं। यह रोग बड़ा ही भयानक है ! यह राक्षस मनुष्य को वड़ी कूरता से बिलकुल निचोड़ डालता है। यह भी एक प्रकार की स्त्री की नवविधा भक्ति ही है। फक्र इतना दही है कि परमात्मा की नवविधा भक्ति से मनुष्य की मुक्ति होती है और स्ली की किंवा विषय की इस नवविधा भक्ति से मनुष्य को नरक की आप्ति होती है

हस्तमैथुन के कारण जितनी हानियां, उठानी पड़ती हैं यदि केवल उनके नाम द्वी लिखे जाँय तो एक छोटी सी पुस्तिका तैयार हो सकती है। हम यहां पर इस नष्टकारी कुटेव का संत्तेप में ही वर्णन करते हैं किसी लकड़ी को घुन लगने से जैसे वह बिलकुल खोखली पड़ जाती है वैसे दी इस अधम कुटेव से मनुष्य की अवस्था जजेरीभूत होती है

जा ॥-७ाारशणभारणणााशशणणणनशणणणननाणमामाभाााभााााानभभााामस्‍स्‍५आाआभ आस इमली अल #पापी मलुष्यों ने वीयनाश के बीखों तरीके निकाले हैं थे सब ग्राप्राकृतिक महानिद्य हैं आतः वे सव हमने ''हस्तमैथुन”' में ही समाविष्ठ किये हैं

& हस्तमैथुन और उसके दुष्परिणाम के [५९

हस्तमैथुन को अद्नरेज़ी में ( [886070880॥ ) मास्टरवेशन ऋहते हैं | कोई इसे मुप्टिमैथुन, हस्त-क्रिया अथवा आत्म-मैथुन भी कहते हैं हस्तमैथुन से इन्द्री की सब नसें ढीली पड़ जाती हैं। फल थह होता है कि स्नायुओं के टुर्वल होने से जननेन्द्रिय टेढ़ा, लघु ढीला पड़ जाता है | मुख की ओर मोटा और जड़ की आओर पतला पड़ जाता है। इन्द्री पर एक नस होती है वह उभर आती है और मुँह के पास वाई' ओर कंटिया की तरह टेढ़ी वन जाती है यह नितान्त नपुंसकता का चिन्ह है। ऐसे एक वालक को हसने स्वयं देखा है। नस-दोबल्य से बार बार स्वप्न-दोप होने लगता है। सामान्य कामसंकछपों से ही अथवा शद्भारिक पर्णन, गायन वा दृश्य मात्र से ही ऐसे पतित पुरुष का वीय॑ नष्ट होने लगता है। उसका वीर्य पानी की तरह इतना पतला पड़ जाता है कि खप्न-दोंप के वाद वस्त पर उसका चिन्ह तक नहीं दिखाई देता इन्द्री में वीयेधारण करने की शक्ति नहीं रह जाती ऐसा पुरुष खस्री-समागम के सर्वथा अयोग्य वन जाता है।

' शरीर के भीतर “मनोवहा” नामक एक नाड़ी है। इस नाड़ी के साथ शरीर की संपूर्ण नाड़ियों का सम्बन्ध है ! काम-भाव जागृत होते ही ये सब नाड़ियाँ कॉप उठती हैं। और शरीर के पैर से सिर तक के सब यंत्र हिल जाते हैं; फिर रक्त का संपूर्ण शरीर का मथन होकर वीर्य उनसे भिन्न होकर नष्ट होने लगता है जिससे धातु-दौवेल्य, अमेह, स्वप्न-मेह, मधुमेहादि कठिन रोग शरीर में घर कर लेते हैं 5 शरीर के खून में एक सफ़ेद ( ४॥॥४6 ००797808 ) ओर

5

दूसरे लाल ( 9९१ ००79४800 ) कीट होते हैं सफ़द कीटों

१० ] 89 ब्रह्मचय्य दी जीवन है. के

में रोगों के कीटों से लड़ने की शक्ति होती दै। वीर्य जितना ही पुष्ट अधिक होता है उतने ही ये झुञ्र कोट महान वलवान होते हैँ और विप को भी पचा डालने की शक्ति रखते हैं। परन्तु ज्योंही

वी क्षीण होता है त्योंदी ये कीट भी दुर्वल वनकर हैज़ा प्लेग, मलेरिया के कीटाणुओं से दव जाते हैं और फिर मनुष्य भी काल के गाल में अवेश करता है। ये दीर्यनाश के ही दारुण फल हैं हस्तमैथुन से जो धीयनाश किया जाता है. उससे शरीर ओर दिमाग के समस्त स्नायुओं पर बड़ा भारी धका पहुँचता है। जिससे पक्ताघात, भन्थिवात, सन्धिवात, अपस्मार-मृगी और पागलपन आदि भीपण रोगों की उत्पत्ति होती है | व्यभिचार तो सर्वथा निन्ध हैं ही परन्तु उससे भी महानिन्य यह हस्तमैथुन का कर्म है हस्त- मैथुन द्वारा वीये के निकलने से कलेजे में विशेष धक्का लगता है जिससे क्षय, खाँसी, धास; यक्ष्म ओर “हाट डिजीज़” नामक मद्दा भयानक हृदय-रोग हो जाते हैं हृद्दोग से ऐसे अभागे मलुप्य की कौन से समय में मत्यु होगी इसका कुछ भी निश्चय नहीं होता। अकाल ही में वह रुत्यु को प्राप्त हो जाता है। मस्तिष्क पर तो विजली का सा घक्का रूगता है | हस्तमैथुन से सिर फोरन हलका ओर खाली पड़ जाता है। स्वृति ( याददास्त ) सन्चुद्धि, प्रतिभा सभी चोपट हो जाते हैं और अन्त में ऐसा नष्ट-चीये पुरुष पागल सा वन जाता है पागल-खानों में सौ में ९५ आदमी व्यमिचार और हस्तमैथुन के ही कारण पागल बने होते हैं यही हालत अपनी स्री से अति रति करने वालों की भी हुआ करती है। - टरेन्ठों के डाक्टर वर्कमन कहते हैं “सैकड़ों पागलखानों की जाँच करने पर हमें यही ज्ञात हुआ कि जिनको हम आप नीतिश्रष्ट

& हस्तमैथुन और उसके दुष्परिणाम के... [११

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अशिक्षित मूर्ख सममते हैं उनमें नहीं; किन्तु धम से खच्छुता से रहने वाले शिक्षित लोगों में ही यह हस्तमैथुन का रोग विशेष- रूप से फैला हुआ है ।” खेतों में शारीरिक परिश्रम करने वालों मूर्खों में नहीं किन्तु शहरों के पुस्तक-क्वीट बने हुए नवयुवकों और आदमियों में ही यह घृरित रोग विशेष फैला हुआ है। माता - पिता इस भीतरी कारण को नहीं जानते ।बे सममते हैं कि परिश्रम की अधिकता से ही बालकों की ऐसी दुर्दशा हुई है! मस्तिष्क कमज़ोर होते ही आँखों की ज्योति और कान दाँत की शक्ति भी कमज़ोर हो जाती है। वाल मड़ने और पकने लगते हैं राजा के घायल होते ही जैसे संपूर्ण सेना एक वारगी घवड़ा जाती है उसी श्रकार वीयरूपी राजा को आधात पहुँचते ही शरीर की इन्द्रियरूपी सेना एक वारगी अखस्थ कमजोर हो जाती है। आँख, कान, नाक, जिह्ा, वाणी, हाथ, पेर, त्वचा, आँतें और मलमूत्रेन्द्रिय अपना काम करने में असमर्थ हो जाती हैं. फिर ऐसे पुरुष का वहुत जल्द नाश होता है हस्तमैथुन से सम्पूर्ण शरीर पीला, ढीला, फीका, ढुबंल रोगी वन जाता है | मुख-कान्ति ह्वीन पीली पड़ जाती है ऐसा पुरुष जीवित रहते हुये भी मुदां होता है! हाय ! जिस विषयानन्द को कामी लोग त्रह्ञानन्द से भी वढ़कर समभते हैं, वह विपयानन्द भी ऐसे पतित पुरुष ज्यादा दिन तक नहीं भोग सकते इन्द्रिय छुबलता : के और अन्यान्य रोगों के करण वे गाहेसस्‍्थ्य सुख भी नहीं भोग सकते उनकी सन्‍्तानोत्पादन शक्ति नष्ट हो जाती है। जिससे इनकी ख्त्रियाँ वन्ध्या वनी रहती हैं | अथवा सन्तान हुई तो कन्या ही कन्या होती हैं। ऐसे लोग काम के मारे वेकाम वन जाते हैं।

१२ ] & अद्वाचय्य ही जीवन है #

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सन्ततिसुख से वे हाथ धो बैठते & उनकी स्लियों को कभी सन्‍्तोप॑ नहीं होता है! फिर वे व्यमिचार करने लगती हैं. स्ियों के बिगड़ने से सन्तान भी दुःसाध्य होती है 'अधर्म की बृद्धि होती है | अ्रधम के फैलते ही घर में देश में दारिद्रथ, अकाल व॑ * अशान्ति आदि फैछते हैं। फिर सुख की आशा कहाँ अन्त में सब कुल नरकगामी होता हैँ ( गीता अ० छा क्ोक ४१ से ४४ देखो ) इस महा पाप के मूठ कारण भागी ठुराचारी पुरुष ही होते हैं हाय ! यह बड़ा ही अधर्म और दुष्ट कम है. जिस अभागे को इसके करने का एक वार भी दुभाग्य प्राप्त हुआ तो धीरे धीरे यह “शैतान” हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाता है, यहाँ तक कि आशण धचना भी मुश्किल हो जाता है| ऐसे पुरुष इस महानिन्थ छुटेव के पूर्ण गुलाम बन जाते हैं दुबंल चित्त के फारण इच्छा करने पर भी थे संयम नहीं कर सकते हज़ारों प्रतिज्ञायें करने पर भी एक भी अतिक्षा पूरी नहीं होने पाती | विषयों के सामने आते ही सभी प्रतिज्ञायें ताक़ पर धरी रह जाती हैं। इस प्रकार चीये को नष्ट करने से मनुष्य का मनुष्यत्व लोप हो जाता है। और उसका जीवन उसी को भारस्वरूप माहछूम होने लगता है ।'आवबोहवा का परिवतेन थोड़ा भी सहन नहीं होता हर समय सर्दी गर्मी मातम होने लगती है, जुकाम, सिर-दर्द ओर छाती में पीड़ा होने. लगता है ऋतुओं के बदलते ही उसके स्वास्थ्य में भी होता है और अन्यान्य रोग उत्नन्न हो जाते हैं देश में जब कभी चीमारी फैछती है तव सबसे पहले ऐसा ही पुरुष बीमार पड़ता है और अक्सर वही काल का शिकार वनता है।

& हस्तमैथुत और उसके दुप्परिणाम & . [ १३

हा | ऋषि-सन्‍्तानों के दिव्यनेत्र ज्ञाननेत्र सब नष्ट हो गये हैं और उनको अब उपनेत्र के विना देखना भी मुश्किल हो गया है अज्ञान की घनघोर घटा भारत-आकाश को चारों ओर से आच्छन्न कर रही है। आय॑-सनन्‍्तान आज पूर्णतया तेजोहीन गुलाम बन कर भारत माता का मुख कलूुंकित कर रहे हैं ! हा ! शोक !! शोक !!! शोक !!!

( चस, अब हम इससे अधिक वर्णन करना नहीं चाहते ! केवल वीयशअ्रष्टता के प्रमुख चिन्ह ही कह कर इस विपय को समाप्त करते हैं, जिससे कि हम लोग पतित बालक, बालिका, स््री-पुरुष को 'फौरन पहचान सकें

वीयनाश के मुख्य लक्षण

(१) काम पीड़ित वीयघ्न ( वीय को नष्ट करने वाछा ) वालूक बड़े आदमियों की तरफ आँख से आँख मिला कर नहीं देख सकता | किसी अपराधी की तरह शर्मिन्दा होकर नीचे देखता है अथवा इघर उधर मुंह छिपाना चाहता है

(२) बहुत से चाछाक या धूते लड़के भूठे ही छाती निकाल कर . समाजमें इतस्ततः ऐठते हुएअकड़ कर घूमा करते हैं। वे ज़रूरत से अधिक ढीठ घन जाते हैं; हेतु यह कि ऐसा करने से उनके हुर्गुण छिप जायेंगे और लोगों की दृष्टि में वे निर्दोष जचेंगे

(३) उसका आनन्दमय्र हँसमुख चेहरा ढुःखी उदास वन जाता है। सूरत रोनी वन जाती है। प्रसन्न-स्वभाव नष्ट होकर चिड़चिड़ा, क्राधी रुक् (रुखा) वन, जाता है। चेहरा फीका, पीला मुर्दे की तरह निस्तेज वन ज़ाता है !

(४) गालों पर की पहले की वह गुलाबी छठा नष्ट होकर गालों

१४ ] & बत्रद्मचय्य ही जीवन है

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पर भाई पड़ने (काले दाग पड़ना) लगती है यह अत्यन्त वीयनाश का निश्चित लक्षण है |

(५) आँखें गाल अन्दर धँस जाते हैं. और गाल की हृड्डियाँ खुल जाती हैं

(६) वाल पकने भाइने लगते हैं मूछें पीली सु्खे यानी लाल वन जाती हैं बारह वर्ष के उपरान्त वाल का सफेद होना वीयनाश का स्पष्ट लक्षण है

(७) कोई भी रोग रहते हुए अकाल ही में बुद्ध पुरुष की तरह जजर, दुवल ढीले धनना; किसी अच्छे फाम में दिलन लगना नाताक़त वनना तथा थोड़े ही परिश्रम से दौड़ने से हाँफने लगना और मृत्‌पिए्ड की तरह उत्साह-हीन वनना; देनिक काम करना भी अच्छा लगना; सामान्य से सामान्य काम भी कठिन जान पड़ना

(८) चित्त में कुचिन्ताओं का वढ़ना | थोड़े ही डर से छाती में वेहद्‌ धड़कन आना तथा भयभीत हो जाना। थोड़ा सा डुःख पहाड़ सा माहूम होना |

(९) बार वार भूठी ही अस्वाभाविक भूख लगना अथवा भूख का मन्द पड़ जाना, यह भी वीयेनाश का प्रमुख चिन्ह है। अपच और मलबद्धता ( कब्जियत ) इसका निश्चित परिणाम है। चरपरे मसालेदार पदार्थ खाने में अधिक रुचि रखना

(१०) नींद का आना; यदि आई तो ऐसी आना जैसी कुम्भकर्ण की निद्रा जैसी। उठते समय महा आलस्य निरुत्साह मालूम करना ओर आँखों का भारी पड़ना

८7]

$ हस्तमैथुन और उसके दुष्परिणाम [प्‌

(१९) रात्रि में स्वप्रदोप होना, यह पापी वा कामी मन का पूण लक्षण है *

(१२) वीये का पानी जैसा पतला पड़ना ओर पेशाब के वक्त वीये का बूँद बूँद वाहर निकलना, यह भी हस्तमैथुन का एक मुख्य चिन्ह है। इसका अन्तिम भयानक परिणाम पुरुषत्व का नाश अथ्थात्‌ नपुंसकता है

(१३) बार बार पेशाब होना तथा गरमी, - परमा, प्रमेहादि उम्र रोग होना

(१४) हाथ पैर और शरीर के पोर पोर -में ( सन्धि में ) दुद मातम होना हाथ पैरों में शिथिलता, जड़ता सनसनी उत्पन्न होना तथा उनका मुर्दे की तरह ठंड पड़ जाना

(१०) चल॒वे तथा हथेलियों का पसीजना, यह वीर्य-श्रष्टता का मुख्य लक्षण है।

(१६) हाथ पैरों में कंप माद्म होना, (द्वाथ में पकड़ा हुआ कादाज़ कोई वस्तु दिलने लगना, हाथ काँपऩा )

(१७) न्ञाटक उपन्यास आदि आज्नारिक किताबें तथा चित्र पढ़ने देखने की अत्यन्त रुचि रखना

(१८) ज्लियों में बार वार आना जाना; निल्‍ज्वता से गीध ऊँट की तरह सर उठाकर या घुमाकर किंवा भोर-दृष्टि से छिपकर स्लियों की तरफ़ देखना

(१९) चेहरे पर पिटिका ( मुहरसा ) उभड़ना .यह पापी कामी मन का पूर्ण लक्षण है!

१६ ] & बहाचय्य ही जीवन है की

(२०) किसी समय ऊपर उठते समय एकाएक दृष्टि के सामने अन्धेरा छा जाना तथा मुठ आने से नीचे गिर पड़ना

(२१) मस्तिष्क का विल्कुल हलका खाली पड़ना | स्मरण शक्ति का हास होना देखे हुए स्वप्त का याद आना। रक्‍्खी हुई वस्तु का स्मरण होना और करठ की हुई कविता या पाठ भी भूल जाना और मानसिक हुवेलता का बढ़ जाना

(२२) आवो हवा का परिवतेन सहा जाना

२३) चित्त का अत्यन्त चंचल, दुर्वेल, कामी पापी बनना और कोई भी प्रतिज्ञा पूरी कर सकना तथा सब काम अपूरे ही कर के छोड़ देना एक भी अच्छा काम पूर्ण करना, पर

प्रयन्न पूर्वक पूरा करना। ग्िरगिट की तरह सदा विचार

निश्चय बदलते रहना और सदा मन मलीन नापाक बने रहना |

२४) दिमाग़ में गर्मी छा जाना | नेत्रों में जलन उत्तन्न होता

नेत्रों से पानी बहने लगना

(२०) क्षण ही में रुष्ट क्षण ही में तुष्ट होना

(२६) माथे में, कमर में, भेरुदएड में ओर छाती में वार वार दे उत्पन्न होना

(२७) दाँत के मसूड़े फ़ूलना। मुख से महान्‌ दुरगेन्धि का आना तथा शरीर से भी $ बदबू निकलना। वीयेबान्‌ के शरीर से सुगन्धि निकलती है। (अतः दाँत को बिलकुल साफ़ रखना चाहिये ) *

#वुर्गेल्थो भोगिनो देहे जायते घिन्दुसंचयात्‌ श्री शिवदास वामन

88 माता-पिताओं क्रा-कततन्य ४9 [ १७

२८) मेरुद्रड का झुक जाना; फिर हर वक्त मुक कर बैठना - (२९) बृपण की वृद्धि होना तथा उनका विशेष लटक जाना | (३०) आवाज़ की कोमलता नष्ट होकर आवाज़ मोटा, रूखा अग्रिय वन जाना (३१) छाती का हुर्भंग हो जाना अंथांत्‌ छाती पर का अंतर गहरा और विस्तृत वन जाना और छाती की हड्डियाँ दीखना | ३२) नेत्ररूपी चन्द्र-सूय को अहण लगना नाक के कोने में प्रथम कालिमा छा जाती है, फिर बढ़ते बढ़ते ऑँलों के चतुद्कि अहण लग जाता: है अर्थात्‌ चारों ओर से नेत्र काले पड़ जाते हैं यह अत्थन्त वीयनाश का वड़ा भयानक और भीषण चिन्ह है। (३३) किसी वात में कामयावी होना तथा सर्वत्र निन्दित 'च! अपमानित वनना यह वीर्यनाश की पूरी निशानी है। सन्तति- सम्पत्ति का धीरे घीरे नाश होना, अधम, व्यसिचार पाप का है आयु का घट जाना; वेदशाल्ाज्ञाओं को कुछ भी मानना अपनी ही मनमानी करना अथोत्‌ “विनाश काले विपरीत चुद्धिः” इस न्याय से सब उलटी ही वातें करना यह गुलामी के खास चिन्ह हैं सम्पूर्ण अपयश, दुःख ग्रुलामी का कारण एक मात्र वीये का नाश ही है (३४) अन्त में कभी कभी ठुःख आर पत्चाताप के सारे आत्महत्या करने का भी विचार करना | इति अमुख चिह्मानि

४-माता-पिताओं का कंतेव्य प्रत्येक माता; पिता) गुरु, वन्‍्धु तथा मित्र का सब से अथस कर्तव्य अब यही होना चाहिये कि यदि उपयुक्त लक्षणों में कोई

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१८ _] $ ब्रह्मचस्ये ही जीवन है के

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भी एक-दो लक्षण पुत्र-पुत्री और शिष्य-मित्रोंमें दिखाई दे तो फौरन उन के सामने पाप के परिणाम का भीपण चित्र तथा ब्रह्मचय की श्रेप्महिसा स्पष्ट शब्दों में रखनी चाहिए इसमें लजा संकोच करना तथा अपमान समझना मानों अपनी सनन्‍्तान का पूर्ण नाश ही करना है | "शरीर व्याधि मन्द्रम्‌ तव ही वनता है जब कि मनुष्य त्रह्म- चर्य के आकृतिक नियमों का उल्लंघन करता है। अतः उन्हें उन नियमों का अवश्य ज्ञान करा देना चाहिये माता, पिता गुरु ब्रह्मचर्य का पूर्ण स्पष्ट वर्णन करने में लजाते हैं ! परन्तु यह उनकी भारी भूल एवं मूर्खता है अपने पर बीती हुई दुर्घटनाओं को, जिनके दुष्परिणाम माता-पिता तथा गुरुजनों कों आज भी उनकी मर्जी के विरुद्ध भोगने पड़ रहे हैं, लड़कों से साफ़ साफ़ कहें और

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उनसे बचे रहने के लिये अपने अनुभूत इलाज को स्पष्ट बतलायें '

अथवा यह जीवन पथप्रदीप अन्थ अपने प्रिय बालकों, शिष्यों अथवा मित्रों के हाथ में रख दें, जिससे उनका क्तव्यमार्ग उन्हें साफ़ दिखाई दे

५. कई लोग यह सममते हैं कि यदि बालकों के सामने त्रह्मचर्य की रक्षा के देत हस्तमैथुन शिशुमैथुनादि महानिंद्य घुराइयों ॥क वरणन करे, तो वे यदि भी जानते होंगे तो इन ढुगुणों को जान लेंगे परन्तु यह धारणा” बिलकुल वृथा नाशकारी है। यदि अप कहेंगे तो वालक कुसंगों में पड़ कर दूसरों से अवश्य ही उपयुक्त टुगुण सीख छेंगे | परन्तु घुराइयों |क तीत्र निषेध ब्रह्मचय की उज्वल महिमा आप वर्णन करेंगे तो आपके ।बलक अवश्य ही सदाचारी त्रह्मचारी बनेंगे ऐसा पूर्ण विश्वास रक्खों | गन्दगी था गडढ़े को ढाकने के वनिस्वत उससे बचे रहने का ज्ञान करा

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वैद्य व, डाक्टर के - [१९

देना ही चुद्धिमानी सुरक्षितता है और ग्रही माता-पिता तथा शुरुजनों का पवित्र कतेव्य है| यदि.गुरुजन अच्छे अच्छ . कामों छारा अच्छे ढंग से बालक-चालिकाओं को बत्रह्मचयं की केवल पन्‍्द्रह् मिनट स्कूलों में या घर ही पर वढ़िया शिक्षा दें, तो क्‍या ही अच्छा हो ? हम पूर्ण विश्वास से कह सकते हैं कि भारत का इससे अति शीघ्र उठ्धार हो सकता है। अतः माता-पिवाओ ! सावधान !!

0 ४-वंध डाक्टर

माता-पिता तथा शुरुजनों की लापरवाही के कारण कई अच्छे वालक कुसंग में पड़कर विगड़ जाते हैं वी्य-नाश व्यभिचार के कारण वे अनेकानेक दारुण रोगों से आक्रान्त हो जाते हैं; फिर वे वैद्य डाक्टरों के मकान दूकान छिपे छिपे दँढ़ने लगते हैं कोई मदनमंजरी पिल्‍्स, धातुपुष्टि की गोलियाँ बीयेगुटिका, नपुंसकारिक्षृत, कोई जड़ी, बूटी, छेह, पाक चूर्ण आदि दर दूर से मँगवाते हैं; और वेचारे लाभ की जगह, और भी तन से, मन से धन से ववाद हो जाते हैं; इसका कारण यह है कि जितनी धाठु-पौष्टिक ओपधियाँ होती हैं वे सब कामो- त्तेजक होती हैं; उनके सेवन से शरीर में यदि कुछ ताक्तत भी दीख पड़ती हो तो यह्‌ केवल मनुष्य की भावना तथा उस औषधि के साथ खाये हये दूध मलाई आदि का प्रभाव है संसार में ऐसा कोई भी वैद्य समर्थ नहीं है कि जो दवादप द्वारा वीयहीन को वीय॑वान्‌ अथात्‌ त्रह्मचारी वना सकता हो। यदि कोई ऐसा कहे

२० ] % अद्मचस्ये ही जीवन है $

तो उसकी ध्रृष्ठतता एवं मृखेता है। एक मात्र शुद्ध मन ही भनुष्य के प्रह्यचारी एव' वीर्य धारण करने फे लिये समर्थ यना सफता है। द्वा-दर्पण कदापि नहीं इनसे तो यीर्य का औरभी नाश द्वोता है

आजकल जिसे देखो वहीं वैद्य वन बैठा है। 'वूद्ा भी जवान हो गया 'भुदां भी जिन्दा हो गया' अजब ताक़त की दवा! ऐसे ऐसे भूठे विज्ञापन, का मोहजाल फैलाकर वेश्याओं की तरह वाल-बालिकाओं को तन से, मन से, धन से, प्राण से ये वेद वरवाद कर रहे हैं। प्यारे भाइयो, ऐसे स्वाथान्ध वैदयों से बचे , रहो | सुयोग्य बे्यों तथा माता पिता शुरुजनों के सामने अपने . रोग का स्पष्ट वर्णन करके उनसे उचित सलाह लो। चहुत सी आओपधियाँ अन्य रोगों के लिये भी दिव्य गुणकारी होती हैं; परन्तु एक मात्र विशुद्ध मन सस्पूर्ण संसार में बीर्य-रक्षा के डिये द्व्यौपधि है। अन्ध सब उपाय बथा आजुपंगिक हैं।

जब रोगियों के बारे में वैद्यों का कुछ भी वश नहीं चलता तो अन्त में जल-बायु परिवतेन के-लिए ही उन्हें सलाह दी जाती है; परन्तु उसके पहले वे रोगियों को ,खूब छूट छेते हैं। सचमुच शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध पवित्र भूमि, विपुल प्रकाश विपुल अवकाश वस ये ही इस लोक के पश्चासृत हैं | इसी का सेवन करने से हमारे पूर्वंज ऋषि-मुनि इतने दीघायु, आरोग्य-संपन्न ज्ञानी पवित्र-मानस सामथ्य-सम्पन्न होते थे। यदि हम भी इसी “पंचामृत” का यथेष्ट सेवन “रोज नियम पूर्वक” किया करेंगे तो हम भी उनके समान निःसंदेह श्र प्र बन जाँयगे

के ब्ह्मचय्ये आरोग्य # [२१

6. <-अल्यचय आरण्य “भर्मार्थ काम मोक्षार्या आरोग्यं सूलमुत्तमम्‌ रोगा; तस्थाएपदर्तार: श्रेयलो जीवितस्य चर! ||

एक मात्र आरोग्य ही चारों पएुरुषार्थों का सर्वोत्तम मूल है और रोग उन चारों को भी नए्ठ कर डालते हैं, यही नहीं हम किन्हु जीवन को भी अकाल ही में चिन्ता और चिता पर चढ़ा देते हैं

सच है रोगी पुरुष किसी काम का नहीं होता | बह सब के लिये वोक स्वरूप वन जाता है। रांगी संसार और परमार्थ दोनों सें नालायंक़ वना रहता है रोगी मनुष्य के लिये सथ संसार शुत्य धन जाता है। उसके लिये भोग-मिलास की सम्पूर्ण चीज़ें भी दुखदायी बन जाती हैं रोगी पुरुष चाहे राजमवन में रहे चाहे दिमालय जाय--कहीं सी सुखी नहीं हो सकता उसकी सोनी छूरत तब दी मिद सकती है कि वद या तो मिट्टी में मिल जाय भ्रथवा मकृति के अन्चुधार पुन: शुद्ध बर्ताव करने छग जाय |

निसर्ग के राज्य में मूलतः अत्येक प्राणी निस्घीम निसेगी, परम सुन्दर सब प्रकार से पूर्ण तथा अव्यंग पैदा होता है; परन्तु स्वयं लोग ही अपने दुष्कृतियों द्वारा अपने दिव्य स्वरूप को, बढ़िया आरोग्य को और सुडौल शरीर को बिगाड़ डालते हैं। “जों जस करइ सो तस फल चखा” यह अमिट सिद्धान्त है। सम्पू् विश्व में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है कि जो हमें हसारी इच्छा के विरुद्ध रोगी या निशेग वना सकती हो गिरू; चील, कब्चे वगैरह उसी स्थान पर जाते हैं, जहाँ पर कोई सड़ा जानवर पड़ा रद्दता है; उसी ' तरह रोग, शोक और दुख उसी शरीर में अ्रवेश करते हैं. जहाँ पर

१२ ] अडाचर्य्य ही जीवन की

उनका खाद्य उन्हें मिलता है। आज कल के ज्रादण किसी मरे हुए बड़े सेठ के यहाँ जैसे फौरन बिना बुलाये दौढ़े आते हैं; वैसे हीं रोग, शोक दुःखादि भी नष्ट-बीये-पुरुष के यहाँ फौरन चले आते हैं। परन्तु आरोग्य, सुत्र, शान्ति, समृद्धि, आनन्द इनका हाल ऐसा नहीं है, वे बड़े ही मानी £ ) दुराचारी व्यभिचारी पुरुषों से वे कोसों दूर रहते हैं; केवल सदाचारी अक्षचार्ी पुरुषों के ही यहाँ वें वास करते हैं। बहाचारी पुरुषों को फोई भी रोग नहीं सता सकता प्लेग फालरा भी उनका कुछ नहीं फर सकते सथ कोर दुर्वछों फे ही मारते हैं। बलगान फो फाई सता नहीं सकता। “दैयो दुर्घल घातक: | बस, यही प्रकृति का क्रायदा है। अतः हमको अब सब तरह से बलवान ही बनना होगा, क्योंकि बलवान ही राजा है; चाहे वह भले ही निर्धन हो। रोगी पुरुष राजा होने पर भी भिखारी और पूर्ण ्रभागा सममना चाहिये | “तन्दुयस्ती धेज़ार नआमत है। भोगी पुरुष सदा रोगी ही बना रहता है; बह कभी भी योगी यानी सुखी नहीं हो सकता, वह सदा वियोगी अथात ठुःखी ही बना रहता है। व्यभिचारी पुरुष कद्ापि निरोग ओर वलघान नहीं हो सकता पक्र मात्र चीर्यचान ही बलवान, आरोग्यवान, भक्त ओर साग्यवान द्वो सकता है। वीरयनष्ट पुरुष सदा रोगी दुःखी, पापी और अभागा ही वना रहता है। उसका उद्धार, फिर से बीयंधारण किये बिना सात जन्म में भी होना असम्भव है।

._ संसार में तीन बल हैं--एक शरीरवल, दूसरा ज्ञानबल और तीसरा मनीवछ | इन तीनों बलों में मनोबछ अथात्‌ आत्मबक सब से श्रेष्ठ चल है। बगैर आत्मवछ के और सब बल वृधा हैं।

& ब्ह्मचय्य आरोग्य ४8 [२३

' बाहुबछ; सैन्यवल, द्रव्यवल, नीतिवछ, मतिबलू, धृतिवरू, निश्चयवल, चारित्यवछू, धर्मवल, त्रह्मवछ, ब्रग्रेरर जितने वल संसार में मौजूद हैं, सब इन्हीं तीनों वछों के अन्तर्गत हैं। इनमें सबसे पहिली सीढ़ी 'शरीर-बरू की है वग्गेर निरोग शरीर के ज्ञानबछ ओर आत्मवल प्राप्त नहीं हो सकते | शरीरबल ही हमारे सम्पूर्ण बलों का एक मात्र मूलधार है। अतएव हमें व्यायाम और ब्रह्मचये द्वारा सव से प्रथम शरीर सुधार अवश्य कर लेना चाहिये ! आज हमें भारत के उत्थान के लिये आत्मवल अर्थात्‌: चरित्र- बल की तो मुख्य आवश्यकता है ही; परन्तु उसके साथ ही साथ शारीरिक वछ और ज्ञानवछ की भी अत्यन्त अनिवायरूप से आवश्यकता है शरीर वछ होगा तो हम संसार-संग्राम में विजय श्राप्त नहीं कर सकेंगे | दुवेछता के कारण हम दूसरों के तथा काम क्रोध रोगादि वैरियों के सदा दास ही बने रहेंगे हमारे घर में यदि कोई जबरदस्ती से घुस गया हो तो उसे वाहर घसीट कर ले जाने के लिये हमारे में शरीर वछ का ही होना परम इेषट है | बग्रेर शरीर बल के वह डाकू ,छुशी से वाहर नहीं निकलेगा अतः शरीरवछ प्राप्त करना सब से प्रथम ध्येय होना चाहिये। क्योंकि शयीरवल ही सब ध्येयों का मुख्य आधार है। पैर शरीर खुधार के दम किसी अवस्था में खुखी और स्ववन्तर नहीं हो सकते और किसी काम में सिद्धि दी प्राप्त कर सकते हैं। शरीर रोगी होने पर संसार का कोई भी पदार्थ व्यक्ति हमें कमी सुखी शान्त नहीं बना सकता | केवल हम ही अपने को एक मात्र सुखी, खतंत्र और शान्त बना सकते हैं। अतणव शरीर सुधार हमारा प्रथम रक्ष्य होना चाहिये | क्योंकि यही

२४] # अप्लचय्य ही जीवन है. के

चारों पुरुपा्थों का मुख्य मूल है; और इसी में हमारी मुक्ति किंवा स्वतन्त्रता भरी हुई |

80070 3470 ॥॥ & 80070 800४9” यानी “शरीर सुखी और पुष्ट है तो आत्मा भी सुखी और पृष्ट है और शरीर दुखी ओर दउुवेल है तो आत्मा भी दुखी और दु्वेल है,” यही प्रकृति- शाल्ष का नियम है, शरीर निरोग होने पर हमारी आत्मा भी अत्यन्त निसेल, चली और सामार्थ्य-संपन्न वन जाती है. रोगी शरीर में आत्मा की उन्नति का होना कठिन है अतएव प्रकृति के नियमानुसार चछकर सदाचरण द्वारा त्रद्मचारी बन, अपना शरर सुधार लेना हमारा सब से प्रथम ओर श्र कतंव्य हैं

हमारा केवल यही एक मात्र शरीर नहीं है | स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण, ऐसे हमारे चार शरीर हैं और इनके अतिरिक्त हमारे इस शरीररूपी साम्राज्य में असंख्य शरीरधारी कीटाणुओं की सेना सर्वत्र भरी हुई है, जो कि हमारी रात-दिन रक्षा कर रही है। इन सब का अधिष्ठाता आत्मा उनका राजा है | विजय उसी राजा की होती है जिसकी सेना वलवान ओर प्रचण्ड है। ठीक यही हालत हमारे शरीररूपी सेना की और आत्मारुपी राजा की सममिये

-सहलननननानीनतानतसिभक,

-अह्यचर्य के विषय में प्रमांद

आज हिन्दू जाति इतनी पतित क्यों हुई है ! वह इतनी रोगी; दुवेल, निरुत्साही, मूख ओर अस्पायु क्‍यों हुई है। जिस भारतवपे में भीष्म पितामह और हनुमान जैसे शरबीर, गंभीर; धीर और

& बद्मचय्ये के विपय में प्रसाद के [२५

अनिलनजन->++० ०5, जल '33५७३५2 नर हम 2 >2त 2-33 2५ 292५-०3 ५2९: 4३०७० ज-५ल्‍कर,

ज्ञानी त्रह्मचारी हुये हैं; जहाँ पर व्यास, वशिष्ठ; वाल्मीक, गौतम, भरद्वाज, अत्रि, पराशर जैसे त्रिकाल ज्ञान के समुद्र हुये हैं, जहाँ पर धर्मराज, शिवि; दधीचि, हरिश्वन्द्र, कर्ण और बलि जैसे महान्‌ प्रतापी, सत्यमूर्ति, धर्मावतार हुये हैं; जहाँ पर नीति, न्याय, मयोदा के पालनेवाले बड़े वड़े शूरवीर रणघुरूधर, जनक, परिक्षित, दथरथ; रघु जैसे राजे महाराजे हुये हैं; जहाँ पर विश्वामित्र, भरत, भगीरथ जैसे निस्सीम कठोर त्रत के त्रतधारी महात्मा हुवे हैं; जहाँ पर झुक, सनक, सनन्‍्दन, सनातन, सनत्कुमार जैसे ब्रद्मनिष्ठ अह्यचारी तपस्त्री द्वो गये हैं; जहाँ पर राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रू घ्त और धमराज, भीम, अजुन, नकुल, सहदेबादि तथा श्रीकृष्ण, वलरामादि जैसे अत्यन्त तेजस्वी-ओजस्वी, आज्ञाक्ारी, सुपुत्र और सहोदर हो गये हैं; जहाँ पर सीता, सावित्री अनसूया, दमयन्ती, शझ्ुन्तला, रुक्मिणी, द्रीपदी, लोपामुद्रा, मैत्रयी, गांधारी जैसी महान पतिनिष्ठा ओर अत्यन्त तेजस्वी सती ख्ियाँ हो गयी हैं; जहाँ ध्रुव, लव, कुश, प्रहलाद, अभिमन्यु और भरत जैसे महाव्‌ तेजस्वी, ओजस्वी और सामथ्य-संपन्न सिंहशावक से वालक हुये हैं--उसी वीरम्स्‌ भारतभूमि में हम उन्हीं की सन्‍्वान आज ऐसी 05, ्‌ ५5 नीच, पतित, ढुर्बल, रोगी; मूखे, अन्पायु, परवंत्र और पूर्णतया अभायी क्यों हुई हैं! इसका असली कारण क्या है? हमको ऐसा नीच परतन्त्र और ठुभांगी बनाने वाले हमारे दुर्धर शत्र, कौन हैं| |... . ठहरिये ! जरा भगवद्वाणी को प्रथम छुन लीजिये; साथ ही ठुलसी चचन को भी देखिये “आत्मैच हात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ॥7 “काहु कोड खुख हुखकर दांता,निजकूत कम भोय सब श्राता”

शहर ] & अद्यचय्य ही जीवन है $

क्या हमारे शत्रु हम ही हैं और हमारे मित्र भी हम ही हैं? क्या हमारे ही कृत कर्मों से हमें ऐसी नीच दशा भ्राप्त हुई है ? हाँ भगवद्दाणी तथा संतवाणी हमें यही बतला रही है! “ठुम ही अपने मित्र दो तथा तुम द्वी अपने श्र भी हो, अपने पतन के कारण केवल तुम्दीं दो ।” सत्य है ! नीति न्याय मर्यादा का उलंधन करने ही से अर्थात्‌ अधम और अन्याय चढ़ने ही से आज हमारी ऐसी पतित हालत हुई है; जैसे हम अपने के कुकर्मो' द्वारा पतित बना सकते हैं वैसे है! सुकमो' द्वार अपना उद्धार भी कर सकते हैं। उन्नति के लिये अब हमें धर्मक्ा आचरण अवश्य ही अति शीत्र शुरू करना - होगा ! श्री गीतादेवी के सच्चे अध्ययन की आज हमें नितान्त आवश्यकता है। आज हमें सच्चे कर्मबीरों की वड़ी ही जरूरत है। वीयभअष्ट कच्चे कर्मवीर बड़े दी घातक होते हैं; वीच ही में किसी डर के कारण अपने कर्तव्य को छोड़ भागने वाले पुरुष बड़े कायर और नाम होते हैं। "काम मर्दे' का नहीं जो कि श्रधूरा करना, जो बात ज़्बाँ से निकाले उसे पूरा करना।” वस ऐसे ही मर्द पुरुष की आज भारत को जरूरत है। नामर्द और व्यभिचारी पुरुष का अब यहाँ कुछ भी काम नहीं है। क्‍योंकि ऐसे लोग देश के घोर शत्रु होते हैं वीय॑नाश के कारण आज तक चहुत कुछ नाश हो चुका है। अब हमें अपने पूर्वजों का अनुकरण अति शीत्र करना होगा और दुराचार को छोड़ पूर्ण सदाचारी जहाचारी वनना होगा। “हमारे बावा ऐसे थे और वैसे थे, ऐसा कोरा अभिमान और कोर वातें हमें अब साफ़ छोड़ देनी होगी उनकी जैसी प्रत्यक्ष करनी ही करके हमें अब दिखलाना

६8 अह्मचय्ये आश्रम चतुष्टय के [२७

होगा हमें अपने पूर्वजों की तरह प्रत्यक्ष वीर्यवान और सामथ्यवान वनना होगा आज भो हम भीमाहुंन जंसे बली ओर धनुधोरी अर्जुन वन सकते हैं प्रोफेसर माणिक रत्र, गामा, भो० एकनाथ घांत' और श्रो० शद्दा इस चात के आज जीते जागते' चष्टान्त हैं हमारा भोजन हमी को खाना और पचाना पड़ता है। केवठ भोजन की तरफ़ देखने से अथवा उसकी ,खुशबू से अथवा उसकी कोरी तारीफ से ही सिर्फ़ हमारा पेंट कभी नहीं भर सकता; वैसे ही अपना, बछ, तेज, सामर्थ्य; स्वातंत्रथ और वैभव भी हम ही को कमाना पढ़ता हैं पूर्वजों की कोरी तारीफ से कुछ भी नहीं हो सकता यद्यपि आज हमारा वहुत कुछ पतन हुवा है; तो भी सदाचार हारा हम पुनः त्रक्मचारी बानी वीयवान और बली हो सकते हैं | सेकड़ों प्रो? साणिकराव और सहसीरों प्रों० शहा इस भारत भूमि सें पुनः निमाण हो सकते हैं| याद रक्खो, केवछ सदाचारी पुरुष ही त्रह्मचारी ओर उन्नत हो हैं कि दुराचारी व्यभिचारी पुरुष ! मु्माये हुये पेड़ जैसे पानी मिलने से पुत: सजीव और चेतन्यमय हो सकते हैं वैसे ही सदाचरण से हमारी सम्पूर्ण गुप्त शक्तियां खुछ पड़ती हैं, और - शक्तियां खुछते ही फिर हम अपने पूथजों को तरह अपना वह तेज पराक्रम निश्चयपूर्वक सर्वत्र दिखला सकते हैं

(५ घआाश्रम ८-त्रेहमचय चतुष्टय हमारे शाब्कारों ने शाल्ों में “प्रकृति के नियमानुसार” चार आश्रम निर्धारित किये हैं। उनमें से प्रथण और सब से

“२८ ] के अद्गाचप्ये द्वी जीचन दै 4

के की के कलर ै्लिअलनल>अन्‍टीवलीयनीन टीटीपल*

प्रथम अद्यचय्याश्रम है ! मानों यह आश्रम सम्पूर्ण आश्रमों की नींव है और बाखव में है भी ऐसा ही। त्रद्मचयोश्रम की मर्यादा उन्होंने पुरुष की २५ वर्ष की और ख्जी की १६ वर्ष की “पूर्ण दृष्टि” से निश्चित की है इसमें तिल भर फक्र नहीं हो सकता। यदि 'कोई व्यक्ति इस नियम को तोड़े वो प्रकृत्ति भी उस व्यक्ति को तोड़ डालती है। प्रकृति फे नियम परम कठोर हैँ; जो उन नियमों के अज्लसार चलता है उसे थे अम्रत फे समान फल देने चाले होते हैं और जो उनका अतिक्रमण करता है उसे वे विपतुल्य संद्दारफ वन जाते हैं। सदुपयोग करने से अप्ि जैसे 'परम उपकारी हों सकती है और दुरुपयोग करने से वही अप्ति जेसे महान विनाशक वन जादी है, ठीक थहीं न्याय श्रकृति के सम्पूरो नियमों का भी सममिये |

श्रक्षचये दो प्रकार के हैं | एक “नैप्ठिक” ओर दूसरा “उपकुवांण” आजन्म अह्यचारी को “लैप्टिक” कहते हैं. और शुरुणद सें यथायोग्य अह्मचर्य पान कर, विद्या आ्राप्ति के अनन्तर गृहस्थाश्रम में श्रवेश करने वाले करक्षचारी को " ऋहते हैं

यदि कोई आजन्म-मरण त्रह्मचर्यत्रव धारण करे तो फिर पूछना ही क्या वह इस छोक में सचमुच देवता ही के तुल्य पूज्यनीय वन जाता है; ऐसे पुरुष बहुत कम हैं उदाहरखार्थ:-- भी समथे रामदास स्वामी, स्वामी द्यानन्द, स्वामी विधेकानन्द, स्वामी रामहष्ण परमहंख, वगैरद इसी डब्बशेणी के आदर्श अह्चारी मद्ात्मा हुये हैं जिनको श्राज संसार से पूजे जाते हुये दम आप प्रत्यक्ष देख रहे हैं।

# बद्यच्र्ज्य और विद्यार्थी के [२९

दूसरा आश्रम शरहस्थाश्रम”' है। इसकी मर्यादा २५ से लेकर ५० वर्ष तक की निश्चित की गई है। इसमें धर्मोाचरण से चलकर केवल सुअ्जा निर्माण करने की आज्ञा है, .न कि कुप्रजा

तीसरा ५० से लेकर ७५ वर्षा तक वानग्रस्थाश्रम' है। इस अवखसा में अपनी श्री को माता तुल्य मान कर, उसके साथ विपय-रहित झुद्ध व्यवहार रखने की आवश्यकता है

चौथा और अन्तिस सन्यासाश्रम' है, जिसमें कि सर्वसंग परित्याग कर आत्म-कल्याणार्थ एकान्त का आश्रय लेना पड़ता है ओर अहनिश अक्मचिन्तन करना पड़ता है, कि विपय चिन्तन

एक मात्र ज्ञानी और विरक्त पुरुष ही सन्‍्यास का अधिकारी हो सकता है! मूल रोगी पुरुषों को सन्‍्यासी होना पूर्ण लांछना- स्पद और अवनतिग्रद है सूखे पुरुप ख़ास कर पेट के लिये ही वीच में सन्‍्यासी वावा वन जाते हैं। लेखक में ऐसे कई मूर्ल और दुराचारी सन्‍्यासी और कई अधस वानप्रख्ाश्रमी अपनी आँखों

देखे हैं ओर ग्रहस्थाश्रमियों को वो आप हम सब ही देख रहे हैं

( ले

ब्रह्मयय और विद्यार्थी ब्रह्मचयाश्रम को विपयरूपी सुरज्ञ से उड़ाने वाले आज लाखों करोड़ों ख्री-पुरुष सम्राज में जिधर देखो उधर चारों ओर दिखाई दे रहे हैं। जड़ काटने से जैसे पेड़ की श्थिति होती है; वैसे दी खराव और गिरी दशा त्रह्मचयरूपी जड़ को काटने वाले ग्रहस्था- श्रमियों की हो गई है। “नष्टे मूले नेव शाखा पत्रम्‌” इस न्याय

३० ] के अद्मचय्ये ही जीवन है

जज ++

से वेचारे दिन दिन सूखे जा रहे हैं और निःसनन्‍्तान वन रहे हैं बाल पके हुये, अन्धे बने हुये, चश्मे लगे हुये, कमर टूटी हुई, बाहर भीतर रोगों से घुले हुये, आँख गाल अन्दर धँसे हुये, दुःखी दुवंल और निरुत्साही बने हुये, निःसत्व निस्तेज बन कर अत्यन्त डरपोक चने हुये, सब तरह से आत्म-पतित, पापी, ओर गुलाम बने हुये, असंख्य ढुखों में सने हुये और ज़िन्दी ठठरी बने हुये, तिस पर भी श्वान-शुकर की तरह कामाप्मि में जलते हुये, ऐसे २०--२५ वर्ष के निर्वी्य बूढ़े विद्यार्थी और गृहस्थाश्रमी ही आज सर्वत्र दिखलाई दे रहे है ! हा ! यह दृश्य चड़ा ही भयानक मालूम हो रहा है। इस ह्ृदयद्रावक दृश्य से भारत-प्रेमियों का हृदय आज भीतर ही - भीतर जल रहां है। जिनके ऊपर भारत का सच्चा उद्धार निर्भर है, जो कि भारत के मुख्य आशास्क्‍लल और आधारसतम्भ हैं ऐसे नवजवानों को ऐसी पतित और शोकपूर्ण दशा में देख कर किस भारतपुत्र का हृदय दुख से हिल नहीं जाता ! हमें तो रुलाई आने ज्गती है प्रभो ! यह हमारा वड़ा द्वी भारी पतन हुआ है। जो भारत एक समय परमोत्र उन्नति का केन्द्र था, जिस भारतवप में हज़ारों वलशाली और बीयेशाली नरसिंह वास करते थे, जिसकी ओर कोई भी राष्ट्र आँख उठाकर नहीं देख सकता था, जो सम्पूर्ण विद्याओं में सव का शुरु था, जिसका अभाव सम्पूर दुनिया पर पड़ा हुआ था, जिसके अंगुलिनिर्देश से सम्पूर द्ड मण्डल काँग उठता था; बही भारत आज गुलामों का क्रेदखाना सा बन रहा है और सब तरह से पीसा, निचाड़ा और जलाया जा रहा है | हाय ! इससे घढ़कर पतन ओर कौनसा हो सकता है ? नहीं, हमको अब

&$ काम का दमन # [३१

तुरन्त उठ खड़े होना चाहिये | इसी में हमारी भलाई है | यदि चेतेंगे तो भारत का चिन्ह तक मिट जाने की संभावना है इसलिये मेरे भारतवासी भ्रात-भगिनी-मित्रणण ! अब सावधान होइये ! आँखें खोलकर अपने तथा अन्य देशों की ओर ज़रा निहारिये ओर निहार कर अपना पूरे वैभव श्राप्त करने के लिये निश्चित से कटिबद्ध हो ब्रह्मचय द्वारा अपना पुनः उद्धार कर लीजिये। एक अकह्मचये ही के द्वारा हमारा उद्धार होना 'सहज-संभव” है, अन्य सव उपाय वृथा हैं। बिन्दु को खाधने वाला सप्तसिन्धुओं को भी अपनी मुट्ठी में--कृष्ज़े में ला खकता है। संपूर्ण संखार में , ऐसी कोई भी वस्तु स्थिति नहीं है, जिसे श्रह्मचारी पुरुष प्राप्तन कर सकता द्ो। हाथी का रहस्य जैसे अंकुश है 'वैसे ही हमारे सम्पूर्ण विद्या, वैभव और सामर्थ्य का रहस्य एक मात्र हमारा त्रह्मचय ही है। असी सी त्रह्मचारी वन सकते हैं और वीयथारण कर के अपना तथा भारत का सच्चा उद्धार कर सकते हैं | अतः मेरे परम प्रिय भारतपुत्रो! अब नींद के छोड़ दो * अब तक वहुत-कुछ से चुके हो और खो चुके हो अब जाभृत होकर खड़े हो जाओ ओर खड़े होकर निश्चय के साथ अपने पैर सिंह के समान .उन्नति की ओर निर्भयता से वढ़िये | अवश्य विजय होगी, निश्चय जानो |

१०-काम का दमन

“काम का उरूच ही होने दो” एक मनुष्य ने शेर का वच्चा पाला था वच्चा वहुत ग़रीब

"सन्‍९ छ्र0 अंटटएुड, गांड 7070776- 68987:

३२] & अद्यचय्ये ही जीवन है

था। एक दिल नींद सें वह बच्चा मालिक का वांया ह्थ चाटनेलगा चाटते चाटते दांत लग जाने से हाथ का थोड़ा सा खून निकला अब वच्चा कान टेढ़ा किये खून चाटने लगा। तकलीफ के भारे सालिक जग पड़ा और अपना हाथ हटाना चाहा | किंचित्‌ हाथ हटाते ही शेर एकद्स खड़ा हो गया और जाति स्वभावानुरूप /गुररररररर्ररर? गर्जेन कर उसने हाथ को पंजे के नीचे मजबूती से दवा लिया और फिर रक्त चाटने लगा। मालिक ने साचा, “अरे वाप रे ! अब तो सामला बड़ा वेढव है। यदि में इसको और भी प्यार करूँ ते! यह मुझे फाड़ खाये बिना नहीं रहेगा” उससे निश्चय किया और तुरन्त सनन्‍्दूक में से पिस्तौल मँगवाया पिस्तोल मिलते ही “रे नमक हराम” ऐसा कह कर तत्काल धड़ाके से गोली छोड़कर

उसे सार डाला 0

सेरे प्यारे भ्रात-भगिनी-मित्र गण ! यद्कामरूपी शेर तुम्हारा शोषण करना चाहता हो तो तुम भी उसे फ़ौरन सार डालो २० वर्ष तक विषय से विलकुल दूर रहो उसका स्मरण तक मत करो क्योंकि पूोक्त नव-मैथुनों में से अत्येक मैथुन त्रह्मचय का नाशक है। अन्‍्धे के जैसे शीशा दिखलाना व्यथे है। वैसे ही कामान्ध पुरुष को भी उपदेश करना व्यथ है। उल्द्ू तो दिन में हीं नहीं देख सकता परन्तु कामान्ध पुरुष दिन और रात दोनों में नहीं देख सकता कामान्ध पुरुष डवल उल्ह्ू होता है। जो विषय अत्यन्त दुःखप्नद, त्याज्य नरकप्रद है बह सू्खों को अत्यन्त प्रिय सघुर सारूम होता है और जो पस्मार्थ मनुष्य को इसी जीवन में अमृत तुल्यं फल शान्ति देने वाला और अन्त में मुक्तिफद है तथा जिसका आधार त्रह्मचये के ऊपर ही मुख्यतः निर्भर है, वह परमाथे उन्हें विष के समान कडुवी

काम का दमन [ हेई

माल्स होता है। जो चास्तव में विप है उसे अ्रम्दृुत खमर्भंना और जो भत्यक्ष अस्त है उसे विप सममना ये घोर पाप के लक्षण हैं। यह बात नि: सन्देंह सत्य है कि जिसे सांप काटता है. उसकों मिर्च भी तीत नहीं लगठी और नीम कडु॒वी लगती है परन्तु चीनी उसे बहुत द्वी कड़वी लगती है। ठीक यही हालद विषय रूपी सर्प से दंशित पुरुषों की भी सममिये | उन्हें सब उलटी ही चातें सूकती हैं और उनकी दृष्टि में सव पाप दी पाप भरा रहता है। वे सभी स्तलियों की ओर पाप-दृष्टि से देखते हैं और इस प्रकार व्यर्थ पाप के भागी घन अन्त में नरक को जाते हैं आज वड़े बड़े देवखानों में भी नाच रंग व्‌ व्यभिचार घुस गया है कई सन्दिरों पर वो भद्दे भी 2 हुद्दे हुये हैं हा ! पापी पुरुष क्‍या नहीं करेंगे? शड्जा जी में! 4 तक डूवे रहने पर भी उनकी पाप दृष्टि नहीं जाती। देव-दर्शन के हाने मन्दियें में ओर चायु सेवन के मिस से घाट पर तथा ज॑ जगह कई गीघ बैठे हुए नित्य दिखाई देते हैं। धिक्वार है, नारकी जीवों को !

जहाँ. दिखदय धस्या, भये पुयय का नाश |

मानों चिनगी आग की, परी पुरानी घास॥ १॥

विविध नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्तन:

काम: क्रोधस्तथां छोमस्वस्मादेतत्‌ तय॑ त्यञ्ञेत्‌

भगवान्‌ कहते हैं:--नरक के तीन श्रचण्ड महाद्वार रात दिन खुले हुए हैं सब से पहला छार काम का है जिसमें कि विषय के गुलाम वलात्‌ खींचे और दूसे जाते हैं। दूसरा छार कोधी पुरुषों के लिये है और तीसरा द्वार लोभियों के लिये है।

दे

३४ ] ब्रह्मचय्य ही जीवन है

बी विमीजरीम>रीभती रस ध2>२०३क5

५५०, 2५ 4 2थ#५ -थ-१७:#० #०५ ०५/१७-# ०७५3७ ०; ७4५ नीसीयण- कण

कामी पुरुष जीते जी ही नरक का अन्लुभंव करने लगता है; वह जीते जी ही मुर्दो वन जाता है जगदुगुरु श्री दत्तात्रेय मुनि कहते हैं:--/जो छोग गन्दगी से सदा भरे हुए मल मूत्र के खानों में स्ममाण रहते हैं, ऐसे नारकी जीव नरक से क्यों कर तर सकते हैं ? पुरुषों! तुम चर्ममयी नरक-कु'ड की ओर क्यें ताकते हो? क्या नश्क् के कीट बनने के लिए ? छी छी ! इससे तुम्द्वारा कैसे उद्धार द्ोगा ? क्या यहीं स्वर्ग-खुख है ज़रा तुमद्दी लेचो कि यदद स्वर्ग-भोग है या नरक-भोग ? इस प्रकार तो शुक्र, कूकर और गोबर के कीड़े भी आनन्द मनाते हैं | इनसे फिर तुम्दारा दर्जा ऊंचा कैसा ? ऊंचे दर्ज के लिये हमें अवश्य अपने आचार-विचार भी . ऊंचे द्वी रखने चादियें ! केवल महुष्य की देह धारण कर लेने से फोई “मनुष्य” नहीं हो सकता। विद्या और विनय, तप' व॑ शान्ति, कान्ति दान्ति ( लावश्य तथा दमन शक्ति | शुण अ-गव , धर्म अदृम्स इत्यादि सदुण॒णों से ही मन्ञप्य 'मलुप्य' वन सकता है ओर इश्वरत्व के प्राप्त हो सकता है। परन्तु इन सब की जड़ एक मात्र ब्रह्मचयं है, यह सत्य वात कभी भूलो

कासान्ध मलुष्य तारुण्य के मद्‌ से विषय में प्रीति भले ही रखता हो और अपनी मनमानी भले ही करता हो; परन्ठु वे ही विपय उसे आगे इस रीति से पटक देते हैं, जैसे पेड़ों को वाढ़ ओर आंधी ! वेचारा मोहवश विपय में फँस कर “सुख की बुद्धि” से ख्ी-संग करता है और अपने ही वीर्य का नाश कर अपने को; घन्य इतारथ सममता है; जैसे कुत्ता सूखी हड्डी को चवाते समय | मुँह से निकले हुए खून को सूखी हड्डी से निकला हुआ सममत कर अपना ही खून चूस कर वह मूखे बड़ा ,खुश होता है; जैसे विच्छ

# कास का दसन &8 [३५

था खटमल की शय्या कदापि खुखकर नहीं हो सकती, वेसे ही विपयी पुरुष भी कदापि सुखी नहीं हो सकते, थे सदा बेचैन बने रहते हैं “दुखी सदा को ? विपयातुरागी ।” ऐसा श्रीसत्‌ शह्ल- राचार्य भी कहते हैं सच है; सांप के फन के नीचे बैठा हुआ चूहा कव तक छाया का सुख मनावेगा ? मेढक, सांप द्वारा आधा निग्ले जाने पर भी जैसा वह मू्खे मक्खियों के लिये मुँह खोलता है, वेसे ही कामी पुरुष भी अनेक रोगों से अधमरे होने पर भी विपय सेवन के लिये हाथ-पैर फैलाते ही हैं। गदही के छांतों से नाक-झुँह फूट जाने पर भी जैसे वह गद॒हा गदही की आशा नहीं छोड़ता, उसके पीछे पीछे ही दौड़ता है; वेसी ही दु्देशा काम के कीटों की भी होती है; वे सब तरह से नष्ट-भ्रष्ट ढुखी होने पर 'भी अपनी कुबुद्धि को नहीं त्यागते और विपय के पीछे मारे मारे फिरते हैं | दाद को खुजछाने से जैसे वह कदापि शमन नहीं हो सकती, उसे वैसे ही छोड़ देने तथा स्नान उपवास हारा शरीर की .सफ़ाई रखने ही से वह शान्त हो सकती है, वेसे ही काम के सेचन से काम फी शान्ति कदापि नदीं हो खकती। ऐसा आज तक किसी ने नदेखा और सुना ही है सांप को छेड़ने से नहीं किन्तु सांप से दूर रहने ही से जैसे हम वच सकते हैं; बेसे ही काम फे सेवन से नहीं किन्तु काम से दूर रहने दी से काम की सब्वी शान्ति हो सकती है और हम भी पूण शान्त खुखी बन सकते हैं यदि कोई नासाणेगी सफ़ेद मिट्टी के तेले को, पावी समझ कर, जलते हुए भोंपड़े पर डाले, तो कैसा उल्टा परिणाम होगा ? क्या कमी ईंधन से अप्नि शान्त हो सकती है| कोई कहेगा; “हाँ, हो सकती है; ढेर

३६ ] $; अह्मचय ही जीवन है #$

किन अटल जल ली जन *

सी लकड़ी डाल देने से आगी बुक सकती है।” हम कहते हैं; “अधिक घिषय सेवन करने से फिर तुम भी अकाल में बुर जाओगे ! एक शराबी ने ऐसा ही किया। एक दिन उससे खूब शराब पी ली। नतीजा यह हुआ कि एक ही घंटे में उसकी दु्षेल बनी हुई खोपड़ी नशे के मारे फट गई और वह मर-गया। ययाति राजा ने अपने पुत्र की सी आयु ली ओर तमाम उम्र भर उसने विषय-सेवन किया परन्तु उसकी शान्ति नहीं हुईं। अन्त में वह ज्ञयी बन गया, उसको क्षय हो गया इसी कारण संत उपदेश करते है:--

( भजन प्व-गज़ल की )

“विषयों से मन के तृप्त काना नहीं अच्छा जलती अगिन के घी से बुझाना नहीं अच्छा १॥ खुख भोगते ये ज्रगव के सभी हैं नाशमान। तृष्णा बढ़ा के जी के फँलाना नहीं अर्छा-॥ २॥ है गच्छुतीति# जगत्‌ धाम दुःख का भारी। रंग रंग के खेल देख लुभाना नहीं अच्छा | “घन धाम इणष्ट मित्र रूप नारि और पुत्र। दरगिज़ घमएड इनका करना कभी अच्छा ४॥ वामन' है आयु चीतती अब से भी ज़रा चेत। डुलभ शरीर पाक्े गँवाना नहीं अच्छा ॥५॥

अतएव, प्यारे भाइयो ! जहाँ तक हो सके वहाँ तक; मनुष्य को अलवर पलक किक पक > मल पकअप लक 44४ :726 36% 0:

# जानेवाला क्िंवा बदलने धाला जगत

काम का दसन ३७१

वेकाम बनाने वाले इस टुभर यानी कभी भी तृप्त होने वाले

महापेटू पापी काम से सदा दूर रहे ! इसी में कल्याण है! थयज्य कांमखुलं लोकछे यत्व दिव्यं महत्छुखम | तृष्णाक्षय खुखस्थेते नाहंतः पोड़शी कलाम

अर्थात्‌, निष्कामता में यानी विषय बैराग्य में जो सुख भरा हुआ है उसका सोलहवाँ हिस्सा भी सुख संसार के स्वर्ग के समस्त विपयों में तथा दिव्य ऐश्वयोदि में नहीं है। अतः इस सहाशनो महापाप्मा काम रिपु को “सगवाब, के आज्ञातुसार? ऐप डालो, नहीं तो वह दुष्ट तुम्हें ही .भार डालेगा ! याद रक्खो

( भजन )

अनारी मन काम नरक के मूल धू

रक्न रूप में रहे लुभाना, भूछ गये। हरिताम द्वाना। था यौवन का कौन ठिकाना, दो दिन में द्वो घूल ॥१॥ अम्त-भरे कलश बतढाये, धरि धरिके आनन्द मनावे |

मड़े की चैली है मूर्ख, जापै रहघों बड़ो फूछ ॥श॥। जा मुख के चन्दाकर मानो, धुक्र छार चामे किपटानो छी छी छी छी ! ठुमारी मतिपर, विष्ठा में गयो भूल ॥शा कैसा भारी घोका खाया, हाड़चाम पर मन छछचाया | 'घामन! इस पर गौर किया कुछ ? यही कालके पूछ ॥छ॥।

इं८] 8४ ब्रह्मचय ही जीवन है,

११-प्रकृति का स्वभाव

प्रकृति का स्रभाव अत्यन्त कठोर और दयाछु है वह अत्यन्त न्यायग्रिय है न्याय में वह क्षमा नहीं करना जानतों। सदाचारियों के लिए प्रकृति परम प्यारी मांता है और दुराचा रियों के लिये धद्द पूरो राज्नसी है। वद्द स्वयं राज्ञसी कदापि नहीं है। धद् परम दयालु जगन्माता है।फेवल दुराचारियों ही के। वह यक्तधी जैसी प्रतीत द्ोती है परन्तु दरड में भी हम सुधारने का ही उसका पत्र हेतु होता है ठोकर खाने ही से मनुष्य सावधान द्वोता है।

आज अत्यन्त वीयनाश के कारण तरुण समाज अत्यन्त नाशोन्मुख हो रहा है और दिन पर दिन रसातल को जा रहा है चाहे तुम कितने ही अँधेरे में और कितने ही चालाकी से वीर्य-ताश करो और अपने को कितना ही सुरक्षित बुद्धिमान समभो और कुकर्मों को छिपाने की कैसी दी कोशिश करो, परन्तु वीय॑-ताश होते ही मृत्यु तत्काल तुम्हारे द्वार पर डटतीं है और तुम्हारा इन्तज़ार करती है| प्रकृति माता अपने हाथ में डंडा लिये तुम्हारा वह्‌ नीच कृति देखती है तथा प्रत्येक बूँद के लिये तुन्हारे मम स्थानों पर कठोर डंडा अद्दार करती है। ज्यों ज्यों तुम वीयनाश करोगे त्यां स्यों वह तुम्हें मारते मारते बेदस अधमरा कर डालेगी। तब भी यदि नहीं चेतोंगे सुधरोगे तव अन्त में तुम्हारा इतज़ार करती हुई मृत्यु की ओर तुम्हें, सड़े फल की तरह, फेंक देगी तुम्हें उठा के नरककुर्ड में बिठा देगी !

आज कितने ही तरुणों के बदन पर हम उन डंडों की चोटों

& प्रकृति का स्वभाव छठ [ ३९

के गहरे निशान अतिदिन देख रहे हैं कितने ही हतभागी छोग भहारोगियों की तरह खटिया पर पड़े पड़े तड़फड़ा रहे हैं कोई गर्मी से पीड़ित है कोई फिर भी, उन निशानों को लिये हुए समाज में इधर-उधर मूठे ही छाती निकाल कर ऐंठते हुए अकड़ कर घूम रहे हैं कोई माछा फेर रहें हें और इधर नाड़ी भी टटोछ रहे हैं ओर मन में राम का नहीं; किन्तु काम का जप कर रहे हैं ऋब कहिये ऐसे छोगों की क्या गति होगी ? बेचारों की #तो अष्टसतोअ्रष्ट:” ऐसी ही त्रिशंकु की तरह दुर्गति होगी, और क्या ? दम्भाचार में दीन है ढुनिया ही है।

“बंचक भक्त फहाय राम के |

क्रिंकर कंचन हाय काम के ॥?

* बहुत से वालक तो ऐसी ढुर्गति को पहुंच गये हैं कि उन्हें भात तो क्‍या पर दूध तक नहीं पच सकता, पाखाना भी साफ़ नहीं होता खाना तथा पाखाना में वड़ी ही ठुदंशा हो गई है। भोजन कर भी लिया तो पचता नहीं इधर खाया और उघर निकल गया। यदि पचा भी तो उसका सार वीये शरीर में रहने नहीं पाता रोज़ स्वप्रदोप अर्थात्‌ धातुक्षय हुआ करता है ! फिर छिपे छिपे वैद्यों की दूकान ढू ढ़ते हें ! परन्तु उनको याद रहे कि वीयनाश करनेंवाछा यदि साज्षात्‌ धन्वन्तरि ही क्‍यों हो तथापि वह भी अपने को कदापि वचा नहीं सकता फिर दूसरे वीयहीनों को बह

' कैसे बचा सकता है ? आजकल के डाक्टर वैद्य क्या धन्वन्तरि से भी ज्यादा बढ़ गये हैं ! हाँ | छटने मारने में वे अवश्य वढ़े-चढ़े हुये हैं। किसी ने वैद्यों को “यमराज का भाई” कहा है, सो वहुत ही यथार्थ है। यम तो केवल प्राण ही हर लेता है पर वैद्य श्राण

४०] के ब्रह्मचय ही जीवन है #

७०५०3 ५०५१न्‍० 2

और भन दोनों छट लेते हैं। दवाओं से रोग “बढ” से अ् नहीं हो सकते दवा से रोग थोड़ी देर के लिये दब सकते सही, परन्तु छुछ अरसे के बाद वे दूसरों शह्त में पैदा होते हैं। “मरत बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की” इसका यही प्रत्यक्ष प्रमाण हैक़ि “उ्यों ज्यों डाक्टरों बैच्यों की संख्या बढ़ती जाती है यों सयों रोग और रोगियों की भी संख्या बढ़ती ही जाती है और इस बात को कोई जानना चाहता हो, तो चह अखबारों में दवाओं के विज्ञापनों को देख सकता है। प्यारे मित्रो, विदेशी लोग इन विज्ञापनों कों देख कर दिलमें क्‍या सोचते होंगे ? दम दी अपने डाकूर हैं। भाइयो ! छोटो ! अकृति माता की शरण में आओ वह पस्म दयाछु है तुम्हारा जरूर सुधार करेगी विश्वास रक्खो प्रकृति माता की दया बिता कोई एक घण्टा भी नहीं जी सकता। नाक) कान, मुंह, मल, मूत्र, त्वचा इत्यादि द्वारा, चल्कि रोम रोम से, वह दसारे भीतर का संपूर्ण जहर हरदम बाहर निकाल कर फेंकती रहती है और हमें चंगा किया करती है अतः हमें चाहिये कि प्रकृति के “पच्चासत” का अथात्‌ झुद्ध हवा, प्रकाश, पानी, भूमि आकाश ( 89808 ) इनका रोज़ यथेष्ट पान करें और कुकमों फो त्याग कर सुकर्मों द्वारा अपना पुनरुद्धार कर छें। हमारा उद्धार इमारे ही हाथ में हैं। चस्ठुतः दम ही अपने डाकूर हैं, गुरु हैं। पद्‌--( राग--अखावरी )

“कर्मो' का फल पाता होगा | झ्ु

क्यें अरे तू चेतमें आबे,

सभी ठार तज जाना दोगा।

के प्रकृति का स्वभाव के [४१

&२3७०५-७५२३१३१३५७० ५२ ९०९>५धल्‍५५2५23५ध९ञ७2५३५>५७३९५३५४३५+५०७-०-७:

विषय सोग से सभी तरह बच, . बचा तो सड़ जाना होगा॥ |॥। “सुर-दुर्लम-तनु_भोगी श्वानवत्‌, क्या झध . कहकछाना होगा। घर्माधम॑ कछू. नहिं मान्यो, कम-दरड यहीं पाना होगावशा। अन्त समय परे मन मूरख |! जज्क तेरा ठिकाना होगा। कुछ इस जग में फीति ऋछमा ले, ,धमेद्दि ले साथ जाना द्वोगा ॥रे॥ “सूछि गये कर्तब्य आपने, देख चहुत पछुताना होगा आँखे रहते अचन्चधीा सत बन, शुभ विचेक से तरना होगा ४॥ जैसा जैसा कमरे करेगा, दैसा ही. फल. खाना होगा अब भी 'वामनः चेत में आजा, नहिं तो डुगति पाना दवागा॥ ४॥

“वगत' शेघ्य' ।४ -

“५दीती तादि बिसार दे, आगे की खुधि लेई ।”

सचमुच हमको अब जरूर सम्दलना होगा | जछते हुए मकान से वाहर निकल आने में ही बुद्धिमानी है; उसी में ज़िन्दगी है। यदि हम अपना कल्याण चाहते हैं तो महापुरुषों के सहुपदेशा- चुसार हमको तन-सन-धन से शीघ्रतया जरूर चछना होगा माता

४२ ] # ब्रह्मचय्ये ही जीवन है

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पिता अथवा शुरू यदि अधर्ममयी आशा करते हां ते उनकी बह श्ाज्षा भ्र प्रह्मद, शुक, आदि की तरह कदापि माने | मीष्मपितामह ने अपने ब्रह्मचय्य के भंग करने की गुरु की अनुचित थआाशा विदकुल नहीं मांनी; तब गुरु शिष्य में युद्ध छिड़ा। अन्त में परशुराम जी को उस महान्‌ अ्रतापी अखणड अद्यचारी धमममअ्रतिज्न भीष्म के सामने हार माननी ही पड़ी अहा ! क्‍या ही यह तऋह्मचर्य का प्रताप है ? हमको भी अपने त्रह्मचर्य के पालन में अब ऐसा ही हृद्प्रतिज्ञ होना चाहिये “बैय्ये हुटे पड़े चोट सौ घन की | यही दशा द्वानो चदिये निज मन की ॥” सचमुच 'हृदय से? चाहने वाले के जैसी घुराई सहऊ है, वैसी भछाई भी सददल है। अतएव मनुष्य को चाहिये कि वह अपने ढुवृत्त मन को हठपूर्वक या विवेकपूवेक विपय से हटावे। घुराई एकाएक दूर नहीं हो सकती यह घात सच है परल्तु “पुरुषस्थ भ्यल शीलस्य असाध्य' नास्ति |” पुरुपार्थी पुरुष के लिये संसार में कुछ भी असाध्य अशक्य नहीं है। हृदय से उचित प्रयत्न करने पर सव कुछ सरल है। अभ्यास से असाध्य भी साध्य हो जाता है। बड़े बड़े अक्रीमची और शराबी भी अपनी मात्रा को थोड़ी थोड़ी घटाते घटाते अन्त में ज्यसन-मुक्त हो गये हैं, इस बात

०. |

को कभी भूलो वैसे ही हम भी सुधर सकते हैं।

# मन इन्द्रियाँ के [४३

इन्दयाँ १२-मन इच्द्रियाँ रहे शान्त जे युवा में , शान्त धीर चह चीर | नष्ट हुए पर चीय के, का बने गम्भीर १॥ १॥

सच्चा कुशल सारथी वही है ज़ो उन्मत्त घोड़ों को अपनी क्रावू में रखता है; उन्हें उच्छ्नल नहीं होने देता | वैसे ही सच्चा वीर पुरुष वही है जो कि युवावस्था में भी प्रवछ इन्द्रियों को अपने अधीन रखता है; उन्हें स्वतंत्र स्वेच्छाचारी नहीं होने देता। शत्रु ओं पर और संपूर्ण राजाओं पर विजय भ्राप्त करने वाला सच्चा श्र नहीं कह जा सकता | सच्चा श्र वही है जो मन और इन्द्रियों का स्वामी है और मन तथा इन्द्रियों पर केवछ महापुरुष ही अधिकार चला सकते हैं और कोई भी मनुष्य यदि सहुपदेशों के अनुसार सन-क्रम-वचन से चले तो महापुरुष हो सकता है। इसमें कुछ भी कठिनता नहीं है मैला कपड़ा जैसे पुन: साफू दो सकता है। वैले ही विषय डुष्यंसन से गन्दा बना हुवा मन भी पुनः साफ दो सकता दै। परन्तु अटछ निश्चय पूरी इृढ़ता होनीचाहिये ।पवित्च मच माता, पिता, गुरु मित्रों से भी अधिक उपकारी है; मन दी मनुष्य के नरक में फंकता है और मन ही मलुष्य को नरकमें से निकाल कर ऊंचे पद्‌ पर पहुँचाता है; मन दी सुख दुःख का असली कारण है; मन दी स्वग नरक, बंध मोक्ष का पदाता है,-- ऐेखा भगवान श्री कृष्णचन्द्र का चचन है। अत: मन के इज़ियार में रक्खे | मन बड़ा दगा- बाज़ है। मन के वायदे के कमी माने “मन के द्वारे हार है, मन के जीते जीत ।” यद्द अटल सिद्धान्त जानो | मन के।

४४ ] के ब्रह्मचय्य ही जीवन है. के

हडड+ल>+ 5 +5

बाँधोगे ते मन तुमके जहाँ चाहे वहाँ पटक देगा, यह निश्चय समझो क्या आपका इसका अनुभव नहीं है ! “आस्मोद्धार कैसे है। !” इस पर सच्त कहते हैं “सन की कथनी से डछटी रीति पर चले-- उल्टी चाल चले। मन का ग़ुदाम सब का शुल्ंम है। वह पंडित होने पर भी महाएू्ख है, बलवान होने पर भी भद्दान दुबंल है और राजा होनेपर भी पूरा दुखी, अ्मांगा और मिखारी है ।” भन का स्वामी ही सम्पूर्ण जगत्‌ का स्वामी है, चाहे वह शरीर से भले ही दुबंरू हो | श्रीगोस्वामो जी कहते है;--

काम क्रोध मद लोभ की, जब छग मन में खान !

तुछलों पणिडत सूरखे, दोनों एक खमाने॥ १३

अतः हमें चाहिये कि इस ग्रन्थ में दिये हुये सरछ, श्रोष्ठ अमूल्य नियमों द्वारा अपने मन को स्वाधीन कर बह्मचर्य का सच्चा पाछन करें तथा अपना सच्चा उद्धार कर हें)

१३-वीये की उत्पत्ति

“रखाद्वक्त' ततो मासम्‌ मांसान्मेद्‌; प्रजायते।

मेदस्थाइस्थि दतो' मज्ञा मज्याया: शुक्र॒लंसव: --श्रीश्षश्षुवाचार्य महुष्य जो कुछ भोजन करता है, बह प्रथम पेट में आकर यचने लगता है और उसका रस बनता है; उस रस का पांच दिन तक पाचन होकर उससे रक्त पैदा होता है; रक्त का भी पांच दिन तक पाचन होता है और उससे मांस बनता है। पाचन की यह क्रिया एक सेकण्ड भी बन्द नहीं रहती एक को पचा कर

# वीये की उत्पति 8 [४५

कैररनअमयम७.५>0७/५०-३३७५..> ०५८०

दूसरा, दूसरे से तीसरा, तीसरे से चौथा ऐसा एक से एक सार पदार्थ तैयार हुआ करवा है. और प्रत्येक क्रिया में फजूल चीजें मल;

मूत्र, पसीना; आँख, कान नाक का मैल, नाखून, केशादिक

के रूप में बाहर निकल जाती हैं इसी अकार पाँच दिन के बाद

मेदा से असि, अख्वि से मज्य और मज्जा से सप्तम सार पदार्थ

“वीर्य” बनता है। फिर उसका पाचन नहीं हो सकता। यही

“वीर्य फिएः ओजस! रूप में संपूर्ण शरीर में चमकता रद्दता है।

ख्री के इस सप्तम शुद्धाति शुद्ध सार पदार्थ के “रज” कहते हैं

दोनों में भिन्नता होती है। वीये काँच की तरह चिकना और सफ़ेद होता है और रज लाख की तरह लाल होता है। अस्तु। इस प्रकार

रस से लेकर बीये वा रज तक छः धातुओं के पाचन करने में

पाँच दिन के हिसाब से पूरे ३० दिन करीब घण्टे लगते हैं,

ऐसा आये शास्रों का सिद्धान्त है #

यह वीये वा रज कोई खास जगह में नहीं रहता। संपूर्ण शरीर ही इसका निवास स्थान है। बादाम या तिल में जैसे तेल, दूध में जैसे मक्खन, किसमिस ईख में जैसी मिठास, काठ में जैसी अभि किंवा फूल में अथवा चन्दन में जैसे सुगन्ध सर्वत्र कण कण में भरी रहती है; उसी तरह वीये भी शरीर के भत्येक अणु परमाणु में मरा हुआ है वीय का एक बूँद भी निकरूना मानो अपने शरीर के नीवू की तरद्द निचोड़ ही डालना है।

के घातों रखादों मच्जान्ते प्रत्येक॑ क्रमतो रख: अद्दो राजात्स्थयं पंच साहू दस्ड तिष्ठति इति भोजः

आशे--रस से मच्जान्त पर्यन्त प्रत्येक्ष धातु पाँच दिन रात डेढ़ घड़ी

तक रहती है ( ढाई घड़ी का एक घन्दा होता है )

४६ ] #$ अह्यचय्य ही जीवन है #

चिल्ला कल

६.

जैसे मथने से दूध के प्रत्येक परमाणु से मक्खन खींचा जाता है उसी प्रकार पूर्वोक्त नवधा मैथुन द्वारा शरीर के समसत परमाणुओं से वीय॑ खींचा जाता है। उस समय शरीर की तमाम नसें हिल जाती हैं; और शरीर के प्रत्येक अवयवों को रेल की तरह वड़ा भारी धक्का पहुँचता है

हस्त-मैथुन&/ और अत्यक्त मैथुन को छोड़ अन्य सप्त-मैथुनों द्वारा जो बी शरीर से पसीज कर भीतर पतन होता है वह अशड-कोप में ठहरता है यह पतित वीर्य पदच्युत कैदी राजा की तरह हतवल तेजोहीन बन जाता है वीय का पतन होते ही शरीर भी उसी क्षण नि्बल, निस्तेज, दुःखी अत्पायु चन जाता है। जब तक तेल ऊपर चढ़ता है तभी तक दीपक की ज्योति प्रकाश फैडाती रहती है और ज्यों ज्यों तेल का नाश देता जाता है त्वों त्यें। वद मन्द हेते द्वोते अन्त में बुक जाता है वैसे ही जब तक वीय' ऊपर चढ़ता रहता है तभी तक शरीर में चमक-द्मक, उत्साद आनन्द्‌ दिखाई देता है और ज्यों ज्यों वह नीचे उतर कर नष्ट हे।ने लगता द्वै त्यों त्यों चमक- दमक, उत्साह आनन्द बल और आयु सभी धीमे पड़ जाते है श्रीर रे जीवन-दीप भी बुक जाता है--जीवन का सर्वनाश

ताहै।

वीये के ऊपर चढ़ने ही को शास्रमें ऊर्ध्व-रंता कहते हैं और

पतन को आअधरेता अखरड ब्रह्मचारी में और जिसका एक भरतवे भी वीये पतन हुआ हो--इन दोनों में बहुत ही फर्क होता बीस नी: उसी चल -न>न «५ 32-०--+->नन«न-3- न्‍संकरकब»>क का 4 सका भा शा ५३७" काना 2नक+ फसमफकनम--रकार- कम गा

कपाठकों को स्मरण होगा कि “हस्तमैंथुन'” में हसने वीयनाश के सभो ध्रन्प्राकृतिक साधन समाविष्ट किये हैं

# बीये की उत्पत्ति के [४७

है ऐसे पुरुप की ऊर््व रेता बनने की दैवी शक्ति वहुत कुछ नष्ट हो जाती है तथा उसका अधःपात होता है। और यह वात; एक ही मरतवे के वीयनाश से विश्वामित्र का कितना भयद्कुर पतन हुआ, इस उदाहरण से भली भांति सिद्ध होती है ।वीय' का पतन होते द्वी मजुधष्य का भी पतन तत्काल होता है। उस की संपूर्ण शक्तियां का हास होने लगता है। ज्यों ज्यों वीय॑ का नाश होगा त्यों त्यें जीवन का सी अवश्य नाश होगा और उयों ज्यों धीय॑ धारण किया जायगा त्यों त्यों जीवन का भी वारण हागा और मन्नुष्य बहुत उम्र तक जीवित रहेगा। घ्रह्मचर्य' द्वी से मजुष्य सौ वर्ष तक जीवित रह सकता है और उसमें देवो शक्तिया प्रगट हे। खकती हैं।

* हब यह जानना अल्ावश्यक है कि कितने भोजन से कितना वीर्य पैदा होता है। इसका निश्चय वैज्ञानिकों ने इस प्रकार किया है कि एक भन्त यानी ४४० खेर खुराक से 4१ सेर रुधिर बनता है और

_१ सेर रुधिर से दे। तेछा चीय' वनता है, यानी “एक तेला वीय' के वरावर चालीस ताला किया आध सेर खून” यह उन का सिद्धान्त है |

यदि निरोग मनुष्य सेर भर ,खूराक रोज़ खावे तो ४० सेर .खूराक ४० दिन में खावेगा। अतः यह सिद्ध हुआ कि चालीस दिन की कमाई दे। तेला घीय हैं| इस दिखाब से ३० दिन की अर्थात एक मद्दीने को डेढ़ तोला हुई थीय का दाश एक वार में मनुष्य का वीये डेढ़ तोला से कम क्या निकलता

6

होगा ? जो कि ३० दिन की कमाई है। अब ज़रा विचारने की

४८ ] त्रद्मचर्य्य ही जीवन है

वात है कि इतने कठोर परिश्रम से तीस दिल में प्राप्त होने वार्ली डेढ़ तोला अमूल्य अतुल्य दौलत एक क्षण ही में फूंक डालना कितनी घोर मूर्खता है ? चह कितना घोर. पतन है? ऐसा पुरुष उस भूख वाग़वान के समान है, जो तन, मन, धन से दिन-गात परिश्रस कर फूलों का सुन्दर वास सैयार करता है और पैदा हुए असंख्य फूलों का इन्न निकलवा कर उसे भोरियों में डालता वा डलबाता है आमदनी एक रुपया की खर्च तीस रुपयों का ऐसा जितना अन्धा, मूखे, पागल और भिखारी है, उससे करोड़ गुना बह मलुष्य मूल, पागल, अन्धा, भिखारी, रोगी, हुःखी अभागा और काल का शिकार है जो एक महीने से कहीं ,ज्यादा की वीर्य-सम्पदा एक दिन में खाक कर डालता है। एक मरते के वीयेनाश से ही यदि मलुष्य की महा दुर्दशा होती है तब रोज दो-दो तीन मरतवे अथवा चौथे, आठवें दिन वीयनाश करने वाले फिर अति शीघ्र नष्ट होंगे इसमें संदेह ही कया है? श्रतः जिस्हें' दोर्धायु सुखी वनना है, उन्हे' महीने में पक मरतवे से अधिक अथचा भ्रीमजु महाराज के आशाजुसार ऋतुकाल' का सच्चा थे समझ फर महीने में दो मरतवे से श्रधिक तो, कभी भी चीय॑नाश करना चाहिये। नहीं तो डछटा झपना ही नाश हो जायगा, यह बात याद रक्छो

आस ( यूनान ) के महा ज्ञानी तलवेत्ता साकेटीज़ (सुकरात) से किसी ने पूछा कि “ल्ली असंग कितने मरतवे करना चाहिये ?” उत्तर मिल्रा कि “जन्म भर में एक वार !” फिर पूछा “यदि इतने से शान्ति हुई तो १” “अच्छा, फिर साल भर में एक वार करे ।? “उतने से भी सन भ्ाने तो १” “अच्छा फिर मास

& वीये की उत्तत्ति के [४९

भर में एक वार करे” “इतने पर भी रहा जाय तो ९” अच्छा फिर एक सास में दो वार कर सकते हो; परन्तु जल्दी मत्यु होगी १” “इतने पर भी शीत मिली तो ९” अच्छा तो, फिर ऐसा करे कि अपने कफ़न का सब सामान छाकर घर में पहले रख दें और फिर जैसा दिल में आषे वैसा किया करें | क्‍योंकि मालूम किस समय उसकी मौत जावे और उसे खा डाले !”

रति-प्रसंग में अनेकों के अनेक मत हैं.। चाहे कितना ही मत- भेद क्‍यों हो परन्तु सार वात यह है कि घीरयनाश जितना ही कम किया जायगा उतना द्वी स्वास्थ्य अधिफ अच्छा दोगा और मनुष्य दीर्घायु रहेगा, यद मत सभी को मान्य है। जितना दी अधिक विषय का सेवन किया जाता है उतना ही मच अधिक अशान्त, मलीन, पतित दु:खी द्वो जाता है | बह तब द्वी शान्त हो सकता है जब वह या तो धर्म के अथवा प्रकृति के नियमानु- सार चले किंवा मिट्टी में मिल जाय !

खब के सब ब्रह्मचारी

कोई कह सकता है “सभी छोग त्रह्मचारी वन जाँय तो फिर सृष्टि चलेगी कैसे” ? हम कहते हैं--/मित्रों ! सृष्टि चढाने की फ़िक्र आप करें स्ष्टि का चलाने वाला निराला ही है। केवल आपही अपनी फिक्र करों ओर विपय के कारण अकाल में नष्ट-भ्र.्ट बनो | अक्मचये से सृष्टि नष्ट तो नहीं किन्तु मुक्त अब * श्यमेव हो सकती है क्योंकि त्रह्मचये ही आत्मोद्धार का तथा विश्वोद्धार का सच्चा रहस्य है अखण्ड वीयंधारण तथा शाब्षोक्त विपय सेवन का नाम ही त्रह्मचय है। वस्ठुतः अक्षचये से सृष्टि

५० ] ब्रह्मचय्य ही जीवन है मे

नष्ट होगी” ऐसी शंका करना ही व्यर्थ मूर्खतापूर्ण है। प्रकृति शान होते हुए भी “अनन्त है बस इसी एक वाक्य में इस परन्न का मुँह-तोड़ उत्तर है. हमारे श्रद्मयचारी होने से अनन्त अयात्‌ अन्त-रहित प्रकृति का अन्त कदापि नहीं हो सकता, यह बात हमें कभी भूलनी चाहिए | अतः मित्रों | श्रथम अपने उद्धार की कोशिश करो क्योंकि आत्मोद्धार ही लोकोद्धार है| यदि ऐसा करोगे तो तुम्हारी चमगीदड़ की भांति उल्टी स्थिति होगी, निश्बय जानो |

१४-गहस्थी में बल्मचर्ग्य

है छः प्रह्मचणथ. समाप्याय गशहधर्म समाचरेत्‌। ऋशन्नय विमुच्चर्थ ध्मेणोत्पादयेत प्रजाम्‌॥ १॥ ब्रह्मयय की अवस्था पूर्ण होने के वाद पचीस, की

युवावस्था में गृहस्थ धर्म को स्वीकार करे और ऋशल्लय विमुक्तबर्य ( देव-छण, ऋषि-ऋण पिह-ऋण इनसे छुटकारा पाने के हेठु ) धर्म की विधि से सुप्रजा निमोण करे, कि छुप्रजा | . शालों में हमारे आचार्यों ने श्कति के नियमानुसार शह्मचर्य के नियम पहले ही से वाँध रक्खे हैं। अ्क्ृति के नियमों के तोड़ने से किसी का भला नहीं हो सकता | यदि उन नियमों के अझुसार चले तो मलुष्य स्री के रहते हुए भी ऋ्रह्मचारी हो सकता है। अखरुड ब्ह्यचारी में और गृहस्थ-तद्गाचारी में यद्यपि बहुत फर्क होता है; तब भी धर्म-नियम के अछुसार चलने वाला यृहस्थ- ब्रह्मचारी भी महान्‌ तेजस्वी, ओजस्वी, यशस्वी, मनस्की अर्थात्‌ मनोनिग्रह्दी सामरथ्य-सम्पन्न होता है जिस स्थान में सच्चा

& ग्रहस्त्री में अह्माचय्य #$ प्‌ ५१

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ब्रह्मचारी पहुँच सकता है उसी स्थान में सच्चा यहस्थ भी जा सकता है| परन्तु आज सच्चे यूहस्थ ब्रद्माचारी भारत में कितने होंगे ? चहुत ही कम | यह नितान्त सत्य है कि सच्चे गृहस्थ ब्रह्मचारी के होने से ही भारत ग़ास्त हो रहा है; घर घर में कुसन्तान फैल गई है, जो कि १२ वर्ष की उम्र के वाद ही अपने त्रह्मचये का सत्यानाश करने सें प्रवृत्ति होती है। स्वयं माता-पिता ही अपने कन्या-पुत्रों के श्रह्मचर्थ के नाश का वाल-विवाहद्धारा खुहमखुल्ला“यथेष्ट श्रवन्ध कर रहे हैं भला ऐसे नादानों से ,खुद उन्हीं की नहीं; तो देश के भलाई की आशा कैसे की जा सकती है ? जो प्रकृति के नियमा को पैरों के तले कुचछता है, उसे प्रकृति भी कठोरता से कुचछ डालती है। बहुत से विवादित पुरुषों का _ख्याऊ है कि अपनी धर्मपत्नी के साथ महीने में चाहे जब, हफ़ में कोई भी दिन और रात में चाहे जितने मरतवे, कितने ही काल तक, विषयोपभोग करना बिलकुल शाख्न-संगत ओर ईश्वरीय आज्ञा के अनुसार है; उसमें कुछ भी पाप या अधमम नहीं है और उसमें कुछ हानि ही होती है। परन्तु यह ,ख्याल अत्यन्त ग़लत और महा नाशकारी है। भाइयो ! जरा प्रकृति की ओर तो देखो? पशुओं की अपेक्षा मनुष्य कितना वलदीन है ? तथा पशुओं का जननेन्द्रिय सामथ्बे कितना अत्प नियसित है ? इस पर से मनुष्यों को, जो कि घोड़ा, वैल; हाथी, सिंद्ादिकों से कम शारीरिक सामरथ्यं रखता है, कितना अत्यल्प अत्यन्त नियमित विषय सेवन करना चाहिये, इसका आप ही हिसाव लगाइये |! खच कहा जाय तो मनमाना विषय सेघन करने वाछा पशुओं ले भी गया बीता है ऋषियों का सिद्धान्त है कि:--

धर] & ब्द्मचय्य ही जीवन है #

ऋताबती स्वदारेप संगतियाँ विधानतः

प्रह्मचयंतदेयोक्त गृहदस्थाश्रमधासिनाम --श्रीयाक्षवद्षय “ऋतुकाल में अपनी झ्री से ( धर्मपत्नी से ) विधियुक्त अथात्‌ शाल्बाज्ञानुसार केवल सन्‍्तान के हेतु समागम करने वाला पुरुष, . गृहस्थाश्रस में रहते हुए भी, ब्रद्मचारी ही है।” 'सन्तानाथ मैथुनम' यह स्पष्ट सख् शात्नाज्ञा है, याद रक्खो श्री मनुमहाराज कहते हैं--“मास में ऋतुकाल में केवल दो ही रात्रि में जो धर्म- शाल्लाज्ञाजुसार स्ली-सेवन करता है वह धमात्मा पुरुष ज्री रहते

हुए भी मह्यचारी है |”

इसमें का “ऋतुकाल के” यह्‌ शब्द अत्यन्त महत्व का है। ऋतुकाल का मतलब ज्री के रजोदशन काल का चौथा ही दिन नहीं है उस दिन यदि शिवरात्री एकादशी अथवा नवरात्र आया टी. स्‍ कक तन ......32333+39-५+५७ पक +नओ ३७७५७ ०-७०७-७५०७»+७ाा८७५३०५०५4००५ कक

# ऋतुकाल का सच्चा ध्र्थ जानना दो और घर में ' दोरे” निर्माण करने दों तो लेखक को “'मन-दांच्छित सनन्‍्ततति? नामक ग्रत्यन्त महत्व पूर्ण करीय ४०० पृष्ठों को मौजिक किताब ज़रूर पढ़ी, मनन करो व॑ ग्राचरण में लाध्ो | इसमें का ्क एक नियम णाख लाख रुपयों का है किताब ह्द्‌य में ही रखने योग्य है। शक्ष हज्ञार श्राइ आने घर छपवाना शरू कर को मुल्य दो रुपया रहेगा किताब में लगभग सात श्ाठ झुन्दर चित्र भी रहेंगे

आडेर भेजने का मुख्य पता:-- मैनेजर, राष्ट्रोद्धार-कार्याल्य, बड़ौदा ' ( 35.२000,58 )

ह8 गहरी में अह्मचर्य्य ५३]

होतो? अथवा घर में ही कोई मर गया तो ? क्‍या उस दिन कासरिपुचरिताथ करना ही होगा ? नहीं, कदापि नहीं ! वैसा करना पूर्ण अधमे महापाप होगा

बस इससे अधिक हम यहाँ पर इस बात का ज़िक्र नहीं करना चाहते | विष भी यदि डाक्टर की राय से खा ले तो वह भी अमृत के तुल्य फल देता है, वेसे ही अपनी ञ्ली का सेवन भी, यदि धर्म-शाल्राचुसार सुतिथि, सुनक्षत्र का विचार कर, अ्रमाय में करे तो वह भी परम कल्याणकारी होता है अशमाण! में निस्संदेह नाश है प्रमाण से लेने पर बिप भी रोगियों के लिये अस्त वन जाता है। कुसमय पर बीज वोने वाला किसान डूब जाता है ठीक यही न्याय अपनी झ्ली के सेवन में भी समझ लीजिये याद रक्खों, धर्माइकूल चलने ही से हम, ग्रहस्थी में भी, ब्रह्मचारी बन सकते हैं और घर में जैसी चाहे वेसी शूर, वीर, श्रोष्ठ पुत्र-पुत्रियाँ उत्पन्न कर सकते हैं। अन्यथा पर-दारा-गमन करने पर भी, मलुष्य व्यभिचारी पद को प्राप्त होता है और उसकी सब तरह से टुरयंति होती है अ्रमाणः--

घर्माथी' य: परित्यज्य स्थादिन्द्रियवर्शानुग: श्रीप्राणघनदारेश्यो; ज्षिप' परिहीयते

- जो धर्मतत्न का परित्याग करके, इन्द्रिय-नश हो स्वेच्छाचार अथोतू अपनी मनमानी करता है; शीघ्र ही, घन, आाण, ख्री, पुत्रादि सभी नष्ट होकर, उसकी महान इुर्यति होती है। और जो धर्मव्वानुसार चलता है, उसका देखते ही देखते सब तरह से उत्कर्ष होता है और अंत में सदूगति होती है | “तस्मात्लव॑प्रयत्नेन

५४ ] & त्द्यचर््य ही जीवन है.

9 इसलिये छ. 2 ध्म' शुक्तं रक््येत, !” इसलिये सब श्रकार से प्रयत्नपूर्वक धम ब्रह्मचय की रक्ता कीजिये क्योंकि धर्म ही जीवन है और अधम ही मृत्यु है! तथा अह्मचरय ही जीवन है और वीयनाश ही मृत्यु है।

[2] १५-चालनबबाह

बाल-विवाह यह ग्रत्यज्ष काल-विवाह ही है. यह पूर्णतया श्ह्मचय्ये का नाशक है | वाल विवाह सर्वथा धर्म-विरुद्ध आग-

* कृतिक है | तथा वेद शाह्षके श्रतिक्लूल छः है प्रकृति के नियमानु- सार ही धर्मशात्र में नियम है अतः बालविवाह प्रकृति एवं धर्म के विरुद्ध कैसा है सो अब सुन लीजिए--

(१) जो पेड़ जल्दी बढ़ते, जल्दी फूलते-फहते हैं ( जैसे केला, पपीता, रेंड इत्यादि ) वे उतने ही जल्दी नष्ट भी होते हैं वैसे ही जो वालक वालिकायें जल्दी व्याही जाती हैं, जल्दी ऋतु मति होती हैं, ( केवल ऋतु प्राप्त होना यही स्री की युवावस्त्रा का

# वेदानघोत्य बेदौ वा बेंद वापि यधाक्रमस ! आधिष्णुतब्रह्मचयों गृहस्थाश्रममावसेतु १॥ सबसे श्रेष्ठ स्मृतिकार साज्षात्‌ वेदमृति मनु जी कहते हैं--' जब तक लड़का तोन दो वा एक बेद प्रूण सीख ले और कम से कम २५ वर्ष ता प्रखंड ब्रह्मचय त्त पालन कर अपने को गृहस्थी चलाने के लिये पूर्ण समरथ बना ले तव तक अपनी शादी कदापि करे यही बेद की आज्ञा है ।” स्त्रियों के लिये भी ऐंसी हो आशा है इछके लिये अमाषा +--

ब्रह्मचर्येण कन्या थुवाना विन्दते पतिस्‌ अनडवास बह्मचयेणाश्यो द्यासं जिगीषति

88 चाल-विवाह ४8 [५५

लक्षण नहीं है। दुध-मुँहे दाँत को इंख चूसने के छायक समभना घोर मूर्खता है। ऋतुकाल का सच्चा अर्थ समको! कम से कम गर्भाधान के समय स्त्री की आयु १६ वर्ष की होनी चाहिए। और पुरुष की २५ वर्ष की ) और जो जल्दी लड़के, बच्चे वाली होती हैं, बे बहुत जल्द रोगप्रस्त हो मृत्यु को प्राप्त द्ोती हैं। प्रत्मत्ष उनकी ही-यह हालत है, तब फिर उनके सन्तान की कौन कहे ? “बाप से बेटे सवाई” जल्दी मरते हैं। तदनन्तर माता-पिता रोते हैं अपने दी हाथ से अपने कन्या-पुत्रों को चिता पर लिटा कर फुँकते हैं और अपना काला मुँह लेकर घर वापस आते हैं वाह रे प्रेम ! (२ ) जो पेड़ जल्दी नहीं वढ़ते ( जैसे आम, इमली, अमरूद इत्यादि ) और जल्दी फ़ूलते-फलते नहीं वे जल्दी मरते भी नहीं | वैसे ही जो वारूक वालिकायें ज़्यादा उम्र में व्याही जाती हैं और गर्भाधान के समय स्ली की १६ पुरुष की २५ की आयु होती है और जो धर्म-नियमों के अनुसार चलते हैं, थे निस्सन्देह सौ बर्ष' तक जीवित रहते हैं, ऐसा भीष्म-पित्तामह का सिद्धान्त है। परन्तु अकाल ही में माता-पिता बने हुए अकाल ही में यमपुर सिधारते हैं “अधर्मज्ञा ढुराचारास्ते भवन्तिगतायुषः ।? --श्री भीष्म (३) घास की अप्नि जैसी जल्दी बढ़ती है वैसी ही जल्दी बुक,भी जाती है और खैर, आम, इसली की अग्नि जल्दी नहीं बढ़ती और इस कारण जल्दी बुमती भी नहीं। “जो जरूदी बढ़ता है सो जल्दी गिरता भी है” यही प्रकृति का नियम है। (४) आम को जब बौर आती है तो उसमें से वहुत कुछ नष्ट हो जाती है। फिर छोटे छोटे फल ( अम्वियाँ ) लगते हैं उसमें से

५६ ] & बक्षचय्ये ही जीवन है $

'न्‍ अपमान". 2९३५2 मननब नरमी, 0०-९०९००३ब/९-३९ 2५ :०५/३५७, ७७५ ००/९५/७३०५ ८५; /९७ /५+ नव >क >क 2६८५ ००» 2७ ढक 2७ क७८ध५ ०७४५५ ८५ ०९५ 2५ ८४५५४५०७००५२० ८० ८५:०५०२० ०१४०-२० ००

भी बहुत नष्ट होते हैं फिर आँवले जैसे बड़े द्ोते हैं, तिसमें भी बहुत कुछ नष्ट होते हैं जब वे ओर भी पुष्ट होते हैं. तव वे आखिर तक उस पेड़ पर स्थिर रह सकते हैं। वैसे ही वालक-वालिकायें वचपन ही में व्याहे जाते हैं उनमें से बहुत जाते हैं, जिसका अनुभव आज प्रत्यक्ष हम आप कर रहे है;

जो पचीस वर्ष तक ब्रद्मचर्य पालन कर ग्ृहस्थाश्रम में विधियुक्त प्रवेश करते हैं वे द्वी केवल सी वर्ष तक जीवित रहकर जीवन का पूर्ण आनन्द छटते हैं

(५) कच्ची कलियाँ तोड़ने से पुप्पों की महक मारी जाती है। उनमें सुगन्धि नहीं मिल सकती कच्चे फल रस द्वीन, ओर रोगकारी होते हैं कच्चा भोजन पेट में अनेक रोग पेद़ा करता है वैसे दी कच्चेपन में विवाह करने और वीर्य को नष्ट करने से अथोत अ-पक वीये-पात, से नपुंसकता, ढुवेलता, ज्ञय, प्रमेहादि भीपण रोग उत्तन्न होते हैं, जो उस व्यक्ति को अकाल ही में सृत्यु की गोद में पहुँचाने में पूर्ण सहायक बनते हैं

(६ ) कच्चा बीज कोई भी किसान खेत में. नहीं वो सकता क्योंकि उससे खेती का और चीज वाले मालिक दोनों का नाश होता है। किसान लोग खेत में बोने वाले बीज को प्राण के ठुल्य सम्भाल कर रखते हैं यदि कभी भूखे भी रहना पड़े तो भी छल परवाह नहा करते परन्तु उस वीज को ऋतुकाल ( फसल ) तक हाथ नहीं लगाते ! बेसे ही महुष्य को भी अपने वीर्यरूपी बीज को २५ वर्ष तक पूरे तौर से संभालना चाहिये और नव-मैथुन से सर्वथा बचा रहना चाहिये | “जैसा बोओगे वैसा ही काटोगें” यह ध्यान में रक्‍्खों |

१7 श्र

तर जै #%#

# चाोल-विवाद कि [ ५७

(७ ) कच्चे झुट्टों में या कच्चे काठ में घुन जल्दी लग जाता है और पक्के में विलकुल नहीं लगता | वैसे ही बचपन में वीर्य को नष्ट करने वाले; जव गाँव में कोई रोग फैलता है तव सव से पहले काल के शिकार बनते हैं; वैसे २५ वर्ष वाले तह्मचारी शिकार नहीं हे यथार्थ में अह्मचर्य हीं जीवन है और वीर्यनाश ही सृत्यु है।

(८) भट्ठी में कम पका हुआ घड़ा ( सेवर घड़ा ) पानी के संयोग से वहुत जल्दी दृट जाता है, परन्तु पक्का जल्दी नहीं दृटता वैसे ही कच्चे वीय॑ का पुरुष ख्री संयोग से अथवा अज्चित वीये- पात से जल्दी ही नए-अ्रष्ट हो जाता है।

प्रकृति के इन आठ प्रमाणों से आपने अब भली भाँति समझ

लिया होगा कि “बाल-विवाह प्रत्यक्ष काल-विवाह ही है ।” “विद्यार्थी ब्रह्मचारी स्थात्‌ ।” अथोत्‌ सच्चा विद्यार्थी वह ही है जो अ्ह्मचारी है वह किसी बात में असफल नहीं होता क्योंकि ज्सकी बुद्धि; अतिभा; विचार-शक्ति स्मरणशक्ति आदि सभी शक्तियाँ तीत्र होती हैं। चीय॑श्रष्ट विद्यार्थी ज्ञान-प्राप्ति में पूणं असफल सिद्ध होता है। हा ! जिस देश में विद्या्थी--अवखस्था ही में--वचपन ही में--अ्रह्म- चर्य का नाश किया जाता है; लड़के को तैरना सीखने के पहले ही जो माता पिता उस वेचारे के गले में ल्लीरूपी पत्थर वांधकर उसे हुस्तर संसार-सागर में ढकेल देते हैं, उस देश की उन्नति कैसे हो सकती है ?

कन्याँ यच्छुति च्ृद्धाय नीचाय घचलिप्सया |

कुरूपाय छुशीछाय स॒ पं तो जायते नरः १॥

५८ ] 89 ब्ह्मचय्ये ही जीवन है. $

श्री भगवान स्कन्ध कहते हैं:--/जो पुरुष घन की अथवा दहेज के छालच से अपनी अवोध कन्या किसी इंद्ध कों--खूसद बूढ़ें को नीच को दुराचारी व्यमिचारी को कुरूप को अर्थात्‌ अन्धे, लंगड़े; छले, कुबड़े, रोगी, कोढ़ी, अपाहिज--इनमें से किसी को अथवा हुगुंणी, दुर्व्यसनी को यदि व्याह दें तो वह मरने के वाद नीच पिशाच योनि में बरावर जन्म लेता है ओर अपने नीच कमों के नीच फल भोगता है

बाल-विवाह तथा वृद्ध-विवाह आदि दुष्ट-विवाहों की कुअथायें उठा देने ही से देश में श्रह्मचारी वालक-च्ालिकायें उत्पन्न हो सकती

और उनकी वागडोर एक मात्र माता-पिताओं ही के हाथ में है ! अतखझ्व साता-पिताओं ! अब विवेक से काम छो। लकीर के फकीर मत वनो। धर्म के तथा श्रकृति के नियमानुसार चल कर पुण्य के भागी वनो और कुल तथा देश का उद्धार करो |

वीये १६-वीय॑े का प्रचणड प्रताप समुद्रतरणे यद्धत_ उपायो नौ: प्रकीर्तिता। संसार तरणे तद्गत ब्रह्मचय्य प्रकीर्तितम्‌॥ १॥ “जैसे समुद्र के पार जाने के लिये नौका ही श्रेष्ठ साधन है वैसे ही इस भव-सागर से पार जाने के लिये अथोतू सब दुःखों से मुक्त होने के लिये अह्मचय ही उत्कृष्ट साधन है ।” क्‍योंकि “नह्म- चारी कांचन आतिमाच्छेति |? अर्थात्‌ “ब्रह्मचर्य ही से सम्पूर्ण सु्रों की उत्तत्ति है ।” ऐसी श्रुति है। सम्पूरों विश्व में प्राणिमात्र में जो कुछ जीवन-कछा दिखाई देती

के बीये का प्रचण्ड प्रताप # [५९

त्ज्व्लिजिजिलिििििजिजडललि जि बह

है वह सब त्रह्मचर्य का ही प्रताप है। जीवनकला में सौन्दर्य, तेज, आनन्द, उत्साह, सामथ्ये, असामान्यता, मोहकता अथात्‌ आकर्ष- कत्च सजीवत्व आदि अनेकानेक उच्च वातों का समावेश होता है। जैसे हाथी के पैर में सभी जीवों के पेर समाते हैं; बेसे ही एक ब्रह्मचय ही में सब कुछ जाता है। “एकहि साधे सब से” ऐसा शक्ति-सम्पन्न साधन यदि विश्व में कोई है तो वह एकसात्र ब्रह्मचय ही है। अतः प्रयत्नपूवक एकमात्र त्ह्मचर्य ही को सम्हालों क्योंकि त्रह्मचर्य ही सम्पूण शक्तियों का खज़ाना है

जो ब्रह्मचारी है उसमें दैवी तेज कूट कूट कर भरा रहता है आप की आँखों में जो इतनी ज्योति है. वह किसका अभाव है ? गाल पर गुलाबी छटा, मुख पर कमनीयता, छाती में अकड़, चार में फौजी ढव आदि यह किसका अताप है छास में प्रथम नम्बर रहना, खेल में अम्रगए्य रहना, कुश्ती में किसी से हार जाना, बड़े भारी बोक को सहज ही में उठा लेना, हाथ में लिया हुआ काम पूरा करना; एक शब्द ही से दूसरों को वश में कर लेना, बड़ी वड़ी सभाओं में खड़े होते ही, अपनी सुरीली तथा प्रभाव- शाली आवाज़ से बड़े बड़े विद्वांनों की अच्छी अच्छी युक्तियाँ, अपनी वाकधारा श्रवाह में वहा देना, अत्यन्त निर्भयता, साहस तथा दृढ़ निश्चय का होना--यह सब किसका श्रताप है ? निश्चय जानिए यह सब केवल त्रह्मचय ही का अद्भुत प्रताप है ! कुमार अवस्था में सम्हल कर चलने के ही ये सव चमत्कार हैं।

ये तपश्च तपस्यन्ति कौमारा: तअह्मचा रिणः विद्याचेदव्रतस्नाता इुर्माण्यापि तरन्ति ते॥ १॥

4६० ] & ब्रह्मचस्य ही जीवन है

3

हन *०.>७५७-०७ ८९३ ७००७५ :)००५०८ ००५०५ >०म०म>ममक,

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“जो छुमार त्रद्मचारी ब्रग्नचयरूपी तपक्रके तपस्वी हैं और जिन्होंने सविया ( वेद ) से अपने को पवित्र वना लिया है थे हो 'केवल अद्भुत ओर फठिन से कठिन कर्मा को कर सकते है. और इस इुस्तर संसार-सागर से तर सकते हूँ ।”

ब्र्नचारी पुरुष सर्वत्र दिग्विजयी होते हैं; उन्हें कभी अपवश नहीं मिलता सम्पूर्ण अपचरा का मूल एक मात्र वीयदह्वीनता ही हैं! वीर असिमन्यु का नाश क्यों हुआ ? वह समर में जाने के पहले भारत-बंश विलार का “बीज” आरोपण करके गया था। प्रथ्वीराज क्‍यों पकड़ा मारा गया ? कहते है युद्ध में जाते समय उसकी कमर उसकी स्ली मे कस दी थी | जो वीय को नए्ट करता है, वह हर जगह नष्ट किया जादा है और जो वीर्य को धारता हैं वहीं सब जगह विजयी होता हैं सच्चा न्रद्मचारी काल का भी काल होता है ! दुश्मन भी उसके सामने कान्तिद्वीन पड़ जाते ह। “आत्मिक तेज” जिसको अंग्रेज़ी में परंसनल न्याग्नेटिजम्‌ (2९०7807%] ॥68 87487) अथवा तेजोचल यानी परसनल शआोरा ( ९९780॥»] 8०7७ ) कहते हैं, ऋक्षचारी में कूट कूट कर भरा रहता है, जिसके प्रताप से लोग उस पर अनायास लद्द्व हो जाते

वह जो छुछ कहठा है, वही प्रिय सत्व मातम देने लगता है | ओर सव के चित्र से उसके लिये पृज्यभाव पेदा होता है

एक धनी अच्छे अच्छे कपड़े पहिनता हैँ, चेहरा भी उसका सफ़ेद होता है, पर उसके तरफ़ देखते ही, हमारा इछ भी अपराध करने पर भी, हम में एकाएक उसके लिये तिरस्कार बुद्धि जागृति

बहाचये परंतपः ४” ब्रह्मचय हो छब से श्रेष्ठ तपशचर्यों है।

& चीये का प्रचएड प्रताप थी [६१

. - होती है इसका क्या कारण इसका एक सात्र कारण उसकी ' वीयहीनता ही है दूसरा एक कोई ग़रीब का नवयुवक सततेज बालक होता है, परन्तु उसे देखते ही मलुष्य के चित्त में उसके लिये एकाएक स्नेहभाव जागृत होता है। यह किसका प्रताप है यह सब वीर्य॑पुष्टता वा ब्रह्मचर्य का ही दिव्य अताप है। सारांश शुक्रसंचय ही स्नेह का एकमात्र आदि कारण है यह वात अक्षर अक्षर सत्य है। स्वामी विवेकानन्द जब शिकागो (अमेरिका ) की प्रचर्ड विद्वत्सभा में खड़े हुए, तव वहाँ के समस्त विद्वानों को उन्होंने केवल , पाँच ही मिनट में कठपुतलियों की तरह मुग्ध कर लिया। उनकी अच्छी अच्छी युक्तियों को अपनी वाक्शक्ति-प्रवाह में, क्षण ही में,, बहा दिया और लोगों को अपना पूर्ण स्थायी भक्त बना लिया यह किसका ग्रताप है ? यह केवल त्रह्मतेज ही का प्रवाप है, जो कि एक मात्र ब्रह्मचर्य ही से आ्रप्त हो सकता हैओर अन्य किसी से नहीं एक विद्वान आता है तीन घंटे व्याख्यान देता है और लोगों को अपनी वाक्सामथ्य से हिला छोड़ता है; पर लोग घर पर जाते ही वह सब भूल जाते हैं ऐसा क्यों ? यह सब वीर्यहीनता के ही वदौलत ! दूसरा एक ऐसा ही मामूली मनुष्य आता है, दो-चार ही शब्द सुनाता है परन्तु वे ही दो चार शब्द मनुष्य आखीर दम तक नहीं भूलता यह किसका ताप है ? यह सब आत्मतेज का अथोत्‌ वीर्यबत्ता का ग्रताप है ! वीर्यश्रष्ट पुरुष कमी आत्मचछी नहीं हो सकता और घद स्थायी अभाव ही डाल सकता है, चाहे बद फिर जया बढ़ाये दो, चाहे यू सु'ड़ाये हो अथवा चारों वेदों का ज्ञाता हो | कहा है;:--“पुकतश्चतुरो बेदा:त्ह्मचर्य तथैकतः ।5"

६२ ] # ब्रद्मचय्य ही जीवन है. हे

पक तरफ चारों घेदों का पुएय श्रीर दूसरी तरफ शह्मचय को पुरय, दोनों में श्रह्मचर्य दी फा पुण्य विशेष है।

अहाचय्य के प्रताप से ही श्री भीष्मपितामह के सामने उनके महान प्रतापी गुरु परझुरामजी को हार माननी पड़ी इतना ही नहीं किन्तु श्रीकृष्ण भगवान्‌ फो भी उनके सामने अपना प्रण भूत कर आखीर में कुक ही जाना पड़ा ! अह्य ! कहते रोचें खड़े हो जाते हैं! श्री दद्धमान जी ने एक दी घू'से से इतने बड़े भारी प्रतापी राबण फो घेद्दोश कर दिया थीर उसके मुख से खून बदाया ।एक ही उड़ान में सप्लुद्र को छाँघना, चड़े बड़े पव्वतों की सहज ही में उठा ले आना और काछ के भी मुंह में थप्पड़ छगानां, यह क्रिस फा सामश्य है ? यद सब श्रखएड घह्ाचय' का द्वी सामर्थ्य' है ? ब्ह्मचर्य से मनुष्य में निस्सेशय अद्वितीय अह्मयतेज प्रकट दोता है, जिसके फारण वह्द बड़े बड़े अदुभुत कार्य' बड़ो आखानी खझे फर दिख- लावा है। आज तक जो कुछ पड़े पड़े धामिक सामाजिक परिवंतेन हुए हैं वे सब त्रह्मचारियों ही के द्वारा अथवा अक्षचय द्दीके घल पर हुए ह।

वीयहीनता के कारण आज हम लोगों में अपने पूर्वजों की अद्भुत शक्तियों में भी सन्‍्देह श्राप्त हो रद्द है। क्‍यों हो ! हमारे दी सौ वर्ष तक जीवित रहने का यदि हमें सन्देह है, तो किर इश्वरीय शक्तियों के लिये सन्देह प्राप्त होना स्वाभाविक वात है! पुष्पक विमान के लिये भी तो हमें पहले ऐसा ही सन्देंद् था? परन्तु आज जब भ्रलनक्ष विमानों को देख रहे हैं. तव चुप मार कर सिर हिला कर कहने लगे कि “होगा भाई, ये लोग यंत्र से चलाते ,

& बीय का प्रचए्ड प्रताप # [ ६३

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हैं परन्तु हमारे पूवेज बिसानों को मंत्र से भी चलाते रहे होंगे ! भ्री भीष्मपितामह भ्ीपरशरामजी और ययातिपुन्न, इन्दोंने अपने पिताओंके लिये और अनेकों ऋषि-कुमारों ने केवछ परोप- कारा्थ--दूसरों के लिए प्रह्मचर्य को घारण किया था। परन्तु आज हमारी ऐसी खिति हो गई है कि हम खुद अपने ही उपकार के लिये रह्मचर्य को नहीं पाल सकते ! भला इससे वढ़ कर हमारे अआात्मिक पतन! का और सुस्पष्ट पुष्ठ ममराण दूसरा कौन सा हो सकता है | निर्वीय्य पुरुष को सभी बातें असंभव सी जान पड़ती है। फलतः त्रद्मचारी पुरुष के लिये संसार में तो क्‍या परन्तु प्रिभुवन में भी कोई वात असंभव अग्राप्य नहीं है। श्री भगवान्‌ शंकर कहते हैं-- सिद्ध घिन्‍्दी मद्ययत्ने किन सिद्धवति भूतल्ले। यस्य प्रसादात्महिमा ममाप्ये तादशों भवेच॥ १॥

अ्थात्त--महान्‌ परिश्रमपूबक विन्दु को साधने वाले अखणड अह्मचारी के लिये त्रि्ञुवन में भी ऐसी कोई वस्तु नहीं है, कि जो असंभव असाध्य हो अह्मचर्य्य के प्रताप से मनुष्य भेरे ही तुल्य अर्थात्‌ ईश्वर तुल्य ही सर्वत्र बन्दनीय पूजनीय वन जाता है |”?

वस हो गया ! इससे वढ़ कर त्रह्मचच्ये की महिमा वर्णन करना मानवी शक्ति के वाहर है। जह्मचय्य की महिमा अपरंपार है। केवल सच्चे तह्मचारी ही त्रह्मचय्ये की अद्भुत महिमा का अनुभव कर सकते हैं

अतः आतृ-सगिनी-मित्रगण ! तुम भी अह्मचण्य का शक्तिभर . पालन कर उसके ग्रचण्ड शक्ति की दिव्य छटा अज्लुभूत करो। चद्यपि तुम्हारे हाथ से आज तक चहुत कुछ अपराध हुए हैं, तो

६४ ] 88 ब्रह्मचय्य दी जीवन है. ६8

भी कुछ हर नहीं उन्हें भूल जाओ “त्रद्मचर्यप्रतिष्ठायां वीय्ब लाभः |” यह कपिल मह्यमुनि का सिद्धान्त है. | इस सिद्धान्त के अनुसार आज भी हम फिर से ब्रद्मचारी बन सकते हैं।ओऔर तन-मन-धन से वीयेधारण कर अपना तथा देश का पुनरुद्धार कर सकते हैं क्योंकि “वीय॑धारण त्रह्मचर्यम्‌ ।? वीरयथारण का नाम ही बह्मचर्य है। त्रह्मचर्य ही में सच्ची शक्ति है और शक्ति में दी सच्ची मुक्ति भी है

भगवान भ्रीकृष्ण कहते हैं--“सच्चे दिल से मैरी शरण आने से बड़े घड़े पापात्मा भी पुण्यात्मा मह्दात्मा द्ो गये हैँ। तुमभी मेरी शरण झाओ | मुझे सर्वत्र व्यापमान देखो। भत्येक स्त्री में मातृभाव रखों। स्त्री मात्र में मेरा दी रूप देखो-। में तुम्दारा अवश्य अवश्य उद्धार करू गा |”

अहह ! भगवान्‌ के इस आज्ञानुसार यदि हम ही मास तक ब्रह्मचय का मन-क्रम-बचन से सच्चा पालन करके देखेंगे तो अपना बहुत ही रंग बदला हुआ हमें प्रत्यक्षजान पड़ेगा | चेहरे की पाणडुखा नष्ट हो,चेहरा तेजस्वी वन जायगा | आँखों की ज्योति बढ़ जायगी | शरीर की दशा वहुत कुछ सुधर जायगी आत्म-विश्वास वढ़ जायगा और आत्म-विश्वास बढ़ जाने से हम आत्मोन्नतिके पथ में ओर भी अग्रसर होंगे और चारों ओर अपनी कीर्ति सुगन्धि फैलाकर सभी के मुख से धन्य धन्य कहलायेंगे

अ“पज्ञन | १4 “बार चार समभाय रहा हूं, मान ले रे मत मेरी कद्दी को १॥

& अज्ञान का फल मृत्यु है $9 [ ६५

“एको त््म पूर्ण सब जम में,

छोड़ कपट की गांठ गद्दी को “दुख सुख सो बीती सो बीती,

याद न-कर ! बरबाद वद्दी को भज्ञानकीदास सुमिर श्री रघुवर,

गई सो गई, अब राख रही को”

१७--अज्ञान का फल सत्य है स्व्रय' कम करोत्यात्मा स्वय' तत्फलमश्नुते स्वयं भ्रमाति संसारे स्वय' तस्माव्‌ विम्नुच्यते-॥ १॥ “मनुष्य अपने ही कम॑ करता है, अपने ही उसके भले-चुरे फल भोगता है, अपने ही कम से इस कराल संसार में चक्कर लगाता है और अपने ही कर्मों से इन सव से मुक्त भी होता है।” सारांश, आत्मघात वा आत्मोद्धार यह सव अपने ही हाथ में हैं श्री मनु महाराज कद्दते हैं:--किया हुआ कुकमे वा अ्रधमें कभी निष्फल नहीं होवा-चादहे जंग्रल में भांग जाय, परत में छिप जाय, आकाश में उड़ जाय॑, चाद्दे पाताछमे घुस जाय, कहीं भी पाप कर्मो से छुटकारा नहीं होता? पाप का भूत खिर पर सदा सवार ही रद्दता है? अधषमे का फल जददी नहीं मिलता, केवछ इसी कारण, अज्ञानी वा मोद्दान्ध छोग पाप से डरते है। परन्तु निश्चय जांनो कि वह पापाचरण धीरे घोरे तुम्दारे खुखकी जड़ों को बराबर काटता ही चला जा रद्दा है।”

६६ ] 8 ब्रह्म॑चय्य ही जीवन है. हे शि मिल मल शक से मिल

सह की

यदि वालक जानते होते कि उनके ही किए हुए कुकमों के कारण उनकी ऐसी दुर्दशा हुई है; उनके कुकर्मों के फल उन्हीं का भोगने पड़ते हैं, उस समय दूसरा कोई भी साथी नहीं होता है; थदि वे जानते होते कि काम से भलुष्य वेकाम वन जाता है भोर अकाल ही में मर जाता है ; तो वे क्या कभी कुकर्मों में प्रदत्त होते कदापि नहीं ! अज्ञान ही से मनुष्य कुकर्ों में अरवृत्त होता है ओर अपना नांश कर लेता है. इसमें कोई सन्देह नहीं है कि श्रशान ही से मनुष्य गडड़े में जा गिरता है। जान बूक कर गडड़े में कूद पड़ने वाख्ते को एक्र तो परोपफारी मद्दापुरुष समभाना चादिए या तो स्वार्थान्ध था भोद्दान्ध पतित पुरुष समभाना चाहिए भछा ऐसे आत्मघाती को कौन तार सकता है ! यदि कितना ही वह़िया पंक्कान्न तुम्हारे सामने रक्खा जाव और तुम्हें यह मालूम हो जाय कि इसमें विप मिलाया हुआ है। तो क्‍या कभी तुम उस पक्कान्ञ को खाओगे ? हमें पूर्ण विश्वास है कि तुम उस पक्कान्न को कदापि नहीं खाओगे ! बल्कि वहाँ से तत्काल उठ के चले जावोंगे बैसे ही सच्ा आत्मोद्धारक लियों * के और अन्य मोहक पदारयो' के वाहरी रंण-रूप में कदापि नहीं भूलता; वह फौरन वहां से हट जाता है ओर अपने को बचा लेता है अज्ञानी मोहान्ध पुरुष ही उसमें फँसते हैं और दीपलुन्ध पतंग की भाँति जल के खाक हो जाते हैं। अज्ञान दी रत्यु,हैं और शाव ही जीवन है ! “ज्ञानाग्निःसव' कर्माणि भस्मसांत्‌ कुरुतेत्ञु ने ।” भगवान कहते हैं:--“क्ानाप्ति से मनुष्य के संपूर्ण पाप-कर्मे दरध

हो जाते हैं और शुभ कर्मो से उसका उद्धार होता है ।” हमें अब पूर्ण विश्वास है कि हमने वालक-्वालिकाओं . को

४४ अज्ञान का फल मृत्यु है [६५४

उनके भाता-पिताओं को; और सम्पूर्ण ग़॒ुरुजतों को ययेष्टरूपमें सचेत कर दिया है | अब वे इस अ्न्थ को पढ़ने पर ऐसा कदापि नहीं कह सकते कि “हमें मालूम नहीं था !?

अब आप लोगा को बीय॑-रक्षा के अनूठे “स्वाजुभूत” नियम वतलाए जाते हैं जिनके द्वारा आप विपयों से निश्चय-पूर्वक बच सकते हैं और त्ह्मचय्य की भली भाँति रक्षा कर सकते हैं। इन नियमों में के एक एक घाक्य लाख रुपयों के हैं। इन्हीं नियमों के प्रताप्र से हम सपन्नी दोते हुए भी अखण्ड बअह्मन्रय फ्रा अंग पालन कर रहे हैं $ फिर जिनके स्त्री नहीं है, वे अपने ब्रह्मचर्य का पालन करने में समर्थ होंगे। इसमें सन्देह ही क्‍या है ? यदि एक भी पुरुष, बालिका था वालक इन नियमों के अज्ञसार चल कर ब्रह्मचर्य रा अपना उद्धार कर ले तो लेखक उस व्यक्ति का बहुत ही उपकृृत होगा और अपने को धन्य समझेगा !'

भगवाब्‌ आपको सुवुद्धि आत्मिक वल प्रदान करे !

5 | आपका नम्न सेवक, शिवानन्द्‌

ऋपर अब ता० २-१-२५२६ शुक्रवार के द्विन हमारी महाभाग्यश्रालिती सो घतोपत्नो 'फैलाउवाउिनो? अर्थात्‌ 'चिर समाधिस्य! हुई हैं। भो शिवेच्छा ! श्रोइस !- शिवानन्द

|छूचना--यदि किसी के वहायचय के विय्य में किली शंका का समाधान कराना हो तो निम्नोक्त पते पर प्रछ सकता है। परन्तु उत्तर पाने के लिये ट्रिकिट वा रिप्रताई कार्ड ऋ्रवश्य भेजना होगा

प्रता;--शिवानन्द (/0, प्रो० माणिकराव, धड़ौदा

६८ ] & त्रह्मचय्य ही जीवन है

-वीयरक्ष १८-वीयरज्षा के अनूठे नियम नियम पदिला--“पवित्र संकल्प ।!

वक्तव्य--संकरप उन विचारों का नाम है, जिनमें पूर्ण विश्वास भरा द्वो | परमात्मा विश्वास में होता है, यह बात दम कभी भूछनो चाहिये। यदि सोते समय महप्य ऐसा सोचकर सोबे कि आज “मैं चार बजे उद्ूँगा” तो त्रिश्वय.जानों कि उस मनुष्य की आँखें चार बजे अवश्य खुल जाती हैं | आल- स्यवश यदि वह फिर से सो जाय तो दूसरी वात है। सामान्य विचारों में यदि वह शक्ति है, तो श्रद्धा या दृढ़ भावनापूर्ण विचारों से कितनी प्रचण्ड शक्ति होती होगी, इसका आपही अनुमान कर

सकते हो | एक मनुष्य गर्मी के दिनों में घाम से अलन्त व्याकुल हो गया था। दूरी पर उसे एक पेड़ दिखाई दिया। बैसे ही वह भागता हुआ वहाँ गया पेड़ की शीतल छाया से उसे वहुत ही सुख उपजा। वह था “कल्प वृक्ष” मनुष्य ने मन में सोचा; यदि

यहाँ पीने के लिये ठंढा जल होता तो क्‍या ही आनन्द होता | ऐसा

सोचते ही उसके वगल में सुन्दर शीतल मरना निर्माण हुआ उस पर दृष्टि जाते ही वह वोल उठा--“अरेवाह | यहाँतो मरना मौजूद दे ( थोड़ा पानी पीकर ) अहह ! क्या ही ठण्ढा और मीठा जल है ! यदि इस समय पास में कुछ मेवा होता तो क्‍या ही आनन्द होता ! ऐसा सोचते ही वहाँ पर तत्काल मेवा से भरे हुए एक सुन्दर पात्र निमोण हुआ ! उसे देखते ही उसने सोचा. 'ऐं-यह क्या चमत्कार है ? मातम द्ोता है. यहाँ पर कुछ शैतान का खेल

# वोयेरक्षा के अनूठे नियम ४8 [ ६९

'3लीजीजनल मनन,

' है ? ऐसा सोचते है उसे वहाँ पर इधर-उधर चारों ओर नाचने कूदने की डरावनी आवाज़ सुनाई देने लगी। उसने सोचा सचमुच यहाँ पर स्मशान ही माछूम होता है। कहीं ऐसा हो कि कोई शेतान मेरे सामने के खड़ा हो जाय ।' ऐसी शंका करते ही एक महान्‌ बिकराल “भूत” उसके सामने आकर खड़ा हुआ और उसकी ओर गुरोते हुये देखने लगा। मलुप्य ने डर के मारे आंखें लगा लीं और मन में कहने लगा अरे वाप | यह मुझे खाय तो नहीं जायगा !' ज्योंही उसने ऐसा सोचा ट्योंही उस पिशाच ने उसको मुँह मे डालकर तत्काल खा लिया

ठीक यददी दशा अच्छे या बुरे विचार करने वालों की भी हुआ करती है कल्पवृत्त कहाँ है; यह तो हम नहीं जान सकते, परन्तु ऐसा कोई भी स्थल नहीं है कि जद्दां परमात्मा दो घद्द घट घट में और श्रणयु परमाणु में सरा हुआ है. और ईश्वर से बढ़कर दाता कट्पदृत्त दूसय कोई भी नहीं दो सकता और आप हम सब उसी की छापा में चैठे इये हैं। तब ऐसे सवेत्र ष्यापमांत कर्फ्यृत्त के सामने मलुष्य की सम्पू्णा भछी घुरी फामनाये' होंगी इसमें सन्देद् दी क्या दै !अच्छे विचारों से उसे अवश्य ही मेवा मिलेगा और बुरे विचारों से वह पिशाचों द्वारा अवश्य ही खाया जायगा। सारांश, मनुष्य अपने ही विचारों से नपट्ट और श्रेष्ठ चनता है, इसमें कोई भी शक नहीं | चाहे कितने ही गशुप्ररूप से हृदय के भीतर हम कोई कल्पना--फिर कर्म तो दूर रहा--करते हों तो उसे भी परमात्मा देखता है और उसके भले-चुरे फल हमें वरावर देता है। “सन एवं मनुष्याणां कारण वंध मोक्षयों“-- भगवान्‌ का यह अटल सिद्धान्त है। मन ही मनुष्य को ग़लाम

७० ] के ब्क्षचय्य ही जीवन है ४3

कजजजज>लजजज+जज जज ली जज5्् ध््च् तल लणलतचच सच न्‍ डा"

शक ऑल नरक

बनाता है। मन ही मनुष्य को स्वर्ग में या नरक में बिठा देता है। सर या मरक में जाने की कुजी भगवान ने हमारे ही हाथ में दे रखी है ? उसे सीधी या टेढ़ी घुमाना हमारे ही हाथ में है। मठ की सुगति हुर्गति उसके भले बुरे संकरपों, विचारों पर ही सर्वथा निर्मेप है। पापमय विचारों से चह पापात्या और पुस्यमंयी विचारों से वह निःसन्देह पुण्यात्मा चन जाता है। उद्च पवित्र विचारों से,कितना हू पतित महुष्य क्यों दो घह भी उच्चाति- उश्य पविधात्मा बन सकता है। परन्तु भगवान, कहते हैं “उसके बुद्धिका निश्चय पूरा होना चाहिये।” अथोत्‌ ऐसा पुरुष फिर पाप कर्म नहीं कर सकता “विश्वासों फलदायकः ।7--यह भगवाद्‌ का वचन है जितमा विश्वास अधिक होगा उतना उसका फल भी अधिक वा है | महापुरुषों का विश्वास इतना प्रवल और अनन्य दीता है कि वे पानी का घी और वाल की चीनी तक. वना सकते है। ऐसा ही अनन्य विश्वास हमारा भी होना चाहिये ।. “संशयांत्मा- बिनिश्य॑ति'--संशयी पुरुष का नाश होता है। अतः निःसम्देह भाव से संक्रप करने पर हमारा अवश्य ही उद्धार हीगा, इसमे कोई आश्चर्य नहीं है। सच पूछिये तो छुकर्पना ही शैतान है। अतः जिसको तरना हो उसे चाहिये क्ि-हठपूर्वक छुघुद्धि की) छुविचारों को, त्याग कर झुबुद्धि को धारण करे और आज ही से, इसी समय से; पवित्र विचांरों को शुरू कर दे ! निःसन्वेह अपरिमित कल्याण होगा अतः निद्रा के पूर्व रोज पाव घण्टा अवश्य पविन्न संकल्प किया करो इससे सब कुस्वप्चों का नारी होकर, तुम में एक अद्भुत दैवी शक्ति अकट होगी और तुम्हारे सम्पूरं मनोरथ सिद्ध होंगे “पुरुष प्रयक्नस्य असाध्य॑ नास्िं-:

& बीयरज्षा के अनूठे नियम 88 [७१

संनुष्य के उचित प्रयत्न करने पर असाध्य कुछ भी नहीं है। आज बीज बोया और कल फल चाहा, ऐसे अधीर मनुष्य को कदापि यश नहीं मिलता यदि जल्दी फल मिले तो मन में सममो कि पहले के पाप-संकल्प अधिक हें; : परन्तु वे पुश्य-संकल्पों द्वारा निश्चय ही परास्त होगे जब त्तक ह॒दर्य के अपविल्ल भाव हट न्ञ ज़ाँय तव तक हृठपूर्वंक अबल वेग से पुनः पुनः चेष्टा क़रो। भगवान्‌ कहते हैं कि “तुम्हारी यह चेशा कभी निष्फल होंगी; तुम्हारा अवश्य ही उद्धार होगा !” नहि कल्याणुकृृत्‌ कश्चित्‌ हुगतिं तात गच्छति ।7 . -

“घ्वनि वैसी ग्रतिध्वनि/--यह भी प्रकृति का एक अटल सिद्धान्त है यदि हम कछुएँ में कॉँक कर- कहें कि “नाश हो तेरा” तो उधर से भी नाश हो तेरा” ऐसा ही जवाब मिलेगा ओर यदि “भला हो तेरा” ऐसा कहें तो ऐसा ही उत्तर मिलेगा झतः जिस प्रकार हम भगवान्‌ की स्तुति प्रार्थना वा संकल्प करेंगें, ठीक वेसे ही भगवान्‌ भी हमें कहेंगे | यदि हम कहेंगे कि भगवान्‌ आप वीय॑वबान्‌ हो, भाग्यवान्‌ हो, तो भगवान्‌ भी उल्लट कर हम से यही कहेंगे, क्रि “आप वीयेबान हो, भाग्यवान्‌ हो” इत्यादि | इस पर भी हमारे घ्मशात्नों में जो ईश्वर के स्तोत्र और मंत्र नित्य पाठ के णिये रक्‍्खे गये हैं, उनमें हमारे उद्धार का कितना उच्च हेतु भरा हुआ है, यह पूर्णतया सिद्ध होता है। अतः जिस प्रकार हम अपने को बनाना चाहते हैं उसी प्रकार से स्तुति प्राथना “निःशंक” भाव से रोज किया करें; वहुत ही उपकार होगा।

तुछसी अपने राम को, रीक भजे चहे खीम। खेत परे पर जामि है, हलटा छुलटा बीज] -

७२ ] # ब्रह्मचय्ये दही जीवन है 8

घ०

इसी प्रकार हमारे कायिक, वाचिक, मानसिक शुभाद्ुभ कर्मों के फल भी हमें अवश्य हीं मिलते हैं मामूली वीज तो कोई उगते भी नहीं, परन्तु कमंचीज एक भी उगे विना नहीं रहता; सभी फलरूप होते हैं अतः पघात:काऊल उठते ही प्रथम अत्यन्त प्रेम से एऋ-दो, चार बढ़िया स्तोच्र वा भजन रोज फद्दो और फिर अलग पवित्र आसन पर बैठ कर, अत्यन्त दृढ़ विश्वास से नीचे दिये अज्ुसार पविन्न उच्च संकल्प किया करो देखो, संकल्प ही करते करते तुम में कैसा दैवी तेज प्रवेश करता है। “संकलप-प्राथना? “बक्रतुएड महाफाय सूर्य फोटि-समप्रभ | निर्व॑ध्न॑ कुरू मे देव | सर्वेकार्यपु सर्वदा १॥ “सथ स्प बुद्धिकपेण जनस्य हदि संस्थिते | स्वर्गां5पवर्गदे देधि | नारायणि | नमोस्तुते “गुरुप्न झा गुरुविंष्णु: गुरुदेंवो महेश्वरः। शुरु) साज्षात्‌ परधह्म तस्मे भी गुरुपेनम: १--मन ही गणेश ( गण-ईश अथौत्‌ इन्द्रिय समूह को हिलाने वाला स्वामी ) है। २--बुद्धि ही सवोन्तर्व्याप्त ज्ञानदेवी सरस्वती हैं ३--आत्मा ही परतरह्म परमात्मा है। और, ४--आत्मा ही सत्वरज-तमात्मक त्रिमूर्ति श्रीदत्तात्रेयस्वरूप सदगुरु है अथ:--हे वक्रतुए्ड ( टेढ़ी शुर्ड वाले) “कार ! आप विश्वोदर हो, विश्वव्यापी हो। अनन्त कोटि सूर्यतुल्य आपका प्रकाश आपको मेरा वार वार प्रणाम है। हे भगवान ! मेरे सम्पूर्ण

४४ वीयरज्ञा के अनूठे नियम ६8 [ ७३

विष्न नष्ट करके मेरे सम्पूर्ण कार्य सदैव सिद्ध करो ।” “सम्पूर्ण लोगों के हृदय में बुद्धिर्प से सदा विराजमान रहने वाली और स्वग तथा मोक्ष देने वाली हे परम दयारहु माता, देवी नारायणी ! तेरे चरण कमल सें मेरा वारवार प्रणाम है।” “आप मुमे सदैव सुबुद्धि दो ।? “हे जगदुगुरो ! आप ही ब्रह्म, विष्णु महेश्वर हो सम्पूर्ण जगत्‌ के श्रेरक तथा चालक हो ! आप ही की आज्ञा से चन्द्र सूर्य प्रकाशित होते हैं। वायु बहता है, मेघ वरसते हैं और सम्पूर्ण चराचर जीव अपना अपना कार्य सुयंत्रित कर रहे हैं आप साज्षात्‌ परनहा परमेश्वर हो, आप अनाथ के नाथ हो, ठोकर लगने पर भी, सम्हालने वाली भूमि की तरह अनन्त अपराध हाथ से होने पर भी--महात्‌ अपराधी होने पर भी--हमें सम्हालने वाले, हमारे एकमात्र आधार आपही हो, हम आपही के शरण हैं। आप शरणागतवत्सल हो; आप हमें सच्चा सनन्‍्मागे दिखलाओ ओर हमारी वॉह पकड़ कर हमें सन्‍्मार्ग से कभी विचलित होने दो | आपको मेरा समम्र वारवार प्रणाम है ।? त्राहिमाम्‌ ! ऋहिमाम्‌ !! त्राहिसाब्‌ !!| “प्रेरक संकटप” |

१--ईश्वर सर्वत्र व्यापमान है; ईश्वर मरे भीतर है; में ईश्वर हूँ “अहंज्ह्मास्मि” यही मेरा सच्चा स्वरूप है <* ! मै

२--ईश्वर सत्यस्व॒रूप, ज्ञानस्वरूप आनन्दस्वरुप है; ईश्वर सब्चिदानन्द है; ईश्वर मेरे भीतर है; में भी सबच्चिदासन्द्रूप हैँ। +%।| - हू ३--ईश्वर पूर्ण निर्मय, निःसंग निष्पाप है मैं भी पूर्ण निर्मय, निःसंग निष्पाप हूँ | <# !

७४ ] के अक्षचय्य ही जीवन है के

४--ईश्वर परम वीयबान, पूर्ण भाग्यवाद्‌ असीम सासथ्य- बान्‌ है। मेरा भी स्वरूप वही है; में भी परम वीयवान पूर्ण भाग्यवात्‌ असीम सामथ्यवाद्‌ हूं !

०५--ईश्वर पूर्ण निष्कास, निषिपय व. निर्षिकारी हे; इखर मुम में है; में भी पूर्ण निष्काम, निर्विदय निर्विकारी

आवश्यक सूचनाः--“मैं” शब्द “इश्वर” वोधक है, नकि शरीर वोधक | क्योंकि यह साढ़े तीन हाथ का अभिमानी चोला सृद्यु के वाद ज्यों का तों पड़ा रहने पर भी “में? नहीं कह सकता। अतः “मैं” यह सर्वव्यापी' शब्द केवल ईश्वर बोधक ही सममना चाहिये; कि देह का बोधक ! देहामिमान से अधःपतन होगा यह बात सदा ध्यान में रखना चाहिये

६--मैं ईश्वर हूँ, मेरी शक्ति अनन्त है मैं जो चाहूँ सो कर सकता हूँ

७--मैं पुरुष हूँ; श्रकृृति मेरी स्री है; अतः पकृति को मेरी आज्ञा अक्षर अक्षर माननी होगी।

८---अय प्रकृति देवि,| मन तथा इन्द्रियों कों विपय का स्मरण करने दी उन्हें विषय की ओर जाने दो। उन्हे विपय से पीछे हटाओ ! उन्हें. विषय से खूब सम्हालों | हरगिज उनका नाश होने दो। उन्हें विवेक से शान्त्व सुखी कर्ा। देखो इस आज्ञा का ठीक ठीक पालन करो।

द्वितीय सूचना:---अब नीचे के संकरप हृदय की ओर देखते हुये करो; मारना परमात्मा हृदय सें ही बैठे हुए हैं और-हम “भक्त भाव से, परमात्मा से बातचीत कर रहे हैं। इन सह्ूूसपों से शरीर

वोयरज्ा के अनूठे नियम ६8 [७५

पर अत्यद्भुत परिणाम होते हुये दिखाई देंगे। रोगी भी निरोग होंगे, क्रोधी सी शान्त होंगे ओर कामी भी अह्मचारी होंगे | इस निश्चय को पूर्ण सत्य जानो | परन्तु दृष्टि हृदय पर लगी हुई होनी चाहिये ओर परमात्मा को हृदयस्थ समझा उसे सम्बोधित कर संकल्प करना चाहिये

९--हे परमात्मन्‌ ! आप श्रेसस्वरूप, शान्तिस्वरूप क्षमारूप हैं।। इस दास के नसनस में प्रेम का, शान्ति का तथा क्षमा का सब्चार हो रहा है उनकी सनसनाहट का मैं अनुभव कर रहा हूँ। 5 | हे हे

१०--भगवन्‌ ! आप के पास ढुःख, रोग, चिन्ता, भीति दारिद्रय कहाँ ? आप सदा सदा सुखी, निरोगी, निश्चिन्त, निर्भय, लक्ष्मीपति हो सुख, समृद्धि, शान्ति, आरोग्य, निर्भयता, आदि मुझ में संचार कर रहे हैं, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। पहले से में अधिक आरोग्य हैं, अधिक निर्सय हैँ, अधिक शान्त हूँ, निरविकारी हैं। हा ११--आज रात्रि में स्वप्न-दोप नहीं होगा में बहुत जल्द दुरुस्त हूँगा ! भगवन्‌ सुमे! सम्दालों ! वीय॑ नाश होने के पहले ही मेरी आँखें खोल दो, मुझे जाग्रत कर दो, अब में किसी से नहीं डरूँगा; क्योंकि मेरा रक्षक अभरु है <* !

१२--नृत्तियाँ अब दिन-वदिन पवित्र हो रही हैं; दृष्टि में प्रत्येक स्री के लिये मात्भाव समाया है, कानों में अल्मचारियों का यश गूँज॒ रहा है। में अब त्रझ्मचर्य का पालन कर रहा हूँ, मेरा उद्धार हो रह है। $* ! |

१३--अभो, मैं तेरा हूँ और तू मेरा है।

«६ ] के ब्रह्मचय्य ही जीवन है $

“झवब करुणा कर कीजिए सोई, जा विधि मोर परम हित होई॥” त्राहिमाम्‌ ! त्राहिमाम्‌ !| आहिमाम !!!

इस प्रकार रोज़ प्रातःकाल, सायंकाल, और भोजन के समय ऐसे केबल तीन ही वार यदि विश्वास और छढ़ता के साथ हम संकरप करेंगे तो अपरस्पार कल्याण होंगा | महापुरुष कहते हैं--

“स॒ यः संकल्पतक्म त्युपास्ते कलूदान्वे सः लोकान_ घृवान छुब प्रतिष्ठान_ प्रतिष्ठित ॥१॥

“जो इस संकल्परूपी अ्ह्म की नित्यग्रति उपासना करता है, वह निर्भय होकर इस लोक परलोक में ईश्वर के तुल्य पूजनीय वन जाता है और उसका सर्वत्र सन्‍्मान होता है ।”

“खबे उपि खुखिन: सम्तु सब' सनन्‍्तु निरामयः खर्चे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदुदुःखमाप्लुयात” ॥0॥ व्शान्ति:पुष्टिस्तुष्श्रास्तु | शुभ मवतु ॥] तिथास्तु' तर

4 “पवित्रमातृभाव-हृष्टि” नियम दूसरा :-- वक्तव्य--वीय॑-रक्षा के लिए हमें हमुमानजी को मुख्य आदर्श मान उनकी तरह प्रत्मेकल्ली की ओर, यदि देखना ही हो तो “मात्वत्‌ परदारेपु” आथोत “पर तिय मात समान” इसी पवित्र

४8 पवित्न-माद्भाव-इृष्टि 8 [ ७७

अमन >>न+> कै «5 ७७ २७.#क ०८०.

इष्टि से देखना चाहिये परन्तु किसी ख्रीकी ओर आँख उठा कर देखना ही पवित्र दृष्टि चनाए रखने का सर्वोत्छष्ट मार्य है। किसी ञ््रीका ध्यान स्मरण कदापि करो। स्त्रियों के कोई चित्र किंवा मूर्ति भी कभी देखों, फिर ख्रियों की ओर देखना तो दूर रहा [| यदि किसी स्त्री का ध्यान आंबे तो तत्काल अपने परमात्मा के फोंटो का तथा अपनी माता का ध्यान करने लगो अपनी सा वा ईश्वर को उस स्त्री में देखने लगो। कोई अंग अत्यक्ष स्मरण हो तो “उसी क्षण” अपनी माँ के उसी अंग अत्यज्ञ को उसमें स्थापित करो निःसन्देह तुम्हें अपनी करनी पर अत्यंत लज्जा घृणा आप्त होगी और तुम उस ख्री का नाशकारी ध्यान करना ही छोड़ दोगे यदि कोई स्त्री सामने भी जाय तो फ़ोरन अपनी दृष्टि नीची कर लो; दृष्टि ऊपर हरगिज्ञ उठाओ, ओर तत्काल मन में, “भगवज्ञाम स्मरण” अथवा “माँ? “माँ? “मां? “मां? इस भहामन्त्र का निरत्तर जप करने लग जाओ, निस्सन्देह तुम्हारी सम्पू्ं पापमय वासनायें दग्ध हो जाँयगी आर मन पूर्णतया पवित्र बना रहेगा माढनाम पवित्र है, मातूनाम का जप इतना श्रेष्ठ है कि कु-चिन्ता उसके पास ही नहीं सकती अवश्य अनुमव कीजियेगा; परम उद्धार दोगा। यदि किसी ज्ीसखे वातचीत करने का असंग ही आवे, तो वहुत कम वातचीत करों और उन्हें “हे वहन, हें माँ? इटादि पवित्र नामों से सम्बोधित करो | परन्तु हमेशा दृष्टि फो नीचों बनाये रखने की वात कभी मत भूछों; इस बात को अपने हृदय पद पर अंकित कर रकखो स्री-समाज में आवागमन सहसा करों स्तियों से एकान्त में वात चीव करना

७८ _] 8 प्रह्मचय्य ही जीवन है के

>>००५०५>५३९०+०००७००३५१५०५०५१०८ल्‍७०3१०५७०५3 ५-9 नभग33+33 3292 कम पक नी मनन नकल जी नी न्‍ चाह

सर्वथा ध्याग दो | क्योंकि बैसा करना ख्री-पुरुष दोनों के लिये | स्ि हानिकर नाशकर है। भक्तदास वासन कहते हैँ:--

यद्पि भात भगिनी खुता तऊ बैठे पास | प्रबला हैं. ये इन्द्रियाँ करो तुम विश्वास

श्री लक्ष्मणजी की तरह अटोक ञ्ली को स्री जगन्नननों जानकीजी का दी रूप समझ कर; माठ्भाव से उसे मन हो मत प्रणाम करो और “सिया रामसय रूव जग जानी”--ऐसा पवित्र चिन्तन करने लगो |

स्तियों को “पर नर तात समान” ऐसी शुद्धदृष्टि रखना चाहिये निस्सन्द्ेह उद्धार होगा मातु-चिन्तन था ईश्वर-चित्तन यह विपयचिन्चन को मिटाने की एक घड़ी द्वी उत्कृष्ट दवा हैं | श्राप भी इसका सेवन कीजिये और श्पना उद्धार कर लीजिये जब तक हमारी दृष्टि बन्द है, हम निद्धित है तव तक वणल सें पड़े हुये सहा विपधर काले सांप सेभीहम , नहीं डर सकते; पूर्ण निभय बने रहते हैं परन्तु, दृष्टि पड़ते ही उसका कितना भर्यंकर परिणाम होता है यह तत्काल स्पष्ट दिख देता है। वैसे ही जब तक किसी स््री की ओर हम पलक उठा के नहीं देखेंगे, उसका मुँह काला है था गोरा है ऐसा नहीं जानेंगे तब तक यदि प्रद्यत्त हमारे सामने उवशी भी जा के खड़ी धर्यो नहीं जावे तो वह सी हमें एक रत्ती भर डिया नहीं सकतीं; हमारे चित्त को विचलित नहीं कर सकती | परल्‍्तु दृष्टि जाते ही . नष्टदृष्टि पतिंगे की तरह, उस मनुष्य के वाहर-भीतर 'आग लगे जाती है। श्रीमान शंकराचार्य कहते हैं---

पविन्र-माठ्भाव-दृष्टि फू. * [७९

दोपेण तीत्रो विषय: कृष्ण सर्प विषादपि घिपं निदन्ति भोक्चार॑ दृष्टारं चक्त षाप्यदम्‌॥ १॥ -विचेक चूड़ामणि। अआर्थातः--काले सांप के विष से भी बढ़कर विपषय-जन्य दिप अत्यन्त भयानक है। विप तो पी लेने पर मनुष्य सरता है परन्तु यह विषय-विप इतना उग्र है कि केवल उसकी ओर देखने मात्र ही से मनुष्य धूल में मिल जाता है ! भक्तदास वासन ने क्‍या ही ठीक कहा है किः-- | श्रहि विप तो कांटे चढ़े, यह इगचत चंढ़ि जाय जवान, ध्यान, वर, धमे, को प्राण सहित खा जाय १॥ “ज्षी के सारे शरीर में जहर भरा हुआ है” ऐसा कहने की जगह यदि यों कहा जाय कि “सच विप दृष्टि ही सें भरा हुआ हैं? तो बहुत ही चथार्थ होगा सारा संसार आपको यदि करटक- मय ही मालम़ होता दो तो स्वयं अपने पेर में जूता डालकर वाहर निकलना ही आपकी दुद्धिमानी होगी | शिकायत करना निरी मूखेता है | क्योंकि आप समस्त संसार को निष्कंटक तो नहीं वना सकते हो और उसे चमड़े से ही ढांप सकते हैं ? उसी अकार सम्पूर्ण जगत को आप नारी-रहित तो वना नहीं सकते हो। हां, अपनी ही पापसय दृष्टि को आप अवश्य पवित्र वनां सकते हो | इसी में आपकी वुद्धिमानी है और सदगति है। स्री जाति पर व्यथ कुत्सित कटाक्ष करना निरी भूखंता है। अतः इष्टि को नीची रखने ही से दम विषय के दलाहल विष से सकते हूँ। जब तक हम अपनी दपष्टि उठा कर किसी ही पर नहीं डालेंगे तब तक दमारा अह्मचर्य नि:सम्देद्द अट्टट बना

८० ] & ब्रह्मचय्ये ही जीवन है ४8

रहता है, यद् श्रनुसवसिद्ध वात है। आप भी इसंका अवश्य अनुभव कीजिये, निस्सीम कल्याण होगा।

एक वार शेष जी वीमार पड़े वहुत दवा की परन्तु आराम नहीं हुआ अन्त में धन्वन्तरी ने शेप जी की आँखें वाँधी, ओर फिर दवा दी | तब वहुत जल्द दुरुस्त हो गये। मित्रो ! शेष जी के नेत्र क्यों बांधे गये, जानते हो ? सुनो, जब तक शेष जी के नेत्र खुले थे तब तक उनके नेत्रों से निकलने, वाली विपमयी ज्वालाओं से सव औषधि विलकुल विप वन जाती थीं;. अम्ृतवल्ली भी विषवलली वन जाती थी नेत्र जब बांधे गये तभी .दवा दवा वनी रही और वे चंगे हो गये | इसी प्रकार जब तक हम अपनी विषयपूर पापी दृष्टि के बन्द अथोत्‌ नीची नहों करेंगे तब तक सात जन्म में हमारा सुधार नहीं हो सकता | अत: चंचल चित्त बालों को पर-ल्ली की ओर देखना एकदम प्रतिज्ञापू्वंक त्याग ही देना चादिये। हो पण करके इसके अनुसार चलेगा, 'उसको' अवश्य दी मेवा मिलेगा उसका अधश्य ही उद्धार होगा और जो' भोदद

वश पर-ल्री की तरफ्‌ ताकेगा उसके! उसका ही निर्मित पाप- ,

रूपी पिशाच अवश्य ही खा डालेगा विषयी दृष्टि को. बन्द करने से-किसी ल्‍्ली की ओर विलकुल ताकने से--पापी से पापी मनुष्य भी वहुत जरद्‌ खुधर सकता है। नीची अर्थात्‌ नन्न दृष्टि ही से मनुष्य ऊंचा से ऊँचा वन सकता है | जो गीच या ऊंट की तरह किसी स्री की ओर गद्‌न उठा के वा छुमा के ताकेगा घह फौरन नरककु'ड में जा गिरेगा नीच पुरुष सती स््षियों की ओर भी पाप की ही दृष्टि से देखा फरते हैं। भछा ऐसे नाय्की

पुरुषों का कैले भला हे। सकता है? भक्त दाल वामन कहते हैं:--

के पवित्र-साद्भाव-दृष्टि [८१

अडी3ल3न्‍भल+

“चटक मरक नित कुमति बन तकत चलत चहूँ ओर | धघामन ! ऐसे अधम नरः पड़े नरक में घोर ऋष्यमृक पर्वत पर जब श्री सीता देवी के गहने श्री लक्ष्मणजी के सामने जांचने के लिये रक्‍्खे गये तब श्री लक्ष्मणजी क्‍या ही उत्कृष्ट उत्तर देते हैं:-- “नाहं जानापि केयूरे वाह' जानामि कुण्डल्े। नृपुरेत्वसिजानामि नित्य पादाभिवनन्‍्दनाव” ॥शा “इन सब गहनों में केवल नूपुर ही मेरे पहिचान के हैं जो कि रोज़ वन्दन करते समय में श्रीसीता माता के चरणों में देखता था। इन केयूर कुए्डलों को ओर अन्य गहनों को मैं नहीं जानता हूँ क्योकि चरणारविंद को छोड़ कर मैंने दृष्टि उठाकर कभी :ऊपर देखा ही नहीं !” अहृह ! धन्य है. श्री लक्ष्मणजी, आपकी यह आदश-शिक्षा ! यही कारण था कि आप चौदह वर्ष पर्यन्त श्रीसीतादेवी जैसी त्रेलोक्य सुन्दरी के साथ रहते हुये भी अपना ब्रग्मचर्य का अ-हूट पालन कर सके और मेघनाद जैसे अबल शत्रु को मार सके | मेधनाद्‌ ते फेवलछ “इन्द्रजीव” द्वी था, परन्तु आप उससे सी बढ़कर 'इन्द्रिय-जीत! थे भ्रीमच्छुछूरा- चार्य कद्दते हैं, “जितं जगत्‌ फेन मने। -हि येन !” खत्य है, पक मात्र 'इन्द्रियजीत? ही सम्पूर्ण चेलोक्‍्य के जीत सकता है ! भाइयो ! तुम भी अपनी दृष्ठि श्रीलदणजी की तरह पवित्र बनाओ | पत्येक स््री के सामने दृष्टि के सदैव नीची दी रकखों ओर मन में ६शवर का चिन्तन वा “माँ, माँ, माँ,” इस पवित्र महा मंत्र का अट्टूट जप शुरू कर दे। तब ही - तुम ब्रह्मचर्य का 5

८२] के अ्ह्मचय्य द्वी जीवन है के

सच्चा पालन फर सकेगे और फामरूपी मेघनाद-फो निम्चयपूर्वक भार सकागे। सारांश यद्द कि किसी स्त्री की ओर .न देखना ही भ्रह्मचय॑-रक्ता का परम श्रेष्ठ रहस्य है--उपाय है

सादो रहन-सहन नियम तीसरा *--- ' वक्तव्य:--अह्मचर्य-रक्ञा के लिये हमें झपना जीवनक्रम "8प9० ]ज्ञग्् 270 फ्रंह॥ ५४ंपात॥४" यानी “सादा बर्ताव और ऊँचा ख्याल” इस सदुपदेश के अनुसार अत्यन्त सीधा-सादा प्रकार का रखना होगा; क्योंकि सादापन ही वड़्प्पन का चिह्न है, वल्कि रहस्य है 9॥00।०४९४४ 45 480)॥ 87९४४॥८४५ संसार में आज तक जितने महापुरुष हुए हैँ वे सब सादी दी रहन-सहन से हुए हैं। अधिक सुख-भोग की सामग्रो से घिरे रहना मानों अपने के व्यभिचारो ही बनाना है। शरक्वार से कामदेव जागृत होता है। विलासप्रियता से तन, मन, धन, तीनों वरबाद हे! जाते है। ऐश-आरम का चसका दी मनुष्य फो धूल में मिला देता है। आराम-तलब मनुष्य के कामरिपु पटक पटक कर मारता है! यही कारण है कि गरीबों से धनी छोग विशेष कामी और विशेष 'डुःखी रहते हैं। नख़रेबाजी से मनुष्य आतिशबाजी क्षी तरह बिलकुल जछ उठता है। नकाशीदार लेटा या गिलास में जैसे खर्वत्र मैल भरा रहता है, उसी प्रकार नख्रेबांज स्ली-पुरुषों में भी काम, क्रोध, अहंकारादि मैल विशेष भरा रद्दता है। सत्पुरुष कहते हैं :-- ;

४8सादी रहन-सहन के (८३

भीतरसों मैलो हियो, बाहर रूप अनेक। नारायण तासों भत्ते, कौआ तन मन एक ]

खुद “न-खरा” शब्द ही मनुष्य की खोटी चाल को सावित कर रहा है विशेष सज-धज करना, ऊँचे ऊँचे और रंगे-विरंगे भड़कीले कामात्तेजक कपड़े पहिनना, अपने हाथ अपने गले में मालायें पहरना, अंग में और बालों में सुगन्धित तैल, इच्र आदि लगाना, नेक्टाई, कॉलर, रिस्टवॉच से अपने को सवॉरना, वार बार शीशे में सूरत देखना, पान से मुँह लाल करना/--ये सब त्रह्मचर्य के लिये काल के समान हैं परन्तु शोक की वात है कि कई सयाने माता-पिता ख़ुद अपने ही हाथ से, अपने वच्चों के इन विपय- अवृत्तिकर बातों में फँसा रहे और इस ग्रकार अपने चच्चों के विगाड़ रहे हैं | भला ऐसे लोग विपय के जीत सकते हैं ? “कहत कवीर सुनो भाई साधो, ये

क्या लड़े गे रण में ?” यदि हमारे इदे-गिढे खन्नगरपूर्ण सामग्री हो ते आत्मसंयम के कामों में वहुत ही सहायता मिल सकती है और हम बड़ी आसानी से आत्मसंयम कर सकते हैं | पास सें खाने के लिये होने पर जैसे वरावर मूठी ही भूक लगती है, वैसे ही विलासी वस्तुओं और व्यक्तियों से घिरे रहने पर भन में काम भी वरावर जाग उठता है ऐसा करना असंशयत: अपने भले मन के ओर भी बियाड़ना है; आग में तेल डालना है; वास्तव में यह भी एक अकार का छिपा कुखंग है अ्रत: इन सब भोग-चिछास की बातों से सदैव दूर रहो | सादी रहन-सदन अथवा भेग-विछास से चिरक्ति ही ब्रह्मचय-रक्ता का सहज उपाय है। सादगी ही

८४] #& ब्रह्मच॒य्य द्वी जीवन है #े

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जीवन है और सजावट ही नाश हैं, यद्द तत्व पूर्णरीति से ध्यात में रक्खो |

टिजीकिक

“सत्संगति” नियम चौथा :--

सत्संगत्वे नि:संगत्व॑ नि:सहृत्वे निर्मोहत्वम्‌।

निर्मोदत्वे निश्चछऊवत्व॑ निश्चलतत्वे जीवस्मुक्त:॥ --श्रीमच्छझ्डराचार्य “सत्सज्ञ से निःसज्ग ( ह०॥-४४॥8७०॥॥076 ) की प्राप्ति होती है; निःसह से निर्मोहत्त अथात्‌ वियय से अप्नीति वढ़ती है; निर्मोह से सत्य का पूरा ज्ञान निश्चय होता है और सत्तत्व के निश्चल ज्ञान से मनुष्य जीवन्मुक्त होता है अथोत्‌ इस संसार से तर

जाता है ।” वक्तव्य:--संसार सें आत्मोन्नति! के लिये जितने साथन मौजद हैं उन सब में सत्संग सच्च से श्रेष्ठ उपाय है। सत्संग यह. शब्द अत्यन्त सहत्व का है। सत्संग में संसार की तमोम उन्नतिकर बातों का समागेश होता है। जैसे पविन्न ऊँचे विचार करना; पवित्र मीठे वचन वोलना, पवित्र वचन सुनना, पवित्र भोजन करना, पवित्र स्वदेशी कपड़े पहनना आदि अनन्त वातों का समावेश होता है और “कुसंग' में संघार की तमाम स्वपरनाशकारी वातों का समावेश होता है। सत्संग से महुष्य देवता बनता है ओर कुसंग से मनुष्य राक्षस वन जाता है। सक्त तुलसीदास जी पूछे हैं “को छुसंगति पाय नसाई ९” सच है, कुसंग से आजतक

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बड़े बड़े शीलवान, गुणवान्‌, और होनहार वालक-चालिकायें तथा ख्री-पुरुष धूल में मिल गये हैं कुसंग का प्लेग महान्‌ भयानक होता है जंगली जानवर का वा काले साँप का भी साथ चहुत अच्छा है; उससे मनुष्य की केवल मृत्यु ही होगी | परन्तु दुजेन का संग महान्‌ दुर्गतिकर है; वह मनुष्य को नीच यातनियों में नरक में ही डालने वाला है | पण्डित विष्णु-शर्मा कहते हैं:--

“वर प्राण॒त्यागो। पुनरधमानाम्ुपगमः ।?

“ग्राण त्याग देना अच्छा है परन्तु नीचों के पास जाना तक बुरा है।” “जैसा संग वैसा रंग” यही अकृषति का क़ायदा है। घुवाँ के संग से सफ़ेद मकान भी काला पड़ जाता है। लता में का कीड़ा लता ही के तुल्य हरा बन जाता है। वैसे ही दुजेन के साथ मनुष्य भी हुजन वन जाता है और सज्जन के साथ सज्जन | “कामी के संग काम जागे पै जागे” ““कायर के संग शूर भागे पै भागे? “काजर की कोठरी में केसोह सयाना घुसा, एक रेख काजर की लागे पै लागे ।” कवि का यह कथन अक्षरशः सत्य है। न्नीच पुरुष अपने ही तुल्य अपने मित्रों को भी नीच, पापी ओर दुरात्मा बना डालते हैं और सत्पुरुष अपने ही जैसे अपने मित्रीं को भी पुण्यात्मा महात्मा बना देते हैं

सत्संग की महिमा अपरंपार है सत्संग से मनुष्य को सोक्ष प्राप्ति होती है और कुसंग से नरक की प्राप्ति होती है। सत्संग की महिमा और कुसंग की अधमता किसी, से छिपी नहीं है। कुसंग से मनुष्य जीते जी ही नरक का सा अज्लुभव करने लग जाता है। इसी कारण से गोस्वामी जी कहते हैं--“वरु भल वास नरंक

है

८६ ] & ब्रह्मचर््य दी जीवन है #

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कर ताता, ठुष्ट संग जनि देंहि विधाता।” अतः कल्याण चाहने वालों को कुपंग को एक दम अतिज्ञापू्वक त्याग देना चाहिए और सत्सह्ष को प्रयत्रपूवक प्राप्त करना चाहिये कुमित्रों से मित्ररहित रदना दी छाख गुना श्रेष्ठ दे; क्योंकि कुसंग से धर्म, अथे, काम और भोज्ष चारों मट्यामेट है। जाते हैं और अ्रन्त में मदन, अधेगति हे।ती है परन्तु सत्संग से चारों पुरुपार्थ अनायास सध जाते हैं | याद रक्‍्खो, राजपाट, गज, वाजि, धन, स्त्री, पुत्रादि सब छुछ मिलेंगे, परन्तु सत्सज्ञ मिलना परम दुलंभ है।“वितु ततसझ्ञ विवेक होई, राम कृपा बिन्नु सुलभ सोई ।?--यह गोस्वामी जी का वचन अक्षर अक्षर सूट है मोत्ष के सब साधन एक तरफ और सत्सज्ञ एक तरफ दोनों में सत्सक्ष का ही दर्जा बहुत ऊँचा है

#“तात रुघगे अपवर्ग खुख, धरिय तुला इक अंग। छुले तादही सकल मिलि, जे। सुख लव खत्खंग

सच है, “शठ सुधराहिं सतसंगति पाई” कैसे ? तो जैसे “पारस परसि कुधातु सुदाई ।” यह निवान्त सत्य है. कि “सम्पूर्ण ढुराचार और व्यभिचार की जड़ एक मात्र कुसंगति ही है।” अतः ऋह्म- चारियों को तथा अभ्युदयेच्छुओं को चाहिये कि कभी भी जीभ से घुरी वात कहे, कान से चुरी बात उंनें ( जैसे कजली होली की गालियां भद्दे भह गीत आदि ), आंख से बुरी चीज़ देखें ( जैसे नाटक, तमाशा, सिनेमा, नाचवाली रामलीला, भद्दी चीज़ इत्गदि ); पैर से बुरी जगह जायें, हाथ से बुरी चीज़ छुवें और मन से विषय-चिन्तन हरगिज़ करें | वल्कि कुभाबों को '

#& सत्संगति के - [८७

नष्ट करने वाला परमात्मा का ही शुभचिन्तन ध्यान हमेशा करें चस, फिर तुम महात्मा दी हो और तुम्हें यहीं पर सच्चा स्व है

एक समय भगवान्‌ विष्णु ने राजा वलि से पूछा कि तुम सज्जनों के साथ नरक में जाना पसन्द करोगे या इुर्जनों के साथ स्वर्ग में ९? बलि ने तत्काल उत्तर दिया कि “मैं सब्जनों के साथ नरक में ही जाना पसन्द करूंगा ।” पूछा, “क्यों ?”? तव जवाब मिला; जद्दों पर सज्ञन है, वहीं पर सुपर्ग है और जदाँ पर दुज्ञन है चह्दी पर नरक है दुर्जन पुरुष स्व का भी नरक बना छोड़ते हैं भर सज्जन पुरुष नरक के भी स्वर्ग बना देते हैं सतपुरुष जहाँ जाँयगे वहीं पर स्वर्ग चने जाता है

' “सत्संग: परम॑ तीर्थ सत्संग: परम पद्म तस्मात्सच परित्यज्य सत्संग सतत कुंसछ ॥7 *

सत्संग ही परम पवित्र तीर्थ है। सत्संग ही श्रेष्ठटम पद अथोत भोक्ष है। इस लिये सव छोड़ छाड़ कर काया वाचा मनसा नित्य सत्संग का ही सेवन करो। जब जब चित्त में नीच विषय विकार उत्पन्न हों, तव तव उस परिस्थिति का एक दम टाग कर, स्पुरुषों या सुमित्रों के पास तुरन्त जा बैठो। वहां जाते ही तुम्हारी सम्पूर्ण नीच वृत्तियां तत्काल दव जांयगी और मन तन दोनों शान्त पवित्र बन जायेंगे, यह स्वानुभव सिद्ध चात है। आप भी इसका अनुभव कर अपना उद्धार कीजिये

एकान्त:--जिनके चित्त में कुविचार उत्पन्न होते हों, ऐसे हुतेल चित्त वाले व्यक्तियों को एकान्तवास कदापि करना चाहिये उन्हे” सदा इष्ट-मित्र, माता-पिता, भाई इनके समीप ही रहना चाहिये; इसी में कल्याण है

८८] # त्रह्मचय्ये ही जीवन हैं के

बिक “सदप्रन्धावलोकन

नियम पाँचवाँ :--

वक्तव्य:--जहां सन्सित्र सम्जन-संगति दुलेम हो वहां सदभन्ध- रूपी सज्जनों और मित्रों की संगति करनः चाहिए। सदअन्धों द्वारा हम संसार के एक से एक महात्मा की संगति राद-दिन कर सकते हैं ओर उनसे जब चाहें तव तथा जितने मरततरे चाहे उतने मरतवे वार्तालाप कर सकते हैं. और अपना “यथेष्ट! समाधान कर सकते हैं “सद्यन्थ इस लोक के चिन्तामणि हैं। सदअन्धों के पठन-पाठन से सब कुचिन्तायें मिद जातो हैं, संशय-पिशाच भाग जाते हैं झऔर मन में सदुभाव जागृत द्वेकर परम शांति प्राप्त देती है। शानाप्ति से मनुष्य का सब पाप जल ज्ञाता है और मनुष्य पापात्मा से पुण्यात्मा और व्यभिचारीः से प्रह्मचारी बन जाता है। शानानन्द के सामने विषयानन्द फीका पड़ जाता है। बिना सिद्धान्त-चाक्यों के श्रवण किये किसी का आचरण कदापि शुद्ध नहीं हे सकता। अवण की महिमा अपरस्पार है। बिना देखे और छुने किसी का उद्धार आज तक शुआ दै, होगा।

अतः हमें रोज प्रातः:काल और सायंकाल किसी पवित्र अन्थ

का पवित्रता और एकग्रतापूर्वक, झुद्ध जगह पर वैठ कर, थोड़ा ही नियमित पाठ करने का नियस बांध लेना चाहिये पाठ को शान्ति प्रसन्‍नता-पू्वंक पूरा किये बिना अन्न ग्रहण नहीं करेंगे--

ऐसा एक निश्चय कर लेना चाहिये। इस प्रकार निश्चय कर' लेने से सनुष्य के भीतर एक अद्भुत दैवी शक्ति जागृत होती है, जो कि उसे उन्नति के शिखर पर पहुँचा देती है।

क# सद्प्रन्थावलोकन के [ ८९

आज:

गीता वा रामयण का पाठ करना अत्यन्त उपकारी होगा। अह्यचय की रक्ता के लिये योगवाशिष्ठ, पैराग्यमुमुक्त पकरण, उप- देशरत्नाकर, शान चैराग्य प्रकाश, ओऔीरामकृष्ण, शंकराचायेक्ृत प्रक्षेत्तरमणिमालो, दासबोध,--ये पुस्तक अति द्वी उपकारी हैं। इनका नित्य पाठ करना चाहिये ; जैसे एक दी अन्न और जल रोज़ खाया और पिया जाता है, वैसे दी जे। कुछ पढ़ा है उसे दी वराषर पढ़ना भर उसका ,खूब मनन करना चाहिये, इसी में हमारा उद्धार है।

उपन्यास:--उपन्यासादि खद्भार रसपूर्ण श्रन्थ पढ़ना मानों अपने हाथ अपने मकान में दियासलाई लगाना है। झद्भारी पुस्तकें बड़े त्र्मचारी को भी व्यभिचारी बना देती हैं, अच्छे अच्छे सच्नरित्र चालक बालकायें भी छुम्रन्थों के पठन और श्रवण से ढुश्चरित्र वन गयी हैं। भरत: कुआ्नन्थों का सर्बदा त्याग फरो, अच्छे प्रन्थों का पता अपने सुमित्नों और भाइयों से पूछे | मूखंता से कोई छुअन्थ पढ़ बैठे 4 कुप्रन्थ पढ़ना और घिष खा लेना देनों समान दै अतः जिन्हें नीच पुरुष बनना हे, जिन्हें मद्ापुरुष वनना हे।, उन्हें चादिये कि थे आप्रदृपूर्वक महापुरुषों के चारित्र-प्रन्थ पढ़े ।.,

चरि्र-प्रन्‍्थ:--चरिल्र अन्थों के पढ़ने से बड़े वड़े पापात्मा भी पुण्यात्मा घन गये हैं सुर्दों में मी जीवन फूँक देते है, महापुरुष के चरिज्न-प्रन्थ इस लोक के लिये चैतन्यास्रत हैं। अतः जे। अपना उद्धार चाहते है वे नित्य-्प्रति धर्म-पन्थ नीतिन्म्ल्थ चरित्रमल्थ आदि पढ़ें पढ़ायें, सुने, सुनायें क्योंकि सदूगनन्थ ही धार्मिक-जीवन का भोजन है! सदग्रन्ध दी इस लोक के तारक मल्न हैं। और

छुप्रन्थ ही काल के मारक यंत्र हैं ।.

९० ] # ब्रह्मचय्य ही जीवन है के

(पाप णुः ५... ११

धर्षए-स्नान नियम छुटठा:-- , *

वक्तव्य:--त्रह्मचय की रक्षा के लिये मन का और वाणी का पविन्न रहना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि गन्दे शरीर से मन भी गन्दा वन जाता है गन्दगी रोग का घर है। जो पुरुष रोगी है वह कभी ब्रह्मचारी नहीं हो सकता | पुनः रोगी शरीर से दीन और दुनियां दोनों डूब जाते हैं। अतः शरीर के सदा शुद्ध बलिष्ट बनाये रखना प्रारि। मात्र का सब से प्रथम और मुख्य कतव्य है

[२ पोहर्म ०५०

एक समय हमारी तरफ एक मलुष्य मोहरम में शेर बनाया गया था शरीर में वारनिश मिलाया हुआ पीला रंग सर्वह्न.पोत दिया गया था द्ति भर खेला-कूदा - और राव का -घर लौटां। थकावट के कारण जल्दी सो गया सूर्योद्य हुआ | ८-९ बजने' पर भी नहीं उठा, तब लोग घबड़ा गये। पुकारने पर भी “जब नहीं बोला तव लोगों ने किवाड़ तोड़ डाले और कया देखते हैं कि . बह मुर्देकी तरह अचल पड़ा है। तुरन्त डाक्टर को बुलाया। डाक्टर ने आते ही फौरन उस शेर को टारपेन तेल, गरम पानी ओर साथुन से खूब रगड़ कर साफ़ किया | जब उस मनुष्य का शरीर स्वच्छ हुआ, चमड़े के सब छिद्र जब साफ़ खुल गये, तब कहीं १५ मिनट के बाद उसने गहरी सांस ली और आँखें खोली ।' अन्त में वह चंगा हो गया | इस इृष्टान्त से यह सिद्ध हुआ है कि नाक और सुँह से भी हमारे शरीर का चमड़ा कहीं अधिक साँस लेता है चमड़े के छिंद्र वन्द होने से नाक और मुँह खुले रहते

$8 'घपेणस्नान # [९१

हुए भी हम जी नहीं सकते अतणव गत्येक सञ्री पुरुष के चाहिये कि वह शरीर की स्वच्छता में कमी आतलस्य करे, घर्पण-स्तान रोज़ किया करे घपण-स्नान से त्वचा के सब छिद्र खुल जाने के कारण भीतर के असंख्य दूषित पदार्थ पसीने के रूप में बड़ी आसानी से धाहर निकल जाते हैं और वाहर की शुद्ध हवा भीवर. जाने से शरीर निरोग वन जाता है घर्पण॒-स्नान से मनुष्य अधिक तेजस्वी, निरोग, नििकारी, अह्यचारी ओर दीघंजीवी सहंज में वन सकता है; ओर गन्दापन से वह रोगी, बिकारी, आलसी, पिपयी और अल्पायु वन जाता है। सव जगह पवित्रता ही जीवन है अपवित्रता ही मृत्यु है हम लोग अक्सर काक-स्नान ( कौआ-स्नान ) किया करते हैं। शिर पर १०--५ लोटे पानी डाल लिये और हो गया स्नान ! शरीर मलने से कुछ मतलब नहीं

लेखक ने तो एक मनुष्य के! केवल एक ही लोटे पानी में स्नान करते हुए देखा है यह बहुत ही घुरा है। नतीजा यह होता है कि, शरीर में का जहर वाहर नहीं निकलने पाता। पाखाना साफ़

नहीं होता है, जठरापि मन्द होने से खाना भी नहीं पचता, सदा

अपच हुआ करता है | फिर भीतर के जहर को परम दयाछ प्रकृति माता खुजली, दाद, फोड़ों के रूपों में शरीर के बाहर निकालने लगती है | रोग अकृति की स्पष्ट सूचनायें हैं और मनुष्य की ठुरु- स्तगी के अन्तिम इलाज हैं | इतने पर भी मनुष्य होश में आये तो द्वार में इन्वज़ार करती हुई मृत्यु उसे चट से अपनी गोद में ले लेती है.

धर्षण-स्नान की शाज्लीय विधि:--स्नानके लिये आ्रातःकाल सबसे अच्छा समय है| आतःस्नान से सब दिन बड़े आनन्द से वीवता

९२ | के ब्रह्मचय्य॑ द्वी जीवन है के

है और आलस्य नष्ट होकर सम्पूर्ण शरीर चैतन्यमय वन जाता है अतएव स्नान सूर्योदय के पहले ही कर लेना चाहिये, जाड़े ओर चरसात में ८-१० या १५ मिनट और गर्मी में पूरा आधा घण्टा तक, जब तक कि मस्तिष्क पूरा ठए्डा हो तव तक स्नान अवश्य करना चाहिये। स्वप्न-दोप से पीड़ित मनुष्य को तो शाम को भी दुबारा नहाना चाहिये | जहाँ तक हो, ताज़ा और स्वच्छ शीतल जल मस्तिष्क पर खूब डालना चाहिये स्नान के लिये कूप का जल सत्र ऋतुञओं में अजुकूल होता है; जाड़े में गणे ओर' गर्मी में सदे होता है। स्नान से लिये कूप में से जल अपने ही हाथ खींचों उससे सीना और दरड पुष्ट हो जाते हैं। जाड़े में स्नान के पहले १०-१२ दएड और २५-३० वैठक लगा लेने से जाड़ा नहीं मालूम होगा परन्तु घपण-स्नान में 'ज़ोर से रगड़ने से जो कुछ व्यायाम होता है, उससे शरीर में काफ़ी गर्मी जाती है | स्नान के लिये पानी सदा ताजा, रच्छ विपुल रहें, इस बात का स्मरण रहे स्नान के पहले सब शरीर को सूखे तोलिया से खुरखुरे वल्र से ( मुलायम से नहीं ) खूब ज़ोर से रागड़ो; रुड़ने में छुछ कमी ने करो और कुछ डरो भी मत पर हाँ उचित जगह पर उचित जोर लगाओ, नहीं तो मारे रंगड़े के आँल ही फोड़ लोगे | तौलिया से राड़ने के वाद हाथ से रगड़ो हाथ के रगड़ने से शरीर में एक विजली पेदा होती है। जो कि शरीर के तमास रोगों के ह॒टाती है। इस कारण शरीर का अत्येक अवयव अच्छी तरह से रगड़ना चाहिये जहाँ संघर्षण होगा उतनी ही जगह कमज़ोर और रोगी बनी रहेगी, यह बात ध्यान सें रक्खो | पेट के ठीक रणड़ने से पेट के अनन्त विकार नष्ट होते हैं और पाखाना भी सांफ़ होता है।

घर्षेणु-स्नान [९३

स्नान के लिये बैठने पर गदन भुकाकर सच से पहिले एक-दो लोटे जल से शिर मसिगोओ | यदि मस्तिष्क प्रथम भिगोया जाय तो नीचे की तसास गर्मी दिमाग में चढ़कर बड़ी ही हानि करेगी, स्मरणशक्ति नष्ट कर देगी, आँख की ज्योति विगाड़ देगी, सन में काम विकार ग्रवल होंगे और स्वास्थ्य भी नष्ट हो, जायगा इस ही कारण “त स्नायाहिनाशिरः ।? सव से अथम बिना शिर के मिगोये धोये स्नान कदापि ले करना चाहिये, ऐसी सूतन्नमय शाख््नाज्ञा है। इस शाख-रह॒स्य के जानने से कारण ही, आज माहछ्तम कितने ही लोगों के मुफ्त में रोगी ओर अल्पायु बनदा पड़ता होगा। अतएव सावधान रहो गला, शिर भिगोने के वाद फिर गार के रक्खे हुये तोलिये से क्रमशः हाथ ! कंधे, सीना, पेट, पीठ, कमर, टाँग, पैर वगैरह खूब रगड़ो | फिर शिर पर से सम्पूरों शरीर भर में ययेष्ट पानी उड़ेलिये | हाथ से सब अंग फिर से रगड़ो फिर शरीर भर में पानी उड़ेलो तत्पश्चात्‌ सूखे तौलिया से सम्पूर्ण शरीर के पोंछ डालो ( शरीर के साफ़ पोंछने ही से गीलापन के कारण मनुष्य के अक्सर दाद, खुजली वगैरह हुआ करती है और खुजलाते ख़ुजलाते अनेकों लड़कों के बुरी आदतें लग जाती हैं ) फिर धोती थ्रों ही लपेट कर खुली प्रकाशसय जगह में सूर्य-स्नान अर्थात्‌ सूर्थ के किरण शरीर पर लेते हुये थोड़ी देर इधर-उधर टहलो शरीर पूरा सूख जाने के वाद फिर घोती पहन कर अपने धन्ये में लग जाओ देखो, एक ही दिन के 'घर्पण स्नान! से आपके हारीर में क्या ही उत्साह, आनन्द, फुर्ती ओर कान्ति दिखाई देती है | हमारा मुख अन्य सब अवयबों की अपेक्षा जो.इतना सुन्दर और तेजस्वी दिखाई देता है, इसका मुख्य कारण

९४] &8 ब्द्यचय्य ही जीवन है ४8

अषेण-स्नान ही है यदि एक ही दिन में घर्षण-स्मान से मनुष्य में इतना आनन्द, उत्साह आरोग्य, शान्ति कान्ति दिखाई देती है, तो नित्यप्रति इस प्रकार विधिपुर्वेक घर्षण-स्नान करने से मनुष्य का आनन्द, उत्साह, आरोग्य शान्ति कान्ति और भी अधिक बढ़ेगी इसमें सन्देह ही क्‍या है ? सतान के कुछ शास्त्रीय नियम--( १) रोज दो मस्तवे स्नान करना अच्छा है। गर्मी के दिनों में तो हमकों दो मरतवे स्नान करना ही चाहिये | क्योंकि दिन भर के पसीने के कारण शरीर से बढ़ी ही बदबू निकलने लगती है। पसीने में बहुत जहर होता है, यह बात ध्यान में रखो (२) महीने में एक मरतवे गर्म पानी और साबुन या सोड़ा से नहाना बड़ा हीं स्वास्थ्यप्रद होता है, खायें और भी साफ़ हो-जाती हैं। परन्तु रोज़ गर्म पानी से नहाना अच्छा नहीं है। यह अग्राकृतिक है। उससे मनुष्य कमज़ोर नाजुक, चंचल विषयी वन जाता है। नित्य गर्म पानी से नहाना जअह्यचर्य के लिये बहुत ही हनिकर है। (३) नदी और तालाव का स्नान और भी अच्छा होता है। शास्त्र में समुद्र-स्नान की महिमा सव से अधिक है क्‍योंकि समुद्र जल में एक प्रकार की विजली होने के कारण मनुष्य अधिक निरोग और चैतन्यमय वन जाता है। यदि घर के पानी में भी समुद्र का नमक मिलाकर स्नान किया जाय तो उससे भी विशेष फायदा होता है वाद में शुद्ध जल से स्नान कर लेना चाहिये (४ ) तैरने में बहुत से लाभ है तैरने में सभी अवयवों के व्यायाम होता है, सीना पुष्ट और विस्तीण होता है, फेफड़े शुद्ध और वलववान होते हैं और सम्पूर्ण शरीर निरोग, फुर्तीला, सुदृद, दमदार, उत्साही और शक्तिशाली वनता है परन्तु

.के घरषणस्‍नान के ' [९५

िस+>स ५-2५ 2कम 3०» 2७८८०;

तैरना नियमपूरवक होना चाहिये; तैरना अपने और दूसरों की आण रक्षा के लिये एक वहुत ही अच्छी कला है। क्या डूबते समय हमारी कितावें काम देंगी ? कदापि नहीं अतः इस हुनर के स्वा- स्थ्य की दृष्टि से हर किसी के! अवश्य सीख लेना चाहिये (५ ) स्नान भोजन के पहले वा वाद सें तीन घंटे के अन्तर पर करना चाहिये। नहाने के बाद तुरन्त भोजन करने से अथवा मोजन के बाद तुरन्त नहाने से पित्त वढ़ जाने के कारण पाचन-क्रिया विगड़ जाती है जिससे कि रोग सानसिक विकार उत्पन्न होते हैं अत- एवं सावधान रहो (६ ) रोगा, दुवल, वा नाजुक भनुष्य के हफ्ते में ताज्ञा ठण्डे पानी से ज़रूर नहाना चाहिये और बहुत # धीरे ठए्डे जल से नहाने का अभ्यास डालना चाहिये | (७) तौलिया से रगड़ने और थोड़ी सी कसरत करने पर भी यदि चहुत ही जाड़ा माछ्ूम होता हो, हमें स्नान हरणगिज करता चाहिये ( ) स्नान के लिये जगह एकान्तपूर्ण, खुली हवादार, अकाशमय होनी चाहिये, स्नान के समय शरीर पर जितने ही कम कपड़े होंगे उतना द्वी अच्छा है, क्योंकि खुले शरीर पर सर्दी गर्मी असर नहीं कर सकती लंगोट पहिन कर नहाना बहुत अच्छा है; घर पर एकान्त में विवस्त्र नहाना सबसे अच्छा है, जलाशय में नहीं। यद्यपि नंगा नहाना पाश्चात्यों ने पसन्द किया है तथापि वह भारतीय सभ्यता के स्वथा विरुद्ध है, भारतीयों के लिये लंगोट सहित नहाना ही सर्व श्रेष्ठ है (९ ) वीयेपात होने के वाद तुसन्‍्त नहा लेना चाहिये |

जापानी लोग धर्षण-स्नान का महत्व भोजन से भी अधिक मानते हैं और इसी कारण आज वे इतने उत्साही, उद्योगी, दीर्घायु

९६ ] #& मढ्मचस्य ही जीवन है ह#?

ओर सब बातों में तेजस्वी दिखाई देते हैं ! परन्तु हम लोग, उन्हीं के भाई, मुर्दों के समान निर्बीय गोवरगणेश दिखाई दे रहे हैं यह कितने शोक और लञ्ञा फी बात है. ? अब हमें अवश्य ही जागना चाहिये और हमेशा उन्नतिश्रद काम करने चादिये। सब उन्नति का मूल शरीर है। अतः उसे पहल झुधारना चाहिये। योंद्दी हाथ घुमाने से जैसे फोई वर्तन ( पात्र ) साक्र नहीं हो सकता, उसे ज़ोर से ही रगड़ना पड़ता है, तद्दत, दारीर रूपी बर्तन भी, बग्मैर घर्षण-स्नान के बाहर भीतर से साक्र और चमकीला नहीं हो सकता | फाफ-स्नान से मनुष्य सदा रोगी, मलीन, आलखसी, विपयी, निस्तेज भर अल्पायु होता है | परन्तु वद्दी मनुष्य यदि धर्षण-स्नान आज दी से शुरू कर दे, तो थोड़े दी दिनों में पूर्य निणेगी, निर्विकारी, उत्सादी तेजस्वी वन सकता दे त्रद्मचये तथा दीघ जीवन के लिये घर्पश-स्नान अत्यन्त आवश्यक और अमृत तुल्य है,

निजता अजज5

; सादा व्‌ ताजा अतल्पाहर

नियम सातवां :--

बक्तज्य: - अद्मयचये और भोजन में अत्यन्त घनिष्ट संवन्ध है. | भोजन के महत्व को वहुत लोग नहीं जानते, इस फारण उन्हें अत्यन्त दुःख उठाना पड़ाता है। जिसे अद्मचारी चनना छै, उसको सादा और अल्पाहरी अवश्य ही बनना होगा। अधिक भोजन फरने वाला सात जन्म में भी ब्रद्मचारी नहीं हो सकता। क्योंकि जोर की आँधी जैसे पेड़ों के उखाड़ डालती है, वैसे ही कामदेव

' & सादा वाज़ा अल्पाहार # [९७

३तससस१ॉ सच जीत तर तत_ सतत र>+झज+2+2भमभ 25२८ ३व८३१५८०५८१९:-९७००५००९५/०१९७८०५८०९८>९५॥७-2 ९५८४५ /३७५०७५००७-/००७,

पेट मनुष्य को पटक पटक कर मार डलता है। अधिक भोजन करने वाला पुरुष किसी हालत में वीर्य के नहीं रोक सकता। उसका चित्त सदा विषय की ओर लगा रहता है। मन और तन दोनों रोगी वन जाते हैं, आयु घट जाती है और स्वार्थ वें परसार्थ दोनों मट्यामेट हो जाते हैं स्वप्रृदोष अक्सर अधिक भोजन ही से हुआ'करता है। यदि आप के वीर्यवान आरोग्यवान्‌ बनना हो, स्वप्तदोष से ओर अकालमृत्यु से बचना हो तो आपके अवश्य ही सदा ओर अल्पाहारी वनना होगा |

एक समय ईरान के बादशाह वहमन ने एक श्रेष्ठ बैद्य से पूछा “द्नि-रात सें मनुष्य के कितना खाना चाहिये ९” उत्तर मिला “सौ दिरम अथोत्‌ ३९५ तोला ।” फिर पूछा, “इतने से क्या होगा १” हकीम बोला, “शरीर-पोषण के लिये इस से अधिक नहीं चाहिए | इसके उपरान्त जो कुछ खाया जाता है बह सिर्फ़ वोम ढोना और उम्र के खाना है

यह सिद्धान्त है कि आहार, निद्रा, भय, मैथुन, क्रोध, कलह आदि बातें जितनी बढ़ाई जाँय उतनी ही बढ़ती जाती हैं और जितनी कम की जाँय उतनी कम होती जाती हैं। भगवान्‌ बुद्ध कहते हैं:--/“एक वार हलका आह्यर करने वाला “महात्मा” है; दो वॉर सम्हल करके खाने वाला बुद्धिमान्‌ भाग्यवान्‌ है; और इससे अधिक वे अटकल थानेवाला महामूखे, अभागा और पशु का भी पट है ।”? सच है, गले तक खूब ठ्स ठूस करके खाना और फिर पछताना कौन बुद्धिमानी है ? ये क्‍या भाग्यवान्‌ के लक्षण हैं भोजन सुख के लिए खाया जाता हैया हुःख के लिए ? जिस भोजन से दु:ख उपजता है उस भोजन के विष तुल्य ही सममना

हि

९८ ] के म्रद्गाचर्य्य ही जीवन है के

चाहिये। “भोजन तारता भी है और मारता भी है।” अधिक भोजन से मनुप्य जीते जी ही सु्दो और बेकार बन जाता है। भक्तदास वासन कहते हैं:--

#ज्यादा घायु भरनसे, फूरबाल फद जाय।

घड़ी कृपा भगवान की, पेट नहीं फट जाय॥ता

ध्यदृपि दीखत पेट फटा, फटत मन्ुज का देह

रोग भयंकर द्वोत है, बने नरक का गेह” ॥र॥

अतः तन्दुरुस्ती के लिये खाओ; रोगी बनने के लिए मत खाओ | जे कुछ खाओ जीने के लिए खाओ, मरने के लिये मत खाओ | वहुत भोजन करने वाला वहुत जल्द मरता है अमेरिका के सुप्रसिद्ध डाक्टर भ्याकक्याडन कहते हैं:-आजकल साधा- रणुतः लोग भोजन के वहाने जितने पदार्थों का सत्यानाश करते हैं उनके चतुथाश से ही उनका काम वड़े आनन्द से चल सकता है। अकाल में अन्न के अभाव से लोग उतने नहीं मरते, जितने कि सुकाल में अधिक अन्न खाने से तरह तरह के रोगों से मर जाते हैं ।” देश में दुप्काल भी पेट लोगों की ही कृपा से पड़ता है। अतः पेट मनुष्यों के स्वयं अपना तथा देश का भी बैरी समझना चाहिये अरेरे | ग़रीव लोग वेचारे भोजन मिलने से मरते हैं और

धनी तथा पेट लोग अधिक खाने से मरते हैं, केवल मध्यम अकार के मिताहारी पुरुष ही त्रह्मचारी और दीघेजीवी हो सकते हैं देश में प्लेग, कालरा भी पेद लोगों के ही कारण होते हैं, क्योंकि पेट सनुष्य वहुत गन्दे होते हैं। कमाना, खाना और पाखाना ये ही उनके इस संसार में के तीन मुख्य काम होते हैं और अन्त में वे

सादा ताज़ा अत्पाहार [९९

पाते खाते ही भर जाते हैं। पेट्ट महुप्य सदा दुःखी, आलसी, रोगी और अल्पायु वना रद्दता है। देश में जब केई रोग फैलता है, तब पेट मनुष्य लव से पदले काल का शिकार वन ज्ञाता है और इस बात फा अद्भुसमच हैजा के दिलों में प्रत्यक्ष दाता है। हैजा की बीमारी सब से पदले अधिक्र भोजन करने वालों दी को हे।ती; है केचछ अत्पाद्यारी पुरुष ही वच सकते है अतः सजनों | अधिक भोजन करना-परोपकार के लिये नहीं तो स्वार्थ के लिये अर्थात्‌ अपने उद्धांर के लिये--अवश्य छोड़ दो। सिर्फ जितना पचा सकते हे। उतना दी खाशो, इससे एक भी फचर ज्यादृह खाना मानों अपनी आयु का एक एक दिन कम करना और अकाल में फाल के मुंह में जाना हैं।श्री मल महाराज कहते है:-- अनारोग्यं अनायुप्यं अस्वग्य/ घाइतिभोजनं। अ्पुण्य॑ लेकबिहविप्टं वस्मात्तत्परिवर्जयेद “अति भोजन रोगों के वढ़ाने वाला, आयु के घटानेवाला, नरक में पहुँचाने वाला, पाप के कराने वाला ओर लोगों में निन्दित करने वाला है ( यानी फलां मनुष्य वढ़ा पेटू है इस अकार की. वदनामी करने वाला है ) अतः बुद्धमान्‌ के चाहिये कि किसी बढ़िया पदाथ के फेर में पड़ कर, ज़रूरत से अधिक कदापिन खाये ! क्योंकि वैसा करना पूर्ण अधम है पेह महुष्य आत्म इत्याय कहा जाता है पेट्ट महुप्य की घर्मेच्रुद्धि बिलकुल नष्ठ हे! जाती है और वह हृडाव्‌ पापकर्मों में शव्चच होता संपूर्ण पाप की जड़ अधिक भोजन करना ही है। ऋधिक सेन द्वी से काम, क्रोध रोगादि अधिक प्रवछ बच जाते है और

१०० |] # बअद्यचस्य ही जीवन है. ६8

फम भेजन से ये फमजोर बन जाते है। इसी गंभीर सिद्धान्त के जानकर महर्पियों ने शाक्ों में उपवास फा भद्द॒त्व वर्णन किया है

भक्तदास वामन प्रश्नोत्तर में कहते हैः--“निकम्मा कौन है पेट महापुरुष की क्या पहिचान है ? जे अपने के सब से छोटा समभता हो | महापुरुष कैसे बनें ? मन के वश में करने से | सन कैसे वश होय कम खाने से कम खाना केसे सीखे ? आहार के थोड़ा थोड़ा घटाने से आहार कैसे घटे ! रोज़ सादा और प्राकृतिक भोजन करने से | सादा भोजन केसे प्रिय लगे भूख के समय खाने से और प्रत्येक आस (कवर ) का खूब अच्छी तरह चबाने से | भूख का समय कैसे जाने ? नियम वांध लेने से ओर फिर वीच में कुछ भी खाने से ।”

सचमुच प्रकृति अनुसार चलने ही से हम पेट्टपन से और तजान्य अनन्त विकारों से वच सकते है। भेजन में सी प्रकार रहने से मज्लुध्य अकसर ज्यादा खा लेता है और फिर सो प्रकार से सौ विकार अवश्य ही उत्पन्न दोते हैं |

आस्टे,लिया के प्रसिद्ध डाक्टर हने कहते हैं:--.“मनुष्य जितना खा लेता है उसका तिहाई हिस्सा भी नहीं पचा सकता बाकी पेट में रह कर रक्त का विपैला बनाकर असंख्य विकार पैदा करता है; जिससे कि प्राणशक्ति करा .दोहरा नाश होता है, एक तो,इस फाल्तू भोजन के पाने में और दूसरे उसके बाहर निकालने में

यदि मनुष्य भोजन कम प्रकार के खाय, नम्क-मि्च मसाला से रहित सालिक भोजन करे, प्रत्येक भ्रास को खूब महीन पीस कर चवा चवाकर खाय, शान्ति रबखे और जितना. पचाः

# सादा ताज़ा अस्पहार # [ १०१

कक

सके उतना ही खाय तो वह त्ह्मचरय के बड़ी आसानी से धारण 'कर सकता है और १०० वर्ष तक जीवित रंह सकता है| इसी के वल्‌ पर सुप्रसिद्ध अमेरिकन यंत्रकार एडिसन कहते हैं “में सौ पयन्त अवश्य जीवित रहूँगा |,, .. गुणा लगा ०णावप्रक एणाए १0879 0गए, एणा "8 8.78 $0 एणादुएक' एणए ज़ो0ेह 9007 था 7770 &6 6888.” यदि तुम सिर्फ जिह्मा का वश में करो वो तुम्हारे मन शरीर अनायास वश में दो जायेगे इसमें कोई सन्देद्द नहीं है। जिहा के संस्कृत में रखना कद्ते हैं। क्योंकि पह 2४गार, घीर, शान्त आदि सभी नव-रस की उत्पन्न करने वाली है। सात्विक भोजन से शान्तरस उत्पन्न द्ोता है, राजसी भोजन से 'गार रख और तामसी भोजन से वीमत्स रौद्रादि रस उत्पन्न होते हैं। जे। रस श्रधिक बलवान द्वोता दै सम्पूर्ण रस उसी के श्रधीन द्वो जाते हैं| इसी लिए कद्दा दै:-- आहदारशुद्धासत्वशुद्धिःलल्वश॒ुद्धो भू वास्त॒ृति: | . स्मृतिलब्धे सब प्रन्थीनां विप्रमा्: छान्दोग्य #अथात्‌ आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है, सत्व

शुद्धि से बुद्धि निमेल और निश्चयी वन जाती है। फिर पिच्र निश्यी बुद्धि से मुक्ति भी खलभता से प्राप्त होती ।? अतः डिन््हें काम क्रोधादिक से मुक्त होना है--उन पर बिजय प्राप्त करना है-- उन्हें चाहिए.कि वे नित्य नियमिंद समय पर सालिक अत्पाह्मर किया करें; क्‍योंकि कहा है 888 87 64९६ 80 ॥6 980077000 जैसा मनुष्य भोजन करता हैवैसा द्वी वद चन जाता है। यदि मनुष्य दो साल पर्यन्‍्त लगावार सादा अर्थात्‌

१०२ ] क# ग्रद्मचय्य ही जीवन है. के

'साख्विक अल्पाद्ार किया करेगा तो उसकी इुयुद्धि आप से आप नष्ट हो जायगी और उसमें ईए्चरीय तेज प्रगट दोने छगेगा। कुछ दी दिन तक प्रभ्यास फरके देख लीजिये

सांखिक आद्वार:--जा ताज़ा, रखयुक्त, हलका, स्मेहयुक्त, स्थिर (70078009) मधुर, प्रिय हो जैसे गहूँ, चावल, जी, साठी, मूंग, अरहर, चना, दूध, घी; चीनी, सेंधा नमक, रतालू (दाकरकन्द) शुद्ध पके फल, इनकों सात्यिक आहार कहते हैं।

राजसी आहार:--अत्यन्त उप्ण, कझुवा, तीता, नमकीन, अत्यन्त मीठा, रूखा, चरपरा, खट्टा, वैलयुक्र, दोपयुक्त, गरिप् जैसे पूड़ी, कचौरी, सालपृआा, मिठाई, खटा, लालमिचे तेल, हींग, प्याज, लद॒॒ुन, गाजर उरद, मसूर, सरसों, मसाला, मांस, मछली, कछुआ, अंडा, शराब, चाय, काफ़ी, डांफी, कोको, सोडा, लेमन, पान, तम्बाकू, गाँजा, भाग, अफीम, कोकेन, चरस, चण्डोल इनको राजसी आहार कहते हैं

राजसी आद्यार से मन चंचल, कामी, क्रोधी, लालची और पापी बन जाता है; रोग, शोक, दुख, दैन्य बढ़ते हैं और, आयु, तेज, सामथ्ये और सौभाग्य वेग के साथ घट जाते हैं। राजसी पुरुष कद्पि त्ह्मचारी नहीं हो सकता |

तामसी आहर/--तामसी आहार में राजसी आहार तो आता ही है; परन्तु उसके अलावा जो वासी रसहीन, गला हुआ, हुर्गन्धित, विपम ( जैसे एक ही साथ तेल के-व घी के पदार्थ खाना घमैरद ) घूरित निन्‍्य होता है, इसको “तामसी आहार” कहते हैं

तामसी आहार से मनुष्य अत्यक्ष रात्ञस चन जाता है। ऐसा

#&8 सादा ताज़ा अत्पाहार [१०३

पुरुष सदा रोगी, ठुःखी, बुद्धिहीन, क्रोपी, लालची, आलसी, द्रिद्री अधर्मी, पापी और अल्पायु बन अन्त में नरक-गामी होता है। (गीवा अ० १७ देखो ) |

अतः जिन्हें त्रह्मचये का पालन कर अपना उद्धार करना है, उन्हें चाहिये कि राजसी वामसी आहार को छोड़कर दैवी तेज वढ़ाने घाला सात्विक अल्पाहर आज ही से झुरू कर दें परन्तु यह ध्यान में रहे कि सात्विक भोजन भी चासी हो जाने पर वामली घन जाता है और अधिक खा लेने से राजसी इतना दी नहीं धरिकि प्राण दरण करने जैसा महान तामसी भी बन जाता है, अत: अव्पाद्यर दी सात्विक आद्वार कहा जा सकता है

“पाज्ञन अच्छी तरद्द से कुचछ कुचछ कर खाना” यहद्द प्रकृति का पक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।इससे मामूली भोजन भी अत्यन्त मिष्ट पुष्ट मालम द्ोता है | पचता भी है मजे में पाखाना भी साफ होता है; भोजन भी कम लगता है और इस प्रकार दैहिक, आशिक तथा देश की दृष्टिसे भी अधिक लाभ होताहै परन्तु जल्दी जल्दी खाने से मल॒ष्य सदा ढुःखी, मलीब, कामी, पेट, अठप्त, शेगी; उदासीन, क्रोधी चिड़चिड़ा और अह्पायु बना रद्दता ह्दै। धद्दजमी और कब्ज़ियत भी इसी से हुआ करती है जलुदी दांत हटने का सी यही कारण है। पशुओं के दांत अन्त तक नहीं दहते, इसका सुख्य कारण “चर्वित चरण” ही है। अतः दाँत से योग्य काम लो; क्योंकि पेट को दाँत नहीं होते दाँत झुछ दिखलाने के लिये नहीं दिये गये हैं यदि मलुष्य अत्येक आस ३०-४० वार अथवा प्रकृति के हिसाव से बत्तीस दाँत के लिये वत्ती वार खूब चवा चबा के खानेगा तो आज वह जितना भोजन करवा है उसके (विदाई)

१०४ ] के त्रद्मचय्ये ही जीवन है

भोजन ही में उसकी पूरी ठृप्ति हो जायगी और भ्रारं/-शंक्ति का भी बहुत कम नाश होगा; भोजन भी वहुत जल्द पचेगा; पाखाना भी 'साफ होगा और इन्द्रिय-दमन की भी शक्ति उसे चहुत जल्द आप्त होगी लेखक का यह स्वयं अनुभव है। इसे कोई भी आजमा सकता है | भोजन बिना अच्छी तरह चवाये जो जल्दी खा लेते हैं, वे जल्दी ही मर जाते हैं| चर्वित चर्चण से भोजन के अत्येक परमाणु से मनुष्य -शाणतत्व को ( जो कि प्राणिमात्र के जीवन का मुख्य आधार है उसको ) ब्रह्म की भावना से विशेष खींच सकता है।अतः “अन्न ब्रह्मेत्युपासीत ।” अन्न में त्ह्म-दष्टि रखो और “अन्न च्ट्टा प्रणम्यादी ।” अन्न को प्रथमतः प्रणाम करके फिर भोजन किया करो योगी लोग ऐसे ही करते हैं और इसी कारण बे थोड़े दी भोजन में तृप्त हो जाते हैं और उनमें त्रह्म-भावना के कारण दैवी सामथ्य प्रगट होता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है अमीरी भोजन करना मानों साज्ञात्‌ साँप पर पेर रखना है. ऐसे लोगों में काम क्रोध का विप बहुत ज्यादा फैला हुआ रहता है इस वात का पता धनी लोगों पर दृष्टि डालने से तत्काल लग जाता है धनी लोगों का यह एक विचित्र खयाल है कि “जो कुछ वीये नष्ट किया जाता है वह हलुआ, पूड़ी, रबड़ी उड़ाने से फिर वापिस मिलता है ।” परन्तु यह उनको बड़ी भारी सूखेता है | जे। भोजन बड़े बड़े पदलवारनों से भी बिना खूब फसरत किये, नहीं पच सकता; घह गरिष्ट भोजन, दिन-रात निठल्ले बैठे हुए और अधिक भोजन से और भोग- विलास के कारण जिनकी आते वेकाम दो गई हैं, उनके कैसे पच सकता है ! “घातुच्षयात्‌ स्चते रक्त मन्दः संजायतेइनछः |” .

&$ सादा ताजा अत्पाहार # [ १०५

थानी धातु के नाश से रक्त कमजोर द्वो जाता है और रक्त कम- जोर दो जाने से अग्नि यानी भूख भी मन्द पड़ जांती है। यहद्द आयु का सिद्धान्त है; अर्थात्‌ पुष्ट और उत्तेजित भोजन से ऐसे लोगों का रहा-सद्दा वीय्य और भी उछल पड़ता है और वे अ्रधिकाधिक वरबाद द्ोते जाते हैं तिस पर भी थे सूखी हड्डी चबाने वाले और अपने ही मुख से निकले हुए रक्त के! ठख सूखी दड्डी दी से निकला हुआ समभने वाले मूर्ख कुत्ते की तरह, अपने पहले ही घीय' के मालयुआ के प्राप्त हुआ समभते हैं। वाद | खूब अकुलमन्दी ! भक्तदास चामन कहते हैं:-- “पालो पत्ती खाँय जो उन्हें, खताबे काम। नित प्रति इलुवा निगलते उनकी जाने राम : --भक्तदाख वामन | श्रत: जिन्हें घीय' की रक्ता करनी है उन्हें चाहिए कि वे मिठाई, खटाई, नमक, मिर्च, मसाला से स्वथा बचे रहें। सदा सस्ता, सादा, स्वच्छ और स्वतप भेजव किया करें। नमक, मिचे, मसाला ये बड़े फामेत्तेजक पदाथे हैं। छाछ मिच तो ब्रह्मचय के लिये पत्यच्ष काल ही है | अत: उच्हे धीरे धीरे फम करके सर्वथां शीघ्र त्याग दे'। अभ्यास से केई भी वात असंसव नहीं है निश्चय होने पर सभी बातें सहल है योगी लोग नमक, मिर्च मसालादि नहीं खाते; अनभ्यास के कारण उन्हें वे अच्छे ही नहीं लगते यदि तुम्दें योगी अथात्‌ सुखी चनना हो, वियोगी अथात्‌ ढुःखी वनना हो, तो तुमको भी उन्हीं की तरह सात्विक अल्पाहार खूब कुचल छुचल के करना होगा

१०६ ] # बद्मचय्य ही जीवन है #

उन्हीं की तरह प्राकृतिक आहार करना होगा | जो चीज़ जिस हालत में पैदा हुई हे उसे वैसे ही खाने से भोजन भी कम लगता है और फ्रायदा भी खूब होता है। परन्तु ज्यों ज्यों उसका रूप धव्‌- लता जाता है, त्यों त्यों वह चीज़ आरोग्य के लिये हानिकार होती जाती है। कच्चे गेहूँ, चना खाना अधिक फ़ायदेमन्द है; क्योंकि इसमें आणशक्ति कूट क्ूट कर भरी रहती है और भोजन भी कम लगता है। परन्तु वचपनही से आंतें दुबल हो जाने के कारण मलुष्य उसे बिना पकाये पचा नहीं सकता अन्न फा पकाने से प्राणशक्ति बहुत नप्ट द्वो जाती हे ओर इसी कारण अधिक भोजन करने पर भी मनुष्य फी तृप्ति नहीं होती और वद्द श्रन्यान्य रोगों से पीड़ित द्वो जाता है। पूड़ी, कचौड़ी भादि तले हुये पदार्थों" की प्राणशक्ति तो और भी जल जांती है। इसलिए जहाँ तक हो भाकृतिक आदर दी फरना सव-घ्रेष्ठ दै * मैदा से भूसीयुक्त आटा श्रेष्ठ, भूसी युक्त आटा से दलिया श्रेष्ठ, दलिया से उबले हुए गेहूँ श्रेष्ठ उबले हुए गेहूँ से कच्चे गेहूँ और जौ श्रेष्ठ कच्चे गेहूँ, चावल, चना इत्यादि से दुग्धाह्यर श्रे.्ठ और दुग्धाह्मर से पके ताजे फल श्रेष्ठ हैं

फलाहारा:-- फैलाहार अत्यन्त आकृतिक और प्राणशक्ति से परिपूर्ण आहार है फछ में सूर्यचेज्ञ और बिजली बहुत ही भरी रहता है इस कारण फलाहारी को सहसा कोई भी रोग नहीं हो सकता | फलाहार से बुद्धि अत्यन्त तीत्र द्वेती है | वीय' की चृद्धि होती है और काम विकार दब जाते हैं हमारे पूवज ऋषि घुनियों का कन्द्घूछफलांदार ही मुख्य आहार था और इसी कारण थे इतने तेजस्वी, चुद्धिमान शान्त, अह्यचारी और दैधीलामथ्य॑

& सादा ताज़ा अत्पाहार के [ १०७

से सम्पन्न थे, जिनके ज्ञान के! देख कर सारी ढुनिया आज भी हैरान दो रदी है ! हम उन्हीं की सन्‍्तान आज वेवकूफ बन बैठे हैं| यह सव आकृतिक नियमोल्लद्न से प्राप्त निर्वीयंता का ही दुष्ट अनिष्ट ग्रभाव है। अतः जिन्हें अपने 'पूर्वज़ों की तरह पुनः सदाचारी, त्रह्मचारी, बुद्धिमान और सामथ्यंसंपन्न होनां है; उन्हें चाहिये कि जहाँ तक हो “आकृतिक आद्यार” करें। भोजन सदा ताजा, स्वच्छ सस्ता, हलका, सादा और अरुप ही किया करें। अत्येक गूस को खूब चवा चवा कर खायें; नमक, मिर्च मसाला, मिठाई, खटाई से हमेशा दूर रहें और सदा ऊँचे पवित्र विचार करें फिर देखो तुम्हारे शरीर चेहरे पर कया ही रौनक आती है और तुम्हारी आत्मा कैसी तेजस्वी वलिछ होती है

'गचिकित्सा--(07070078779) से यह सिद्ध हुआ है कि शीशियों के 'वनावटी' रंग से सूर्यकिरणद्वारा पानी पर -जे अद्भुत परिणाम होता है उससे असंख्य रोग नष्ट हो जाते हैं; तव फिर. पल्ञों के.'कुदरती? रंग हारा भीतर रस पर सूर्य्रकाश और विजली का असर पड़नेसे वे फल अम्तसंजीवनी ठुल्य वनते हों तो इसमें आश्चय.ही कया है! फला-हार के बारे में जितना वर्णन किया

(+.

जाय उतना ही थोड़ा है। फलाहवार भी दे प्रकार का होता हैः-- फल में--अंजीर, अंगूर; संतरा, पपीता, अमरूद, आम, नासपाती, सेव, वेल, शरीफा, मीठा खट्टा दोनों नींबू/ ये सस्ते अच्छे फल होते हैं | मेथा में . किशमिश, वादाम, पिस्ता, अखरोट काजू, गिरी, सुनक्का, वेल-बीज, छोहारा, सूखें अंजीर, ये अच्छे होते हैं

4१०८ ] & ब्रक्मचय्ये ही जीवन है #

. परदेश से स्देश की ही चीज श्रेठ्ठ और लाभकारी है। अतः फल की जगह आह , कन्द, ककड़ी, पक्का कोहड़ा ओर शाक भाजी भी काम में लाई जा सकती है .

श्री लक्ष्मणजी ने चौदह वर्ष प्येन्त फलाहार ही किया था। इसी कारण.वे हलुमानजी को तरह अखरड त्रह्मचारी रह सके ओर उनका सामथ्ये और तेज श्री रामचन्द्रजी से;भी अधिक बढ़ गया था अस्तु; जिन्हें फलाहार शुरू करना हो; वें धीरे धीरे शुरू करें | प्रथम कुछ दिन तक नमक, मिचे, मसाला से रहित भाजन का अभ्यास करें; फिर एक सरतवे सादा अरप भोजन तथा दूसरे मरतवे अल्प फलाहार करें; कुछ दिन के वाद फिर शुद्ध फलाहार करने लग जाये; एक दम कोई काम करने से लाभ के बदले हानि ही होती है, यह बात हमेशा ध्यान में रक्‍्खो

डुग्धाद्वार:--हुग्घाहर फलाहार से घटिया परन्तु अन्नाहार

से बढ़िया: आहार है। दूध घर का और तिस पर भी काली गो का श्रेष्ठ दोता है। काली गौ को “कपिला” या “कामघेलु” कद्दते हैं। गौ का हो तो काली मैंस का दूध लेना चाहिए | दूध वाली गाय वा मैंस वा बकरी निरोग शुद्ध पदार्थ खाने वाली होनी चाहिए | अन्यथा रोगी वा अशुद्ध पदार्थ खाने वाली गाय भैंस बकरी का दूध पीने से मनुष्य के भी वे रोग बिना हुये कभी नहीं रहेंगे, यह वात स्मरण रहे बाजारू दूध पीने से मनुष्य बहुत जरूद रोगी बनता है; क्‍योंकि उसमें रास्ते की धूल और गन्दी हवा . में के असंख्य जहरीले कीड़े पड़ जाते हैं। यही दाल मिठाई का भी होता है रोज्‌ हलवाई एक अंजुली भरी हुई बरें, मक्खियाँ,

& सादा ताजा अल्पाहार के [१०९.

चूँटे, दूध, ओर मिठाई इत्यादि में से प्रात:छाल निकाल के फेंकता

और उसी को ओटा कर लोगों को पूरे दाम पर मजे में वेचता है। अतः वाजारू कोई भी वनी-चनाई चीज विशेषतः पतली चीज तो कदापि खानी चाहिये। हलवाई वगेरों का गन्दापन तो मशहूर ही होता है। उनकी पोशाक देख कर ही जी मंचलने लगता है। मलत्रा ऐसे गन्दे लोगों के हाथ के, गन्दे प्रकार से वने हुए, पदार्थ खा पी कर कौन आरोग्यसस्पन्न दीघोयु हो सकता है। होटल तो मानों मनुष्य के आयुआरोग्य को 'अच्छे ढंग' जलाने बाले मूति सन्त स्मशान ही हैं

धारोष्ण (तुरन्त का ढुह्ा हुआ ) और छुना हुआ दूध सर्वोत्तृष्ट होता है दूध बिना कपड़छान किये कभी पीयोा |: गरम करने से दूध की श्राणशक्ति बहुत नष्ट होती है। अतः दूध ताज़ा ही पीना अच्छा है। धारोष्ण दूध से वीय्य बहुत ज्यादा तथा तत्काल बढ़ता है और मन भी शान्त असन्न रहता है। फल में दध से अधिक वीर्या उत्पन्न करने की शक्ति ह्ोवी है। ढुहने के आधा घरटा वाद दूध में विकार उत्पन्न होते हैं| अतः ऐसा ठरडा दूध फिर उवाल कर ही पीना चाहिये। गरम दूध पीने से पेट और भी साफ़ होता है। दूध ठंढी आँच पर गरम करना बहुत ही लाभदायक है। दूध धीरे-धीरे जेसा बच्चा माता का दूध पीता है वैसा पीना चाहिए। इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा पीने से एक 'पाव-मर दूध सेर भर दध पीने के वरावर होता है। और गटर-गटर पीने से एक सेर दूध भी पाव भर की वरावरी नहीं कर सकता। क्योंकि दूध जल्दी पी लेने से उसका एकदम दही वन कर वह पेट के भीतर ही भीतर फट जाता है--ख़राव हो जाता है। परल्तु

११० ] 8 अद्यचय्ये ही जीवन है $

3... अर जिननत मन मरकत ७७ तपत> जनम 33७93 नकल कमी नीली न्‍न्‍नीसी २"

थोड़ा-धोड़ा पीने से--सझुख में थोड़ी देर रख कर फिर पेट में उतारने से उसका सब सार खींचा जाता है और छुछ भी बेकार नहीं जाता है कोई भी चीज़ जल्दी से खाना, मानों रोगी वन कर जल्‍दी ही मरने की तैयारी करना है। अतश्व सावधान !

मांसाहार:--सांसाद्वार सब से अधम और राक्षसी आहार है भांसाहारी लोग घहुत विकारी होते हूँ क्योंकि मांस उनका आहार है ही नहीं। मांस जद्गली दुष्ट पशुओं का तथा निद्याचरों का आहार हैं। गाय, घोड़ा, बैल, वन्दर मांस को छू तक नहीं सकते | पर वाह रे मनुष्य ! जंगली नीच जानवरों से भी नीच हो गया है| मांसाहारी पुरुष सदा चंचल क्रोघी कामी घना रहता है और इस बात का पता शेर, तेन्दुआ, चीता इत्यादि मांसाहारी पशुओं की तरक देखने से फ़ौरन लग जाता है वे पशु पिशड़े में हर वक्त इंधर- उधर चण्पर लगाया करते -हैं। और लोगों की तरफ चंचल ऋएर दृष्टि से देखा करते हैं। परन्तु वही शाकाहारी गाय से लेकर हाथी तक को देखिये कितने शान्त और निर्विकारी होते हैं मांसा- हारी पुरुष का अक्मचारी होना मुश्किल तो है ही, परन्तु असम्भव भी है। अपवाद ( €:2000॥/०॥ ) को लेना मूखेता है। अतः जिन्हें उक्षचारी और सदाचारी वनना हो, उन्हें चाहिये कि वे मांसाहार को सर्वेथा एकद्म त्याग दें

सश्या आद्यर:--पहले यह कह आये हैं कि भोजन और बुद्धि का परस्पर वढ़ा ही घनिष्ट संवन्ध है। सात्विक आहार से बुद्धि भी नित्सन्देह सात्विक ही वन जाती है। पर हाँ, भोजन के समय उच्च, पविश्न शान्त और त्रह्मचये-विषयक विचार अवश्य ही करने चाहिये। क्‍योंकि उच्च और निर्मल विचार ही आत्मा का

के सादा ताज़ा अल्पांहार #$ [१११

सच्चा आहार है।. यदि सात्विक आहयर के साथ में सात्विक विचार ,किये जाय, दुष्ट और अधर्मी बिचार रक्‍्खें जाय तो भोजनका वह सात्विक परिवर्तन सर्वथा व्यर्थ ही सममाना चाहिये। भोजन के समय जैसे विचार होते हैं महुष्य ठीक बैसा ही “आप से आप” बन जाता है, ऐसा महापुरुषों का स्वानुभवपूर्ण सिद्धान्त है; क्योंकि भोजन के रस हारा वे विचार मलुष्य के नस-मस में प्रवेश कर सम्पूर्ण शरीर में फैल जाते हैं | स्थूल भोजन से विचार का सूक्ष्म भोजन कई गुना श्रेष्ठ और प्रभावश्ञाली छोता है, यह आध्यात्मिक सिद्धान्त है। अतणव भोजन के समय पतव्िन्न, उच्च, निर्मय, शान्त .और ईश्वरीय भाव के विचार से अवश्य रखने चाहिए | नीच विचार से नीच, ओर उच्च बिचार से तुम अवश्य ही उच्च बच जाओगे पापी विचार से पापी, व्यभिचारी विचार से व्यसिचारी और पुएयसयी तथा त्रद्मचारी विचार से तुम निस्सन्देह पुणय वाल ओर ब्रह्मचरी वन जाओगे यदि तुम्हें काम को और भय को हटाना है, ता हनुमान जी का ध्यान करो और उनके ही जैसे हमेशा--विशेषतः भोजन के समय खास त्तार पर--“पर-ल्री मात - समान” ऐसे पवित्र विचार करो। आलस्य और मलीनता को हटाने के लिये स्वकत्तेव्यपरायण श्रीलक्ष्मणजी जैसे पवित्र विचार करो; क्रोध को हटाना दे। तो बुद्धजी जेसे शान्त, श्री, क्षमाशील दयाछ विचार करो छोटे दिल को हटाने के लिये कणे और वलि की उदारता का चिन्तन करो | दरिद्वता को हटाने के लिये राजा के तुल्य श्रीमान्‌ विचार करे और व्यप्नता छोड़ शान्त चित्त से उस स्वन्यापी लक्ष्मीपति भगवान्‌ का ध्यान करो, जिसकी लक्ष्मी पैर दूचाती ओर सेचा करती है। छक््मीपति का ध्यान करने

११२ ] # ऋद्यचर्य्य ही जीवन है

से तुम भी लष्मीपति अधश्य बन जाओगे अर्थात्‌ घन आप से भाप तुम्दारे चरणों फी सेवा फरेंगा; फ्योंकि “घ्याने ध्याने. तद्गुपता” ऐसा दी प्रति फा सिद्धान्त है। अ्रतः जैसे जैसे तुम अपने को घनाना चाद्वते हो, घैसे द्वी अथवा जिस डुगु को या आदत के आप दृटाना चाहते दोे,उसके ठीक ठीफ विरुद्ध विचार श्रद्धा, और शान्ति के साथ करा | निस्सन्देद्द तुम चैसे ही बन जाओगे | याद्‌ रवखो, जैसे आपकी भरद्धा और शान्ति धोगा वैसे ही आपको कम ज्यादा और जल्दी देरी में फल मिलेगा फ्योंकि श्रद्धा और शान्ति दी संपूर्ण सौभाग्य और ईश्वरत्व फी कु जी है और भगधान भ्रीकृष्ण फा भी यद्दी सिद्धान्त* है।

मनुष्य के जैसे विचार होते हैं बैसा ही वातावरण 8708]- ॥87० उसके बाहर-भीतर चहुँओर निर्माण होता है. और फिर “बाग्य॑ योग्येन यु ज्यते ।” अथवा 79]:26 &607%०४8 ॥26 यानी समान समान की ओर खिंचता है इस न्याय से फिर वैसे ही विचार के पुरुष हमारे निकट खिंच आते हैं, अथवा हम उनके निकट खिंच जाते हैं, और हमारे विचारानुकूछ ही अनेक शुभाशुभ घटंनायें निमोण होती हैं, जिनसे कि हमारा अभी या अनिष्ठ आपसे आप सिद्ध देता है। आज जिस स्थिति में हम लोग हैं उस स्थिति के निर्माता खुद हम दी हैं और आहार, विचार आचार के. प्रभाव से हम इस स्थिति के वाहर भी निकल सकते हैं और जैसी चाहें. बैसी उन्नति कर सकते हैं। इसी स्थिति में पड़े रहने के लिये मनुष्य का जीवन नहीं है वस्तुतः परमपद्‌ प्राप्त करना ही

कश्रट्ठाइमयों य॑ं पुरुषों ये। यच्छुु; एव छः गीता १७---३

& सादा ताज़ा अल्पाहार के [११३

जीव मात्र का जीवनोददेश्य है उसी दिव्य स्थिति को हम लोगों को पहुंचना है और यह वांत मनुष्य एक मात्र अपने शुद्ध, ऊँचे सातलिक आहार, विचार और आचार द्वारा ही आप्त कर सकता है। महापुरुप अपने महान विचारों के द्वारा ही महान द्वते हैं ओर नीच पुरुष अपने नीच विचारों के कारण ही नीच होते हैं अतएव सदैव पवित्र और ऊँचे विचार करना और श्रद्धा शान्तिपूवेक अपने को उन्नति की ओर बढाना ग्राणिमात्र का प्रधान कतेव्य है ओर यह काम नित्य भोजन के समय वैसे ही श्रेष्ठ पवित्र विचार रखने से वड़ी आसानी से बहुत जल्द सिद्धहेता है।

भोजन के शास्त्रीय नियम

(१) केवल दे ही समय भोजन करना चाहिये; पहला भाजन १० से लेकर १२ वजे के भीतर ओर दूसरा शाम को बजे के भीतर; देर में करने से स्वप्न दोप दाता है। (२) दिन भर में एकसरतबवे भाजन करना सर्वोत्कृष्ट है--/एक मुक्त सदा रोग मुक्त (३) रात में बजे के भीतर थोड़ा सा वाज़ा ठंडा दूध बिल- कुल थोड़ी सी चीनी डालकर धीरे धीरे पी लेना चाहिये। रात में गरम दूध पीने से स्वप्नदाप हता है (४) बहुत गरम गरम भेजन कदापि करना चाहिये | उससे बीय पतला पड़ जाता है और

' कामात्तेजना हे।ती है। गएम भोजन से और चाय से दाँत जल्दी टूट जाते हैं, आँतें दुबचेल पड़ती हैं, कव्जियत बढ़ती है, और आँख की ज्योति मन्द्‌ पड़ जाती है। (५ ) भेजन हमेशा ताज़ा और सादा रहे | भेज़न अनेक प्रकार का और वासी होने से अनेक .विकार फ्लोरन बढ़ जाते हैं बासी भेजन से बुद्धि, आयु और तेज तत्काल

११४ ] 89 ब्रह्मचय्ये ही जीवन है $8

नष्ट है, आलस छाती पर जबरदस्ती सवार होता है और मलुष्य को पाप कस में प्रवृत्त करता है (६) कभी हलक तक ठूस दस खाओ; उससे बरबाद है| जाओगे | (७) थकने पर तत्काल भेजन करना चाहिये) ( ) भोजन के वाद शारीरिक मान- सिक परिश्रम एक घण्टा तक कदापि करना चाहिये। एक घरटा “--कम से कम आध घरटा तक आराम करो, नहीं तो रोगग्रस्त बन जहदों ही मरना पड़ेगा (९) भोजन के सम्रय सदा शान्त, पवित्र ऊँचे विचार रक्खे चिड्चिड्रापन से अन्न हज़म नहीं होता क्रोध से अन्न ज़हर घन जाता है; अतः भोजलन-के समय हमेशा शांत रहे| शान्ति के हेतु मौन धारण करे। ( १० ) नमक मिचे, मसाला, पूड़ी, कचौड़ी, मिठाई, खटाई, मद्य, मांस, चाय, काफी वगैरह सवा त्याग दो; क्‍योंकि इनसे मन इन्द्रियां अत्यन्त चंचल बन जाती हैं| ऐसा पुरुष वीये को नहीं राक सकता। (११ ) भेजन के समय पानी पीना चाहिये; क्‍योंकि वैसा करना प्रकृति के खिलाफ़ है। भेजन के एक घर्टा बाद पाती पीना अच्छा है (१२) भोजन के पहले द्ाथ, पैर और मुँह को पानी से पूरे तौर से स्वच्छ धो डाला और नाखून साफ रखे; क्योंकि उनमें जहर : होता है ( १३) भेजन नियमित समय पर किया करो और फिर बीच सें कुछ भी खाओ ( १४ ) राह चलते, खड़े रहते लेटे हुए भेजन करना सर्वेथा अनुचित है। ( १५) प्रातः काल जल पान अथोत्‌ कलेवा करना अच्छा नहीं है। ( १६) भेजन की जगह पवित्र श्रकाशमय हे।नी चाहिये।.गन्दगी से जिन्दगी जल्दी घरबाद होती है, इस बात को सदा सर्वदा ध्यान में रक्खो। ( १७ ) सेजन के बाद्‌ “जत्तपद” अथोत्‌ सो कदम इधर-उधर टहलना

# सादा ताज़ा अत्पाहार #े [११५ 3 882 कक अन शर कक पक रन हल टप

चाहिये भाजनोत्तर तुरन्त आराम-ऊर्सी पर पड़े, तो उससे बहुत हानि होती है; और दोड़ने से श्राण का नाश होता है

जल सम्बन्धी शाजीय नियम

. (३) पानी खच्छ निर्गन्‍्ध, जिस पर सूर्च्य का अकाश पढ़ता हो ऐसा ताजा, ठन्‍्डा चहता हुआ अथवा गाँव के बाहर के कुएँ का होना चाहिये क्‍योंकि ताजे जल में बहुत आणशक्ति भरी रहती है। जल को संस्कृत में 'जीवन' कहते हैं; सचगुच जल ही जीवन का मुख्य आधार है। भोजन से भी जल का महत्व अधिक है। (२ ) दिन भर सें कम से कम तीन सेर पानी पीना चाहिये; क्योंकि उतना ही शरीर से पेशाव, पसीना और साप के रूप में खर्च होता है। ऋतु काल के अनुसार पानी की मात्रा कम ज्यादा भी करना उचित है कृष्ज्ञ की बीमारी अक्सर कम पानी पीने दी से हुआ करती है | यदि कृष्ज़ वाले यथेष्ट पानी पीमे लग जाँय तो उनकी यह बीमारी चहुत जरूद दूर हो सकती है। तथापि अति पानी पीना भी रोग-कऋर है--“अति सर्वत्र दर्जयेत्‌ ”। (३) पानी छानकर ही पीना चाहिये ओर छानने का कपड़ा हर वक्त साफ़ कर लेना चाहिये क्‍योंकि उससें सूक्ष्म जल जन्तु रहते हैं। विशेषतः हैज्ा बग्नेरह रोगों फे दिनों में ओर दूषित स्थानों में, पानी हमेशा अच्छी तरह उबाल कर और छान कर ही पीना चाहिये, अन्यथा आलस्य के कारण मुप्तत में रोगी बन के अकाल में मरना पड़ेगा। रोगी होने का कारण विशेषतः दूषित जल ही होता है अतएव सावधान !

[3

(४) जल थोड़ा थोड़ा दूध की तरह पीना चाहिये पीते वक्त नीचे

११६ | # बअह्मचय्ये ही जीवन है.

ऊपर के दाँव संलम करने से पानी में भी प्राणशक्ति पूरी .तरह से खींची जा सकती है; पानी भी थोड़ा थोड़ा पीने में आता है और दाँत भी मज़बूत हो जाते हैं; तथा पानी में का कूड़ा करकट भी पेट में नहीं जाने पाता | एक मनुष्य के पेट में, दांत संलग्न करने के कारण एक साँप का वद्चाःतक चला गया था फिर मेंस के मट्ठा से (उसमें मोहरी मिलाकर और, पिला करके) के करायी गई तव वह निकला अतः सावधान रहो | (५) प्यास को कभी रोकना चाहिये; क्योंकि उससे जीवनशक्ति का भयंकर रूप से नाश होता है ओर मनुष्य अल्पायु वनता है (६) प्यास की ठप्ति पानी ही से करो कि सोडा-लेमन और घरफ़न्‍दवराव से | याद्‌ रक्सो, प्रकृति के विरुद्ध चलने से कोई सात जन्म में भी सुखी नहीं हो सकता (७) भोजन के समय घिलकुल पानी पीना चाहिये क्योंकि पैसा करना प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है। कोई भी बुद्धिमान पुरुष हमें चींटी से छेकर हाथी तक ऐसा कोई भी प्राणी वतला दे, जो कि भोजन के समय पानी पीता हो | भोजन के साथ पानी .पीने से वहुत लाभ है हाज़मा दुरुस्त होता है; शोच साफ़ होता है; वढ़ा हुआ पेट घटता है; गले की जलन नष्ट होती है और भोजन भी कम लगता है अर्थात्‌ पेट्पन के छूटने से हम अनेक रोगों से भी अनायास छूट जाते हैं (८) भोजन के आधा या पाव घंटा पहिले एक गिलास पानी पी लेने से भोजन के समय तुम्हें प्यास नहीं सतावेगी | उससे पेटू्पन का भी नाश होता है और खोटी भूख नष्ट होकर सच्ची लगने लगती है | भोजन के साथ पानी पीने का अभ्यास जाड़े के दिनों से सुखपूवंक शुरू किया जा सकता है। (९) शुष्क यानी जिस भोजन में बिल्कुल पानी नहीं होता ऐसा

4 सादा ताज़ा अत्पाहार ४3 [ ११७

'रूखा-सूखा भोजन करने के बाद तुरन्त पानी पीना भी प्राकृतिक नियम के अलुकूल है। (१०) एकदम सेर डेढ्न्सेर पानी पीना हानिकारक है; उससे 'बहु-मूत्रता' का रोग होता है। प्यास मालूम -हो तब २-३ गिलास पानी थोड़ा थोड़ा करके सावकाश पूर्वक पीना उचित है (११) खड़े खड़े, या लेे हुये पानी कदापि पीना चाहिये, यह कमज़ोर रोगियों का काम है। (१२) रात्रि में सोने के आधा घण्टे-पहले ठण्डा जल अवश्य पी लेना चाहिये; ढेर सा नहीं * और पेशाब करके सेना चाहिये | इससे चित्त चोला दोनों शान्त रहते हैं और स्वप्रदोष भी रुक जाता है; तथा दूसरे दिन मल त्यागने में - भी सुमीता होता है (१३) प्रातःकाल उठते ह्वी सूर्योदय से पहले स्वच्छ वांबे के लोटे में रात भर रक्खा हुआ जल पीने से 'रागी भी निरोग और विष भी निविष हो जाता है। मन असन्न 'होता है पेट्पन का नाश होता है और आयु बढ़ती है। पानी पीकर ज़रा छेट कर पेट को नाभी के चारों ओर दवाने से (रगड़ने से) पाखाना बहुत साक्त होता है। प्रातःकाल का यह जल अमृत के तुल्य होता है ।.यदि नाक से पिया जाय तो नेत्र के .समस्त विकार दूर हो जाते हैं; दृष्टि.अत्यंत' तेजस्वी वनती है; बुद्धि तीज: होती है; नासारोग दुरुस्त होते हैं; छुढ़ापा जल्दी नहीं आता; वाल बहुत जे ०0 पु उम्र तक काले बने रहते हैं; और संपूर्ण रोग ढुरुस्त हो जाते है। क्योंकि तांबे में ऐसे ही कुछ चमत्कारिक गुण भरे हुये हैं। इसी कारण हमारे पूर्वजों ने देव पूजा में स्वन्न तांबे के ही पात्रों का विशेषतः विधान लिखा है ! धन्य हैं. उनके उपकार ! (१४) यदि किसी को कव्ज़ की शिकायत वहुत दिनों की हो तो सुबह एक-दो गिलास मामूली गरम पानी में एक चम्मच भर खाने का नमक

११८ ] # अ्रह्मचय्ये ही जीवन है $ '

'९३९-२९-०९:०९७०

डालंकर उसे पी ले | फिर चित लेट जाओ और नाभी के चारों तरफ़ से पेट को रगड़े देखे आठ दिन ही में पाखाना साफ होने लगेगा; ववासीर की वीमारी कम हो जायगीं; जठर रोग, कर्ण रोग, सिर दर्द गला और छाती के रोग, नेत्र रोग, कोंढ़, कमर का ददे, सूजन आदि असंख्य विकार शनेः शनेः नट्ट हो जायेंगे। अवश्य अनुभव कीजिये परन्तु यह उपाय भी अप्राकृतिक है; फिर इसे छोड़ देना चाहिये | (१५) एनिमा का उपाय भी कब्जियत के लिये सर्वोत्कष्ट होने पर भी अग्राकृतिक है अतः एनिमा की' आदत लगाओ एनिसा का उपयाग कभी कभी कचित्‌ किया करेो--एनिमा का रोज़ उपयोग करने से आते सदा के लिये कमजोर वन जाती हैं | अतएव सावधान ! (१६) जल पीते वक्त ४इस जल से मुम्त में सुख, शान्ति, आरोग्य, ब्रह्मचय्य , तेज इल्ादि प्रवेश कर रहे हैं ओर में पूर्ण आरोग्य हो रहा हूँ ।” इस प्रकार के संकल्प व्‌ आत्म-कथन अवश्य किया करो | क्योंकि जैसे तुम जल पीते ( अथवा सभी समय ) संकटप करोगे ठीक वैसे ही भाव

रहारे रोम रोम में घुल जायगें और तुम निःसन्‍्देह वैसे दी घन जाधोगे, ऐसा हम प्रतिज्ञा-पूर्वक कद्द सकते है

४8 निन्‍्यंसनता घी [ ११९

“तलिव्येसनता' नियम आठवाँ:- ०, 2,

वक्तव्य:--संपूरं दुव्येसनों की माता वीड़ी या सिगरेट है। इसी से गाँजा से लेकर संखिया तक का शौक़ बढ़ जाता है। यह 'नितांन्त सत्य है कि दुत्यंसनी पुरुष कदापि अह्मचारी नहीं ही सकता। अमेरिकन डाकटरों का कथन है, “तस्वाकू के सेवन से चीये फौरन उत्तेजित होकर पतला पड़ता है, पुरुषत्व शक्ति क्षीण होती है; पित्त बिगड़ जाता है, नेत्र-ज्योति मन्‍्द होती है, मस्तिष्क छाती कमज़ोर होती हैं, खाँसी ( जा कि सब रोगों का जड़ है ), दमा और कफ्‌ बढ़ते हैं | आलस्थ, काये में अनिच्छा, हृदय की धकधकाहट, व्यर्थ चिन्ता अनिद्रा बढ़ती है, सुख से महाद्‌ हुर्ग- निधि आती है, शारीरिक, मानसिक, आधिक सामाजिक भयंकर हावि होती है।” शुद्ध हवा को जहरीली वना कर अपने साथ हो साथ लोगों का भी स्वास्थ्य बिगाड़ना घार पाप है। मेढ़क, पक्षी, वर, सक्खियों और अन्य असंख्य कीड़े तम्बाकू की लपट मात्र दी से वेकाम हाकर मर जाते हैं; तब फिर स्वयम्‌ पीनेबाला अकाल ही में क्‍यों नहीं मरेगा ? तम्बाकू सें “निकोटिन” नामक भयंकर विष होता है, जे कि शरीर के स्वास्थ और सद्भावों को मार डालता है। कई लोग इसे पाखाना साफ होने की दवा समम बैठे हैं; परन्तु नतीजा उलटा ही होता है। आँतें और भी दु्बेल दवा जाती हैं। फिर उन्हें बिना वीड़ी, चाय वगैरह पिये पाखाना दाता ही नहीं देखे, यह कैसी गुलामी है. ? शोक ! यदि पीछे दिये हुए अनुसार नमक पानी का उपयोग किया जाय ते वहुत जल्द निरोग हे। सकते

१२० ] # ब्रह्मचय्य ही जीवन है के

हैं। परन्तु ऐसे लोग कैसे मानेंगे? ज्ञयी वन कर उन्हें जल्दी भरना है ?

जापान में यदि वीस वरस का वालक चुरुट;- सिगरेट, वीड़ी था तम्बाकू पीते देखा जाय तो फौरन उसके माता पिता पर जुमाना होता है। हे प्रभे ! ऐसा सामाजिक अवन्ध भारत में कब द्वोगा ! और हम भी अपने भाई जापानियों की तरद्द शूर, वीर, साहसी, उद्योगी और त्रह्मचारी कब बनेंगे

है प्रभो आनन्द्दाता ब्लवान हमको दीजिये शीघ्र सारे दुग णों के दूर हमले कीजिये॥ लीजिये दमके शरण में हम सदाचारी बने प्रह्मचारी, धर्मरक्तक, वीर-अतधारी बने

“दो बार मलममूत्रत्याग” नियम नवाँ:--

बक्तव्य:--शौच के दो मरतवे जाने की आदत डालो | यदि दूसरी वार दिशा मातम हो तव भी जाओ। कुछ दिन के वाद आप से आप दिशा होने लगेगा अनेक रोगों की जड़ मलवद्धता ही है। और मल वद्धता का एक मात्र असली कारण वीर्य का नाश ही है। “धातु- ज्षतात्‌ श्रुतेरकते मन्‍दः संजायतेडनलः ।” 'वीयैनाश से रक्त कमज़ोर, निकम्सा और नष्ट होकर अनल अर्थात्‌ जठराप्मि मन्‍्द पड़ जाती है। आँतों. के ढुनेल होने पर फिर पाखाना. भी साफ़ नहीं. होता है।

हि

कदों बार सल-मूत्र-त्याग # [१२१

चाय, तम्वाक्ू पीने से और वार वार जुलाव, एनीमा वगैरह लेने से तो आते और भी छुचेल वन जाती हैं। पाखाना हो, चाहे हो, परन्तु भोजन अवश्य करना होगा ! चढ़ा देते हैं मात्रा पर मात्रा ! नतीजा यह होता है कि अन्न भीतर ही भीतर सद्ठ कर अत्यन्त बदवूदार और जहरीला वन जाता है। वाहर निकलने पर जिस मैले से नाक फठी जाती है, ऐसा जहर पेट में रहने पर हम केसे सुखी और दीघेजीवी हो सकते हैं ? दिशा को रोकने से तो और भी सभूर्खता कर बैठते हैं; उससे भीतर का “अपानवायु” विगड़ कर मैले को ऊपर की ओर. चढ़ा देता है; जिससे कि वह खराब मैला फिर से पचने लगता द्वै। भला वताइये अब स्वास्थ्य की आशा कहाँ है? अपान-बायु को रोकने से भी यही नतीजा दोता है। हम कहते हैं, पहले ऐसा द्ँस दस के खाना ही क्यों, जिससे कि दिन भर डकार और खराव वायु छोड़ना पढ़े | अन्न को चवा चवा के खाने से तो और भी मूर्खता कर बैठते हैं पहले ही तो आँतें दुर्वल और उसमें श्वान की तरह महपट भोजन ! कैसे स्वास्थ्य रह सकता है? शरीर सुस्त पड़ जाता है; दिमाग में गर्मी छा जाती है, नेत्र विगड़ जाते हैं, रचि नष्ट हो जाती है; भूख नहीं लगती, वल, तेज; उत्साह सभी घट जाते हैं, सदा रोगीसरत बनी रहती है और आयु वड़ी तेजी से घटती जाती है इस वछा से बचने का एक मात्र यही उपाय है कि हम फिर से प्रकृति के नियमानुसार चले रोगी पुरुष कद्मपि ब्ह्मचारी नहीं हो सकता | श्वान की तरह डतावली से सोजन करना ओर मल-मुत्र के रोकना मानों प्रत्यक्ष कांछ के मुख में दी जाना दे मैले की गर्मी के कारण भीतर की सव.इन्द्रियाँ क्ष त्घ हो जाती हैँ

श्र२] #& ब्रह्मचय्ये ही जीवन है के

और इन्द्रियाँ ज्ञ व्ध होने पर फिर मनुष्य रोगी होने पर भी बड़ा कामी वन जाता है | मलू-मूच के औरपघायु के किसी काम में फंस फर अथवा भोहवश वा लज्ा के फारण,जाड़े फे डर से किसी फारण रोकना मानों अपने स्वास्थ्य पर कुल्दाड़ी मारना है | ऐसा करना ब्रह्मचर्य के लिये महान द्वानिकर हैं अत: त्रह्मचये और स्वास्थ्य-रक्षा के लिये सुबह-शाम दो मरतवे “नियमित समय पर” मर सूत्र का त्याग करना परम आवश्यक है शाम को दिशा दो आने से छुबद का पाखाना बड़ा साफू होता है। मछ फे निकल जाने पर तन और मनदे।नों निर्मल दवते है। दिशा के समय हरगिज्‌ काँखो मत; उससे वीये बाहर निकल पड़ने की विशेष संभावना है और चहुमूत्रता का रोग द्वोता है। कब्ज की वीमारी अधिक होतो पानी का यथेष्ट उपयोग करो | एक-दो आँवला खाकर पानी पी लो, पेट के रगड़ो और आऑँवों को “मल त्याग करने की” सोते वक्त आज्ञा दे रक्खों; सब काम दुरुस्त हो जायगा इन सव का स्वयं अनुभव करके देखिये

“इब्दिय-स्नान

नियम दशवाँ:--

वक्तत्य-जननेन्द्रिय को विना कारण कदापि हाथ लगाओ

और उसकी ओर देखो भी,' क्योंकि अशुचिस्थान का स्पश और चिन्ता करने से काम-रिपु कभी जागृत नहीं हो सकता भाव

.. सदैव ऊँचे पवित्र रकखों | शौच के समय इन्द्रिय को स्वच्छता

& इन्द्रिय-स्नान # (१२३ '

से घे डाला | मणि पर ठण्डे जल की धार छोड़ो | देखो, इस वात का कभी भूलो जननेन्द्रिय में शरीर की तमाम चसें इकट्टी ,हुई हैं। सानों सब शरीर का वह केन्द्र मध्य है; ओर है भी वैसा ही। पेड़ की जड़ के पानी देने से जैसे सम्पूर्ण पेड़ हरा-सरा और चैतन्यमय वन जाता है, चैसे ही तमाम नसों की जड़ को इन्द्रिय को, ठण्ढे पानी की घार से ठण्डा करने से सम्पूर्ण शरीर भी ठण्डा और शान्त हो जाता है। मन की चंचलता नष्ट होती है ओर स्वप्नदोप भी नहीं होने पाता। दिशा, पेशाव के समय में इस अत्यन्त उपकारी क्रिया को ( इन्द्रिय- स्नान को ) कभी भूला, क्‍योंकि यह त्रह्मचय रक्षा का परम गुप्त रहस्य है हमारे शास्त्रों में ऋषि लोगों ने पेशाव के समय पानी साथ ले जाने की जे आज्ञा दी है, उसमें हमारे कल्याण के अति उच्च हेतु भरे हुए हैं| अहह धन्य है ! परन्तुःआजकल के मुट्ठी भर ज्ञान के अधूड़े लोग इस बात पर हँसते हैं; परन्तु वही क्रिया छुई कुहनी जैसे किसी पश्चिमीय विद्वान्‌ ने यदि 'सिद्ज-वाथ' के रूप में रख दी ते लोग झट उस क्रिया पर टूट पड़ते हैं और उसकी तारीफ़ करने लगते हैं अमे हम अपने देश का तथा देश के महापुरुषों का आदर करना कब सीखेंगे ? हमके विदेशियों,की वात पर विश्वास है, किन्ठु पूर्वजों की वैज्ञानिक वातों पर विश्वास नहीं शाक ! जिसके निज्ञ गौरव तथा, निज देश का अभिमान है। ' घह नर नहीं, नर पश्च नर है, और मर्ुतक समान है १॥ अस्तु

१२४ ] & बह्मचय्य ही जीवन है के

पेशाव के समय गिलास या लेटा में पानी अवश्य ले जाया करे बहुत ही उपकार दवागा शर्म से अपना सत्यानाश कर ले | बाहर घूमने जाते समय हर वक्त एक रुमाल.या अंगाबा साथ में खख्ों, ताकि उसे ही पानी में भिगे!कर काम में ला सका। दिशा के समय पानी बढ़े लाटे में ले जाओ | कई सज्जन ते विना लेटा में पानी लिये ही दिशा मैदान जाते हैं ! यह क्‍या सम्यता, ज्ञान और सच्चरित्रता के लक्षण हैं।यह कैसा घोर पशुपन है ! भाइयो, मनुष्य बना ! मलुष्य बना ! दिशा पेशाव के बाद संपूर्ण -हाथ पैर ( अधूड़े नहीं ) ठंडे जल से स्वच्छ थो डालने त्वाहिये, इससे और भी लाभ होता है |

“नियमित व्यायाम” नियम ग्यारहवाँ:-- “प्रायेण भ्रीमतां छोके भोक्त' शक्तिन' ब्विदयते काष्ठान्यपि द्वि जीर्य॑न्ते द्रिद्राणाँं च॒ स्वशः ॥”

-- महाभारत “घी लागां के सुपक्व अन्न भी पचाने की प्राय: शंक्ति नहीं होता; परन्तु ग़रीब लेागों का काष्ठ तक पच जाते हैं”

दे लड़के थे--एक ग़रीब का और - दूसरा धनी का | घनी के लड़के ने ग़रीब से पूछा, “भाई, तू ग़रीव होने पर भी इतना सशक्त

क# नियमित्त व्यायाम के [ १२५

मज़बूत, तेजस्वी और निराग किस प्रकार रहता है?” उसने उत्तर दिया: “भाई ! हमारे यहां दो हल हैं, एक को हम रोज़ खेत में ले जाते हें और दिन भर काम में लाते हैं, इस कारण वह चाँदी की तरह चमकता है और जो घर पर है, वह वेकार रहने के कारण मटमैलठा ओर मारचा लगा पड़ा हुआ है। वस यही फ़रक् मुझ में ओर तुम में है। मैं रोज़ अपने चार मील दूरी पर के खेत तक पैदल जाता हूँ और दिन भर वहां परिश्रम करता हूँ और शाम को घर पैदल दी लौटता हूँ दोनों वक्त मुझे खूब भूख लगती है ओर निद्रा भी बड़े मज़े की आती है, पर में तुमे देखता हूँ, तू स्वयं कुछ भी काम नहीं करता; तेरे नौकर ही तेरा काम किया करते हैं इस कारण तेरे नौकर भी तेरे से कई गुना वलवान, चपल और आरोग्य संपन्न दिखाई देते हैं। बहुत हुआ ते गाड़ी-घोड़े पर धूमने निक- लता है; परिश्रम तेरे घोड़ों को होता है; कि तुक को ! ता भी तू फ़जूल ही हांफने लगता है; परिश्रम के ही कारण तेरे घाड़े इतने तेज़ और बलवान दिखाई देते हैं, परन्तु तू ज्यों का त्यों ढुर्वेल व' रोगी वना है। शरीर को सुख भोग में पालना ही सम्पूर्ण शारीरिक तथा मानसिक पतन का मुख्य कारण है। समझा ९”

तालाव का पानी स्थिर होने के कारण गनन्‍्दा वन जाता है, परन्तु नदी वा मरने का जल नित्य वहता रहने के कारण अत्यन्त स्च्छ और कांच की तरह चमकता है। फलतः उद्योग ही जीवन है और आलस्य ही मत्यु है।

परिश्रम और कसरत में फरक है। परिश्रम से सम्पूर्ण शरीर को व्यायाम और आराम मिलता है और कसरत से व्यायाम और आराम के साथ ही साथ शरीर का अंग-अत्यंग सुडौल बनता है।

१२६]... # ऋद्यचप्वे ही जीवन है #

बगीचे में, खेत में या घर दी पर परिश्रम करने से या राजमंत्री मिस्टर ग्लैडस्टन की तरह कुट्द्ाड़ी लेकर स्वयं अपने हाथ से घर ही परलकड़ी चीरने से मनुष्य बहुत-कुछ निरोग और सुखी वन सकता है; परन्तु भ्त्येक अवयब को गठीला ओर सुन्दर बनाने के लिये ख़ास प्रकार की कसरत ही करनी चाहिये | कसरत को ग्ररीव, धनी सभी कर सकते हैं हमारी मर्जी हो, चाहे हो किन्तु व्यायास हमको अवश्य द्वी करना होगा; करेंगे तो हमें रोगी बनना होगा और अपनी जीवन-यात्रा अकाल ही में समाप्त करनी होगी व्यायाम से मस्तिष्क के और सब प्रकार के काम करने की प्रचण्ड शक्ति ग्राप्त होती है। अतः अस्थि-पंजर बने हुये पुस्तक कीटों को इस व्यायामरूपी अमृत-संजीवनी का अवश्य सेवन करना चाहिये, परम उद्धार होगा व्यायाम से मनुष्य को निस्संदेह चिरन्तन आरोग्य प्राप्त होता है व्यायाम से आयु की प्रचरड वृद्धि होती है। नागपुर में ( सन्‌ ११२११ में ) लेखक ने स्वयं १७५ वर्ष का पहलवान देखा है अभी ( १९२७ ) में वह मौजूद है। उसका एक भी दाँत नहीं टूटा है वह “शमुजर” नामक एक रइस के यहाँ रहता है। स्वयं पहलवान बड़ा दी सदाचारी और अद्यचारी है। जिसे त्रह्मचय पालन करना है. उसे रेज़ नियमपूर्वक व्यायाम करना अत्यन्त आवश्यक है व्यायाम से मु मोड़ने चाछा पुरुष कभी निर्धिकार और सच्चरित् नहीं बच सकता ।ण्यायाम से मन और तन दोनों निरोग, निर्विकार और पुष्ट बन जाते हैं। ओषधियों से रोग और दुवलता को काटने की अपेक्षा कसरत द्वारा शरीर सुदृढ़ बनाकर उन्हें हटाना कहीं अधिक निर्दोप और

६# नियमित व्यायाम # [१२७

बुद्धिमानी का काम है। क्योंकि रोगों की उत्पत्ति अक्सर शारीरिक ओर मानसिक दुवलता से ही होती है और उनकी उत्कृष्ट, सुलभ आर मुफ़्त दवा व्यायाम ही है

व्यायाम से संपूर्ण नीच इन्द्रियाँ फीकी पड़ जाती है और पापी चासनाएँ तत्काल दव जाती है। काम-विकारों का दूमन फरने के लिये और तन्दुरुस्ती के लिये व्यायाम एक अ्रम्द॒ुत-संजी: चनी है। इसमें सम्पूर्ण रोगों को हटाने के शुण भरे हुए हैं। बड़े बड़े पहलवान जो पूर्ण श्ञान्त, निर्विकारी, अह्मचारी और दीघ- जींवी दिखाई देते है इसका अखली रहस्य एक सात्र सुयाग्य व्यायाम ही है। प्रोफेसर माखिकराव केवल सदाचार और व्यायाम द्वी के वल पर त्ह्मचर्य का पालन कर रहे हैं | ज्यायाम से ढुवंल आदमी भी महान्‌ वलवान वन जाता है। रोया भी पूर्ण निरोग धन जाता है और व्यमभिचारी भी पुनः अक्षचारी यानी वीर्यवान्‌ वन जाता है स्वामी रामतीर्थ पहले वहुत ही छुर्वेल रोगी थे, परन्तु व्यायाम ही के प्रताप से वें महान्‌ वलशाली, आरोग्य सम्पन्न और भाग्यशाली हुये थे। अतः मेरे दुर्वल रोयी व्यससग्रस्त मित्रो ! यदि व्यायाम को आज ही से तुम भी थोड़ा थोढ्य नियमितरूप से शुरू कर दोगे ते तुम भी वलवान, घीयेवान और सच्चरित्रवान निसंशय घन जाओगे, ऐसा मुझे अत्यन्त दृद विश्वास है | हाथ कंगन को आरसी क्या ?! एक ही साल॑ के भीतर आपको स्वयं इसका पत्यक्ष अनुभव हो सकता है, करके देख लीजिये अतः अह्मचय द्वारा आत्मोद्धार चाहनंबवालों को रोज़ आतः काल और सायंकाल नित्य ( २५। ३० दंड ओर ५० | ६० चैठक ) व्यायाम नियमपूर्वक दो मरतवे अवश्य ही

१२८ ] # त्रह्मचय्य ही जीवन है$#

करना होगा कया यारोप, क्या अमेरिका, सभी जगह “दौड़” सब से श्रेष्ठ व्यायाम समझा जाता है, इसलिये हलकारों की तरह कम से कम पक्र मील की दौड़ रूगाना परम उपकारी दोगा एक समय फसरत और दूसरे समय दौड़, इस पकार व्यायाम करने से बड़ा ही अच्छा होगा। मन औए तन सदा खर्वंदा मस्त शान्त बने रहँंगे। लेखक का ऐसा निजी अनुभव है स्वच्छ जलू-पायु सेवन:--रोज़ वस्ती के वाहर शुद्ध ह॒वा में टहलने के लिये जाना बहुत ही उत्तम है। जिससे कसरत वन पड़ती हो ऐसे बहुत फूले हुए, बहुत दुरबंल, बहुत रागी क्षयी मनुष्य को टहलने से बढ़कर सुखकर तथा अरोग्यवर्धक दूसरा व्यायाम ही नहीं है ऐसे मनुष्यों को कम से कम एक मील और स्वस्थ मनुष्य को कम से कम सील टहलना चाहिये | और जहां तक हो बाहरी कृूप का जल दिन भर में एक मरतवे तो अवश्य ही पान करना चाहिये; क्योंकि शुद्ध चायु, शुद्ध जल, शुद्ध भूमि, विपुल प्रकाश और विपुछ आकाश ये दी प्रकृति की पांच दिव्य औषधियां है। यही प्रकृति के पंचास्त हैं। इसी पंचामस्ठत का यथेष्ट सेचन करके ऋषि भद्दात्मा इतने ग्जर, अमर और वलिष्ट हुए थे | बिना प्रकृति के इस अमूल्य पंचामझ्ुत का सेवन किये, फोई भी पुरुष सहस्त थुगपयेन्‍त सी खुखी और उन्नत नहीं दो सकता। व्यायाम के शास्लीय नियम--(१) व्यायाम की जगह शुद्ध: हवादार प्रकाशमय हो। संकुचित या गन्दी कोठरी नहो। संकुचित रद्दी जगह में व्यायाम करने वाले पहलवान जल्दी मरते हैं परन्तु शुद्ध हवादार स्थान में कसरत करने वाले अद्यन्त

नियमित-व्यायाम &9 [१२९

दीघोयु द्वैते हैं (२) दो मरतवे व्यायाम अवश्य ही करना चाहिये, शाम को व्यायाम करने से दुःस्वप्त नष्ट होकर नींद बड़ी सुखकर आती है (३ ) पसीना तत्काल पोंछ डालना चाहिये क्योंकि वह भीतर का जहर है जहर का शरीर में या शर्यर पर रहना अत्यन्त रोायकर ओर नाशकर है। (४) कसरत की शुद्ध अणाली सीखो | कुक कर नीचे सर लाने से तमाम खून मस्तिष्क में चला आता है जिससे कि मस्तिष्क विगढ़ जाता है और जिसका सस्तिष्क बिगड़ गया उसका सब मामला ही विगड़ जाता है नेत्र की ज्योति हीन हो जाती है और आयु घट जाती है अत्एव कसरत करते समय गर्दन और सीना हमेशा ऊँचा रहे, इस वात को कभी भूछो (४) कसरत के समय, दौड़ते समय और सभी समय मु'द्ध से श्वास कदापि खाँचो, उससे हृदय और फेफड़े कम्रज्ञोर पड़ जाते हैं. और श्रसंद्य रोगों से पीड़ित दोकर अकाल द्वी मे काठ का शिकार बनना पड़ता है। हां, ज्यादा थक गये दों, तो म्ुद्द से श्वास सिर्फ छोड़ सकते दो, परन्तु ले नहीं सकते। (६ ) श्वास दर चक्त नाक से दी लेना छोड़ना थादिये। श्वास जल्दी जद्दी छो, छोड़ो, धीरे धीरे छो॥ (७) कसरत या दौड़ने के धाद्‌ एकाएक बैठ जाओ, नहीं तो रेल की तरह हुट फूट जाओगे | घीरे घीरे आराम करो (८) कसरत के वाद पेशाब फरना कभी भूलो, क्योंकि उससे मूत्र छाया शरीर की फजूछ गर्मी निकल पड़ती है ओर मन और तन दोनों शान्त चने रहते हैं। )शक्ति से अधिक व्यायाम या कोई काम कदापि करो इससे जीवन-शक्ति का भयंकर हास होता है, “अति

. .१३० ] & बअह्मचय्य ही जीवन है #

सर्वत्रवजयेत” | ( १० ) सामान्यतः व्यायाम और भोजन में घण्टे का अन्तर दाना चाहिये ( ११ ) भूख लगने पर व्यायाम करना चाहिये और व्यायाम करने पर तत्काल खाना-पीना चाहिये नागपुर में एक वजाज़ का लड़का कसरत के वाद तुरन्त पानी पीने से मर गया; फिर कुछ खा लेना कितना भयानक है ? व्यायाम से गले में कुछ खुश्की माल्म हवाती है, इसलिए शीतल जल का कुल्ला कर लेना चाहिये या मुख में मिश्री की डी अथवा इलायची के २-४ दाने रख लेना चाहिये ! कसरत के एक या आध घंटा बाद दूध पीना अच्छा है। ( १५ ) हर एक मौसम में स्नान के पहले ही कसरत करनी चाहिये | ( १३ ) सालिश. करना वहुत अच्छा है, उससे बहुत रोग नष्ट द्वेते हैं। रोज करना ठीक नहीं। जाड़े में एक हफ्ते में २-३ वार और गर्मी के महीने में २-३ वार करना चाहिये, क्योंकि मालिश भी अग्नाकृृतिक ही है। अपने हाथ सालिश करने से स्वास्थ्य और भी दुरुस्त होता है। पीठ की सालिश चाहे तो दूसरे के द्वारा की जाय | (१४) व्यायाम के खेल समझ कर करो, कि वो इससे यहुत जल्द तुम पहलवान बन जाओगे ( १५ ) व्यायाम करने का ढंग सी अच्छा 'है।ना चाहिये उस समय टेढ़ा बाँका मुँह बनाने से व्यायाम के वाद भी चेहरा वैसा ही बना रहेगा और प्रसन्नवदन रहने से तुम भी प्रसन्न बन जाओगे इसके लिये सामने शीशा रखने से निस्तीस लाभ होगा ।( १६ ) व्यायाम के समय सामने शीशा रहने पर मनुष्य की भावना वड़ी चलवती वनती है और अंग प्र्ंग भी अवल भावना के कारण बड़ी शीघ्रता से पुष्ट गठीले “बनते है। अतः व्यायाम के समय चित्त एकाप्त रख कर हृढ़

# जल्दी सोना और जल्दी जागना &छ..[ १३१

्न्ल्जिलिजिज लि जि

“भावना करो कि “मेरी नस नस में बल, तेज, सामर्थ्य, निर्मेयता, वीरता, क्षमा, शान्ति, आरोग्य, त्रह्मचर्य प्रवेश कर रहे हैं, “उन्नति कर रहा हूँ”?--ऐसा ख्याल करने से सचमुच आप ऐसे 'ही बन जाँयगे |

/ हक. “जल्दी सोना और जल्दी जागना'

:नियम बारहवाँ:--

. वक्तव्य:--जिन्‍्हें वीयरक्षा करनी है और आरोग्यसम्पन्न तथा भाग्यवान्‌ बनना है, उन्हें जर्दी स्रोने ओर जल्दी जागने का अभ्यास अवश्य ही डालना चाहिये | १० बजे के भीतर ही सोना चाहिये और बजे के भीतर ही उठना च्हिये | क्योंकि स्वप्नदोष 'आय:ः.रात्रि के अन्तिम भहर में ही हुआ करता है बाज््यकाज्ञ नष्ट ' कर डालने से जैसे सम्पूर्ण जीवन ढुःखमय हो जाता है; बेसे ही प्रातःकाल (दिन का बाल्यकाल) नष्ट कर डालने से भी सम्पूर्ण दिन टुःखमय बन जाता है| प्रातःकाल हो जाने पर भी जो पुरुष 'कुम्भकर्ण के समान खटिया पर पड़ा ही रहता है उसको पूरा भागा सममना चाहिये इतिहास और अज्भभव हमें स्पष्ट वतलाता है. कि भातःकाल उठने वारछा पुरुष ही चंगा और भाग्यवान दो सकता है। आज तक हमने प्रात:काऊू 'में उठने घासे किसी. भी. व्यक्ति को महा पुरुष होते .इुए. न. देखा है और नखुना दी. है। प्रकति की ओर ध्यान देने से यही मात्दूम देता. है कि भ्रात:क्ाल ही में

१३२ ] & बद्यचय्ये ही जीवन है पे

सम्पूर्ण रत भरा है। पभात:काल के “अम्ृतबेला? कद्दते हैं। सच-मुच श्टष्टि के इस प्रात:कालीन दिव्य अखत के। .त्यागने घाला पुरुष जद्दी दी बूढ़ा ग्ग॒तक तुल्य हे। जाता है। दमारे क्पि मुनि इसी अम्गत का सेवन नित्यश: अऋह्ममुह्ठते में यथेष्ट सेवन कर इतने चंगे और चैतन्यमय बने हुए थे। रात भर के आराम के कारण प्रातःफाल में सम्पूर्ण शक्तियां अत्यन्त सतेज और वलिप्ट रहती हैँ। कठिन से कठिन काम भी उस समय सुगमतापूष द्वो जाते हैं। ऋषि छोग त्ह्मघछुह्वत में उठकर प्रथम सच शक्तिशाली परमात्मा का ध्यांन करते थे, जिससे कि परमात्मा की शक्ति उनमें प्रवेश करती थी और बड़े बड़े राजा भी उनके सामने शिर ऋुकाते थे यदि हम भी चाहते हैं कि हमारे सम्पूर्ण काम, क्रोधादि अन्त्वाह्य शत्रु हमारे सामने शिर भुकावें और संसार में हमारी कीर्ति हो, तो हमें प्रात:काल उठने का अभ्यास डालना ही चाहिये | एक जगह कहा है “““8%7)9 0 060 था( 6७7" $0 788 78):88 8 787 ॥69)079, श०ै779ए ४00 फ्र867 यानी प्राठ:ःकाल में उठने वाछा भनुष्य आरोपयवान, सांग्यवान और ब्ञानवान देता है--यद्द कथन भ्रच्तर अक्षर सत्य है। देर में खसेानेवाला और देर में उठने चारा पुरुष कभी भी ब्रह्मचारी 'विचेकी भाग्यवान नहीं हे! सकता। अत: जिन्हें पूव जो की तरह दीर्यंवान, शानवान, खामथ्य-सम्पन्न बनना हो, उन्हें रोज ्रह्मघुहवत॑ में ही उठना चाहिये और सब से पदिले इईश्वर-चिन्तन करना चाहिये। क्योंकि प्रातः काल में जो कुछ चिन्तन किया जाता है मनुष्य वैसा दी दिन भर बना रहता है। यदि आप, मात: काल क्रोध कंरके उठगे, तो दिन भर क्रोधी ही बने. रहेंगे

#& जल्‍दी सोना ओर जल्दो जागना के. [ १३३

ओऔर यदि आप प्रसन्नतापूष उठेंगे और 'पर स्री मात समान ऐसा शुभचिन्तन करेंगे तो खथ दिन प्रसन्नतापू्वक वीतेगा, मन श्रव्यंन्त पविन्न रहेगा और कोई हावि होने पर भी आप प्रसन्न ही रहेंगे | यदि रोज द्वथी आप इश्चर चित्तव करके प्रसन्‍ततापूर्वक उठे तो दे। ही खाल में आपके जीवनचरिन में जमीन आसमान का फरक दिखाई देगा प्रत्यक्ष का प्रमाण क्या करके देख लीजिये | नतेद्रा के शात्रीय नियम”

(१) जहाँ तक हो, खुली हवा में, ्रकाशमय जगह में, था खुले कमरे में सोना चाहिये; क्‍योंकि शुद्ध जल, हवा, खल, आकाश, अकाश ही प्राणिमात्र का जीवन है | जहाँ प्रकाश नहीं होता वहाँ रोग और दरिद्वता अवश्य होते हैं "ए076 608 8 ॥0 शव ऐ।९०ठ 870 आ6धह॥ 800 श००)४? (२) हर वक्त

«०... पल... | [.] | आढ़ने पु पु अकेले सोना चाहिये। इसी में त्रह्मचय है। (३ ) ओढ़ने के कपड़े स्च्छ, हछके और सादे होने चाहिए। नरमन-गरम विदौने से इन्द्रियाँ क्षच्घ हो जाती' हैं जिससे वे मन तन को बिगाड़ डालती हैं। फिर अक्सर स्वप्नदोष होता है। (४) ढुलाई, रजाई आदि भहावर््ध फट जाने तक पानी का दर्शन नहीं कर पाते | धूछ ओर गन्दी से भरे हुये कपड़ों में हज़ारों रोग जन्ठु होते हैं, जो कि स्वास्थ्य को खा डाछते हैं। अतः ढ्ने के, पहनने के, विछाने के सभी कपड़े सदा निर्मेल रखने चाहिये | यदि कपड़े धोने लायक हों तो धूप में डाउना चाहिये। क्योंकि खूब के अ्रकाश - से रोग के सब जन्छु मर जाते हैं। ओढ़ने में मुंद्द ढाँक के कभी मत सेाओ क्योंकि नाक,. सुँद और अपान से

१३४ ] #& बअक्यचय्य ही जीवन है ६3

हर दूम जद्दर कार्वव निकछा फरता है जिससे कि मनुष्य निश्चय ही रोगी और अत्पायु बन जाता दै। गन्दगी से जिन्दर्गी वरवाद होती है, यह सिद्धान्ततत्व सदा ध्यान में रक्खो। (६ ) आत्मोद्धार की इच्छा रखने वालों को जल्दी सोना और जल्दी उठना चाहिये | बारह बजे के पहले का एक घण्टा बारह बजे के वाद के तीन घण्टे के वरावर होता है खाढ़े छः घंटे से ज्यादा दर्मिज सोना चादियें अधिक सोने चाछा छदापि स्वस्थ महापुरुष नहीं हो सकता। महापुरुष कम सोने वाले और अधिक काम करने वाले दी इुआ करते हैं रात्ि के खासकर विद्यार्थियों के बज्ञे दही सोना चांदियें और प्रात: काछ बन्ने भगवन्नाम स्मरण करते हुये उठना चाहिये। और विछौने को एक दम त्याग देना चाहिये, और शुद्ध जगह पर बैठ कर सब से पहले सगवन्न-चिन्तन, स्तुति वा पवित्र खंकदप करने चादिये निस्सन्देदह आप वैसे ही दन जावे'गे

(७) सोते वक्त दीपक को बुझा देना चाहिये क्योंकि वह स्वयं 'कार्वेन' फैला कर हवा के आण को और हमारे जान को खा डालता है; तथा नाक मुँह ओर पेट को काजर की कोठरी बना देता है। ( ८) सोने के पहले ओर अन्त में जल पीना चाहिये और परमात्मा का ध्यान करते हुए सेना और उठना चाहिये। (६) निद्रा के पहले पेशाब अवश्य कर लेना चाहिये | जाड़ा या किसी कारण दिशा, पेशाब के रोकना बड़ा सयानक है। इससे स्वप्न-देष होता है। (१० ) जब तक खूब नींद आवे तब तक विछोने पर छेटना चाहिये विछोने पर फुजूल पड़े पड़ेजागते रहने की हालत में चित्त डुवोसनाओं की तरफ दौड़ता है ( ११ ) निन्द्रा के समय मन को

#& जल्‍दी सोना और जल्दी जागना के [११५

संसारी ममटों से अलग रक्खो उच्च, शान्‍्त और गम्भीर विचार जार रखी | हृदय सें इंश्वर का ध्यान चिन्तन करो तत्काछ निद्रा आवेगी निद्रा की चिन्ता करने से निद्रा नहीं सकती | ( १९ ) थोड़ी सी. दौड़ लगाने से तत्काल निद्रा आजायगी। ( १३) निद्रा के समय शरीर पर छुछ भी कपड़े रखने चाहिये बहुत हुआ तो एक पतला कुर॑ता काफ़ी है। ( १४ ) निद्रा के पहले खुले शरीर को खुली ठंड हवा से ठण्डा करने से निद्रा जल्दी आती है विदौना को भी फटकारने से उसमें की गर्मी निकल जायगी और नींद बहुत जर्दी लग जायगी ( १५ ) घुटने तक पैर, कमर का सब भाग ओर शिर ठंडे जल से धोने और पोंछने से निद्रा बड़े मज़े में आती है और स्वप्रदोष भी नहीं होने पाता है। (१६) उठते समय नेत्र पर एकाएक अ्रकाश पढ़े ऐसा कग्े। उठने के वाद हाथ धोकर तात्र के पात्र का जल नेत्रों के लगाने से नेत्र- विकार सब दूर होते हैं और दृष्टि तेजरवी होती है। ( १७ ) निद्रा के कम से कम एक घणटा पहले भोजन अवश्य कर लेना चाहिये खाया ओर तुरन्त सोया, इसमें बुराई है ऐसा करने से स्वप्नदोष के होने की अधिक सम्भावना रहती है। (१८) रात में बहुत हलका भोजन करना चाहिये ओर नींबू, संत्तरा, दही, मूली, ककड़ी आदि तथा तेल के पदार्थ खाने चाहिये। (१९) बहुत लोगों का ख्याल है कि “कपड़े वार वार धोने ही से जल्दी फटते हैं; परन्तु यह वात नहीं है। मैले होने ही से कपड़े, हाथ-पैर के मुआ- फ़िक, जल्दी फटते हैं | सारांश--कायिक, वाचिक ओर मानसिक स्वच्छता ही अह्मचये वा दीघोयु का रहस्य है।

१३६ ] & ब्रद्माचय्य ही जीवन है. |

“प्राणायाम नियम तेरहपाँ:---

“प्राणो यत्न विलीयते मनस्तन् विलीयते। भनेाबिलीयते यत्र प्राणस्तन्न विछीयते ॥” “-हँठयाग “प्राणों का लय ( या कुम्मक ) दाने से भन का भी लय झैता है अर्थात्‌ मन भी स्थिर होता है और मन के ऊय हेने से पंच प्राण भी स्थिर होते हैं, उनका छय होता है ।” भीमज्ु मद्दाराज कहते हैं “जैसे अमि से धातुओं का मल नष्ट द्वेता है. चैसे ही प्राणायाम से मन और इन्द्रियाँ पविन्न स्थिर हेती हैं ।”

वक्तव्य:--प्राणायाम में इतनी प्रचंड शक्ति है. कि उससे रोगी भी निरोगी और ज्यमिचारी भी त्रह्मचारी हो सकते हैं इसी कारण भगवान्‌ ने गीता के छठें अध्याय में इसका सुन्दर बन किया है प्राणायाम से त्रह्मचय की उत्कृष्ट रच्ता होती है। प्राणायाम से आयु वृद्धि असीम होती है। अल्पायु सी दीघोयु हो जाते हैं।. प्राणायाम के तीन अंग हैं (१) पूरक, (२) रेचक ओर' (३ ) कुम्भक

(१ ) पूरक--दाहिनी नासिका अंगूठे से दबाकर बाँयी से वायु भीतर खींचना और दोनों नासिकायें फिर बन्द किये रहना

(२ ) कुम्मक--भीतर की वायु जहाँ तक हो सके रोकना

के आणायाम के [ १३७

(३ ) सेचक--भीतर रोका हुआ वायु, दाहिनी नासिका खोलकर के और वारयीं नासिका को हाथ की आखिरी दो डेँगलियों से दबाकर धीरे धीरे बाहर छोड़ना !

जिससे वायु छोड़ा है उसी दाहिने नासा-छिद्र से फिर से वायु भीतर खींचना, पुनः पहिले की तरह नाक चन्द करके कुम्भक करना ओर अन्त में वाम नासा से रेचक करना। जिससे वायु बाहर छोड़ा जाता है उसी से वायु भीतर खींचकर प्राणायाम शुरू करना चाहिये | यह प्राणायाम का तत्व पूरा ध्यान में रकखो

खिद्धासन5--नीचे बैठ कर चाँयें पैर की एड़ी गुदा ओर इन्द्री के बीच में रकखों और दहिने पेर की एड़ी इन्द्री पर स्थापन करो और कमर बिना मुक़ाये सीधे वैठ जाओं। यह सिद्धासन सम्पूर्ण चौरासी आसनों में सब से श्रेष्ठ आसन है। इससे मन इन्द्रियाँ ' तत्काल शान्त हो जाती हैं।

जब कभी चित्त में काम विकार उत्पन्न हो तो तत्काल सिद्धासन डगा कर सीधे वैठ जाओ और फ़ौरन आयणायाम शुरू कर दो। मन में “भगवज्ञामस्मरण” “माँ माँ? इस पवित्र भहामंत्र का जप, अथवा अन्य शुद्ध संकल्प करा देखा, एक, दो हा छुम्भक तुम्हारी सम्पूर्ण नीच इन्द्रियाँ ओर पापी-चासनायें तत्काल दव जाँयगी और तुम वच जाओगे यदि रास्ते में चलते समच्च कदा- 'ित्‌ मन सें कुकल्पनायें उठें तो तत्काल दोनों नासिकाओं से वायु खींचकर दम का रोकों ओर खूब तेज़ी के साथ फाजी ढंग से चलो | रोका हुआ श्वास छोड़ते वक्त मुँह खोलकर छोड़ दो। ३-४ मरतवे ऐसा करने से तुम वेदाग वने रहोगे। परन्तु हा; दृष्टि को

कआसउनो के लिये परिशिष्ट देखिये

१३८ ] &8 ब्रह्मचय्ये ही जीवन है. थे

हर वक्त नीची ही अथौत्‌ नम्र दी रखना होगा सन में ईश्वर वा मात-नास का पवित्र जप अवश्य करना होगा ! निस्सन्देह तुम्हारा इसी जीवन में उद्धार होगा | माम्ूछी रघर की साइकिल जो सैकड़ों मीऊ मनुष्य का बिठलाकर ले जाती हैं से! किसके बल पर ? कुम्मक दी के बल पर 4 इतनी बड़ी प्रच|ड रेल भी कुम्मक द्वी के बल पर लाखों भन का छदा इआ घोभा लिये हुये बिना दिक्कत के चलाई ज्ञा रही है। कुम्मक ही के बल पर मनुष्य अथाह पानी में तैर कर पार चला जाता है। संक्षेप में फद्ा जाय तो यद्द सम्पूर्ण जगत कुम्मक द्वी के बलपर कर्तष्य-तत्पर दिखाई दे रद्द है। कुस्मक में सम्पूर्ण जगत्‌ फे द्विकाने की शक्ति है। योगी लोग इस ईश्वरीय शक्ति को प्राणायाम फे द्वारा अपने में अमर्याद्तरूप से बढ़ाकर अजर अमर यानी अकाल रुत्यु पानेवाले दीघ॑जीवी हो जाते हैं, और भोगी छोग अपनी उस दैवी शक्ति को, काम के गुलाम बन नए कर के स्वयं जजर और जीते जी दी मुदें' बन जाते हैं। अतः जिन्हें दीघोयु, निरोग, त्रह्मचारी और सामथ्य-सम्पन्न 'बनना हो, उन्हें चाहिये कि “प्राणायाम की विधि” किसी योग्य पुरुष-द्वारा जल्दी से सीख लें। हमारे नित्यकम में जे “सन्ध्योपासन” रखा है उसमें ऋषि लोगों के कितने भारी उपकार हैं। परन्तु आजकल अछ्वरेज़ी पढ़े हुये कई अभागे लोग इस प्रचंड दैवीशक्ति के रहस्य- . पूर्ण सन्ध्या का नहीं करते वे संध्या की कुछ भी कीमत नहीं सममभते यह देश का महा ढुभोग्य है। इसी कारण आज हमारी भी छुछ कीमत नहीं हो रही है। अमो ! हमारे समस्त भाइयों की आँखें खोल दो और इस दैवी शक्ति का खज़ाना-संध्या युक्त

के उपवास कि. . १३९.

प्राणायाम--उनके सुपुद कर दो। क्योंकि इसमें स्वार्थ और परमार्थ दोनों कूट कूट कर भरे हुये हैं !

“उपवास 5 निय्रम चौद्दवाँ :-- “आदर पचाति शिखी दोषांन, आद्यस्वर्जित: |”? --आयुर्वेद अग्नि आहार को पचाती है ओर उपवास दोषों को पचाता

अथात्‌ नष्ट करता है ।”

जहाँ तक हे। सकता है वहाँ तक हमारा शरीर बाहरी और भीतरी उपद्रवों से अपनी रक्षा आप ही कर लेता है। परन्तु मनुष्य जब शक्ति के बाहर खा लेता है अथवा कोई काये कर वैठवा है, ठव शरीर अंतवाह्म रोगी दुबवछ वन जाता है। फिर वह अपना रक्षा करने सें असमर्थ हे जाता है। यदि उसे विश्रान्ति दी जाय तो अन्त में चह जवाब दे देता है “रोगी शरीर में रोगी मन” यह पअक्ृति का सामान्य सिद्धान्त है; पापी बासनायें रोगी शरीर की सूचक हैं। स्वास्थ्य-पूर्ण शरीर में पापी वासनायें नहीं हो सकती। अतः स्वस्थ पुरुष के उपवास की कुछ भी जरूरत नहीं 3 परन्तु ऐसे स्नस्थ अथांत्‌ वन सन से निमल पुरुष संसार सें नस चहुत कम | इसी कारण संसार छुःखमय माद्धम होता है

१४० ] 8 शद्षचय्ये दही जीवन है के

फु० 96 छ0०्चार 78 8 878४६ ध7;.ए0700079 800 ॥78]0९ ए77688 80 600 ६986 87078. धअथोत्‌ टुर्बल रहना यह एक भहापाप है सुख और यश वली ही को मिलते हैं। जिसकी आत्मा टु्वंल है, वह्दी दु्वल है उपवास से आत्मा अत्यन्त ही निर्मल ही जाती है - मन और तन देनों निरोग वन जाते हैं

ऐसे दा मनुष्य लीजिये जिनकी पाचनशक्ति अति भेजन से बिगड़ी हे एक मनुष्य चूरण पाचक खाकर, अवलेह चाटकर और दवा की गोलियाँ और भी पेट में भर कर पेट को टुरुस्त कर रहा है और दूसरा मनुष्य एक दो दिन भोजन करके रोज़ आतः स्नांन, प्रातः सन्‍्ध्या ओर रोज़ एक दो मील का चक्कर छगा के अपनी भूख के सुधार रहा है। अब कहिए, दोनों में कौन बुद्धिमान्‌ है| महीनों दवा खाकर अपने शरीर का भाड़े का ट? हू वनानेवाला था उपवास और व्यायास द्वारा अपने के दो ही दिन में चद्धा करने वाला उपवास से शारीरिक मानसिक दोष जड़ से नष्ट हो जाते हैं ओर मनुष्य की आत्मशक्ति बहुत कुछ बढ़ जाती है अतः त्रह्मचर्य के लिये उपबास अत्यन्त द्वी फायदेमन्द है, क्योंकि उससे संपूर्ण नीच इन्द्रियाँ फीकी पड़ जाती हैं और मन पवित्र चन जाता है। इसी पवित्र दृष्टि से हमारे ऋषियों ने प्रति मास में दो उपवास ( एकादशियाँ ) रखे हैं, जो कि लोक और परलोक दोनों के लिये परम उपयोगी हैं परन्तु उपवास तब ही उपकारी हो सकता है जब कि केवल जल को छोड़कर दूसरी कोई भी चीज़ भुख में डाली जाय अत्यन्त नांजुक प्रकृतिवाले दूध अथवा शुद्ध फल को खा सकते

रे

क्रदद-पतिज्ञक्ष [१४१९

हैं। फछाहार का मतलब यह नहीं कि उस दिन ख़ूब मिठाई और तरह तरह का माल उड़ावें और पहले से भी अधिक रोगी और कामी वन जावें ये सव मूखे और अभायों के काम हैं, भाग्यवान के नहीं

उपवास का सच्चा अर्थ यह हैः--उप यानी नज़दीक और वास माने रहना, अथोत्‌ उपवास में परमात्मा के नजदीक रहना, ओर आत्म-शक्ति को ईश्वरपूजन और सदूग्नन्थों के श्रवण, मनन द्वारा बढ़ाना; कि ताश, शतरंज, हँसी सजाक नाच, नाटक, सिनेमा आदि व्यर्थ अनर्थकारी कामों में अपनी आत्मा का पतन करना यदि महीने में दो एकादशी के दिन निराहार रह कर कोई उपयुक्त “सच्चा उपवास” करने लग जाय; तो वह चारह वर्ष में एक अच्छा महात्मा हो सकता है। इसे आप स्वयं अनुभव करके देख लीजिये

न्‍सिज+>»न+»जकमन»-_»+ममममाक,

[2] 2५ अब . हृढ्-पितिज्ञ नियम पद्वहवाँ:--- काया-बाचा-मनसा अपनी अतिज्ञा का पूर्ण पालन करना: यह एक परम श्रेष्ठ दैवी सदुगुण है; उससे मनुष्य में एक दैवी तेज अगठ होता है सम्पूण लोग उस व्यक्ति का चढ़ विश्वास करने लगते हैं अतिज्ञा-भंग करने वाला पुरुष नीच, आत्मघाती दगावाज्‌ कहा जाता है; उस पर से लोगों की अरद्धा उठ जाती

है। “काम मर्दों का नहीं जो कि अधूरा करना, जो वात जूवां से

१४२] & ब्रह्मचय्ये ही जीवन

'निकाले उसे पूरा करना”--यह श्रेष्ठ पुरुषों का लक्षण है प्रतिज्ञा- पालन करने वाले मर्द पुरुष होते हैं और प्रतिज्ञा तोड़ने वाले नामई पुरुष कहलाते हैं. सत्यमअतिज्ञ पुरुप अपने आण को भी त्याग देते हैं; परन्तु अपने वचन को कदापि नहीं त्याग सकते कलंकभूत नहीं हो सकते हैं। “सुकृत जाय जो प्रण परिहरऊँ |”? अपने किये हुये प्रण को तोड़ने से संचित पुण्य नष्ट हो जाता है। “आ्रण जाय पर बचन जाई”--यहीं महयपुरुषों का लक्षण है ओर. इसी में कीर्ति हैव कीर्ति ही जीवन है सत्यप्रतिज्ञ पुरुष के सामने सभी लोग शीश मुक्ाते हैं। छुभाव से मुँह मोड़ना यद्यपि पहिले मरतवे सहज नहीं है . तथापि वहाँ से तुरन्त हट जाने से अथवा उस छुभाव का ध्यान तथा चिन्तन करना ही छोड़ देने से और उसके बदले सुकसे तथा शुभ चिन्तन में रत होने से मनुष्य उस छुभाव से निःस्सन्देह बच सकता है | यद्‌ एक ही मरतवे मनुष्य इस प्रकार मनोनिप्रह करके दिखलावेगा, तो उसमें अतिकार करने की-एक अद्वितीय _ दैवी शक्ति जागृत होगी ; जिससे कि वह दूसरे मरतवे छुभाव से अपने मन को वड़ी आसानी से खींच सकेगा; तीसरे मरतवे और भी आसानी से, और इसी प्रकार दिन दिन उसकी वह पुरुपार्थ- शक्ति बढ़ती ही जायगी इस प्रकार द्स-बारह मरतवे मनोनिम्रद करने से उसमें ऐसा कुछ इंश्वरीय बल प्राप्त होगा कि जिसके सामथ्य से बह जो छुछ ठान लेगा वहीं कर दिखलायेगा | फिर वह श्रीमीष्म पिवामह, श्रीलक्ष्मणजी, श्रीजनकजी आदि महापुरुषों की तरह छुमावपूर्ण परिस्थिति में रहते हुए भी अपने मन को नहीं होने देगा अतः शुरू ही में अपनी शूरता

के दृढ्अतिज्ञा के [१४३

'दिखलाओ वस, यही पुरुपत् एवं ईश्वरत्व प्राप्ति की सुबर्ण-कुखी है| बुराई से वचनां यह भलाई की ओर जाना है, इस महातत्व 'को हृदय में अखण्ड धारण किये रहो कछुआ जैसे अपने अवयवों को अपनी ढाल के नीचे समेट लेता है उसी ग्रकार अपनी इन्द्रियाँ भी घुरे कमों से खींच कर शुभकर्मों की ढाल के नीचे लानी चाहिए |

देखो इस प्रकार इन्द्रियनिग्रह करने से तुम्हें क्या ही परमानन्द्‌ प्राप्त होता है | विषयानन्द से सच्चे आनन्द का नाश द्वोता है सर्वत्र दुःख दी ढुःख उपजता है। ज्रह्मचारी पुरुष के सामने विपयी पुरुष फीके पड़ जाते हैं; और वे सुख शान्ति शआ्रप्ति के लिये उन्हीं की शरण में दौड़े चले आते हैं।हस भी यदि बीये को धारण करेंगे तो उन्हीं के सदश सच्चे आनन्दी, उत्साही और तेज-सम्पन्न महापुरुप बन सकते हैं विषयसेवन से, मद्दापुरुप सी. देखते ही देखते बीच पुरुष बन जाते हैं और विपय त्याग करने से नीच पुरुष भी निस्ललदेदह मद्दापुरुष वन जाते है। सारांश मनोनिम्रद्द दी पुएय है वह मनोदास्य दी पाप है। झत: जितना अ्रधिक दम मनेनिग्रद्द करेंगे उतने अधिक भेष्ठ, भाग्यवान और पुएयवान दम निश्चयपूर्वक वन सकते है। “म्रन के हारे द्वार है, मन के जीते जीव” जो अपने के---अपने मन का--जीत लेता है वही पुरुष संपूर्ण जगत्‌ का जीत लेता है। . ,एक सरतवे के मनोनिम्नह से कहीं ऐसा सममभ वैठो कि /हम अब विपय पर हुकूमत चला सकते हैं ।” नहीं तो यह ख्याल तुम्हें धूल में मिला देगा। तुम्दें रोज मनोनिम्रद करना होगा और अपने मन तथा इन्द्रियों को अत्येक छुभाव से हठपूवेक कछुआ

१४४ ] & ब्ह्मचय्ये ही जीवन है के

की तरह खींचना होगा इसी में पुरुषार्थ है ! इसी में कीर्ति है !! ओर एसी में त्रह्मचय की रक्षा है !!! प्रतिज्ञा का स्मारक रक्खों। (इस गन्थ का “मन इन्द्रियां” यह प्रकरण बार वार पढ़ो और रोज पढ़ों )

“शयरी है

नियम सेोलदरवा:--

“स्मरण वही” अथवा 7879 यह एक मलुष्य का सब से घनिष्ट मित्र है। उसके पास हम जो चाहे से! जी खोल के बोल सकते हैं। यदि आपको आत्म-सुधार करना हो तो रोज दिन भर के भले बुरे कायोँ का वर्णन डायरी में ज्यों का त्यों लिखा करो और सेते समय उस पर गंभीर विचार किया करो, जिससे कि मनुष्य की श्रेन्‍्ठा का तथा नीचता का परिचय भली भाँति हो जाय और उसको अपने कर्मों के लिए हर्ष पछतावा होकर, बह श्रेष्ठ पुरुषों के समान बनने के लिये कटिवद्ध हो जाय। प्रत्येक मास के अनन्तर दोप और गुण की सूची लिखा करोंगे तो उसे अवलोकन करने में बहुत ही सुभीता तथा कल्याण द्ोगा

डायरी के लिखते से मनुष्य में सत्य का संचार होता है, आत्म-सुधार का दृद-संकल्प हठात्‌ घुस.जाता है, समय का आदर होने लगता है, नियमितता शरीर में मिन जाती है और आत्म- विश्वास के साथ ही साथ आत्मिक-बल भी बढ़ने लगता है

“दूसरों के दोष देखने से मनुष्य दोषी वनता है और अपने

, डायरी [ १४५

दोप देखने से वह पवित्र बन जाता है।” दूसरों के दोष देखने के वनिस्वत--जो कि पतन का घूल है--यादे महुष्य अपने ही देषष देखा करेगा तो उसका उद्धार इसी जन्म्र में हो सकता है। मद्दा पुरुष कहते हैं:--

यथाहि निपुणः सम्यक्‌ परदोषेक्तणं प्रति। वथाचेन्निपुणःस्वेषु के मुच्येत वंधनात्‌

“जैसे यह पुरुष परदोपों के निरूपण करने में अति कुशल हैं तैसे ही यदि अपने दोपोंके निरूपण करने में निपुर हे, ते ऐसा कोन पुरुष है कि जो संसार के कठोर वन्धनों से छूट कर मुक्त हो जाय ९” दोपों के निरूपण करने का तात्पय यही है कि मनुष्य को उसकी नीचता-का परिचय भली भाँति हो जाय, उसे “सच्चा पछतावा” उत्पन्न हो और महा पुरुषों की तरह वह सदाचारी एवं श्रेष्ठ वन जाय | परमात्मा की जब बड़ी भारी कृपा होती है तव मनुष्य को अपने दाष दिखाई देंते हैं और उसी क्षण उसकी उन्नति का * आरम्भ सममना चाहिये बड़ों के पास अपने दोष कहने से ओर छोटों के पास त्रह्मचय की महिमा वर्णन करने से भी दोपों की उत्कृष्ट शुद्धि होती है। महापुरुषों के और हमारे बताव में क्‍या अन्तर है और कौन से देष त्यागने से हम भी सदाचारी, ऋरह्मचारी और महापुरुष वन सकते हैं यह हमें हमारी “डायरी” वतला सकती है। अतणएव आत्मोद्धार के लिए “रोज़ डायरी का लिखना” अतीब उपकारी है

१०

१४६ ] & बह्मचय्ये ही जीवन है के

ल+ल्‍>ल3ट>तझ3५+>+ल3०9 3 स+स3 3०3

सततोदोग के

नियम सम्रहयोँ:--

' सस्पूर्ण डुगणों का तथा डुर्भाग्य का मूल फारण एक मात्र आहलस्य है, जो कि लोक और परले।क का प्रवल शद्द है। बेकार सुछ्ती-पुरुप सदा विकारी प्रमादी द्ोते हैं और बिकारी तथा भ्रमादी स्त्री-पुरुषों का श्रह्मचारी होना सर्वथा अ्रसम्भव है नीच विचारों फो दमन करने के लिये सुविचार एक श्रे्टतम उपाय है; सुविचार से भी “सुकमेरतता” ( कि कुकमैर्तता ) सर्घ-भ्रष्ठ साधन है ८0088॥ 000॥72५०१ ए7'8एशा५ 07 &707॥” सुकम में फंसे हुए मनुष्य के पास अ्लोभन नहीं सकता आलस्य से मनुष्य के भीतर की संपूर्ण उच्च शक्तियां दव जाती हैं ओर शुभ कर्मों से--सततोद्योग से संफूर्ण देवी शक्तियां एक एक करके श्रगट होने छगती हैं ओर इसी जन्म में मनुष्य के जीवन का प्रचण्ड विकास हे, उसकी कीति-सुगंधि चारों ओर फैल जाती है। निरुदयोगी अथोत्‌- आलसी पुरुष सप्त जन्म में सी ब्रह्मचारी नहीं हो सकता। एक मात्र सतताद्योगी ही नह्मचये को धारण कर सकता है आलसी पुरुष जीते जी ही म्रुदों बन जाता है, आलसी पुरुष सदा सदा पापी बना रहता है, संक्षेपतः उद्योग ही जीवन है और आलस्य ह्वी मरण है, उद्योग ही पुएय है और आलस्य ही पाप है--नरक है अतः जिन्हें पुण्यवाव्‌, भाग्यवान्‌ कीतिवान और वीयवान्‌ महापुरुप चनना हो, उन्हें परमावश्यक है कि वे सदा, स्वेदा शुभ कर्मो ही में फँैसे रहें जब कभी कुक की ओर मन जाय तव “तत्काल” कोई अच्छी किताव पढ़ने अथवा इस पंथ

+2.+ ७५ ७2७भ 2 3.3७. +क 2 3७ ८५ 22 2 ८व-+2७ ८७-३७ 2 2९4९ + 9७:४०७#१५/०क,

& स्वथमोनुछ्ठान ४४ [श७

के इन्हीं नियमों को पढ़ने कोई अच्छा काम करने वा भगवान्‌ का जोर से नाम स्मरण करने छूगें अथवा कोई अच्छा भजन गाने लग जाँय। निस्संदेह तुम्दारी नीच वासनायें दव जांयगी और पवित्र वासनाओं का उदय होगा। किंवा उस स्थान से हुट कर तत्काल सन्सित्रों में आकर ज़ैठने से ओर कोई अच्छा विषय छेड़ देने से हमें पूर्ण विश्वास है कि तुम साफ चच जाओगे। अतः वीररक्षा के लिये प्रत्येक व्यक्ति कों आल्स्य पर लात मार सततोद्योगी अवश्य ही वनना होगा; क्‍योंकि आलसी पुरुष को कामदेव पटक पटक कर भारता है। यदि हम सतत झुद्ध उद्चोगी बनेंगे तो आहल्स्य ही हमें लात मार कर ज़मीन में मिला देगा, यह पूर्ण निः्बय जाना। अतः ब्रक्मचारी को सदैव शुभ कर्मों में ही डूबे रहना चाहिए हाथ पर हाथ रख कर निठल्ले बैठने में कुछ विश्रान्ति नहीं है। सच्ची विश्रान्ति काम को वदल वदछ कर करने में अथात्‌ भिन्न भिन्न काये करने ही में है

“सखधमातुछ्ठन

नियम अठारदवाँ:--- भस्वघमें निधन' भर यः परधमों भयावह: ।”

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं. “खधम में मृत्यु श्रेष्ठ परन्तु पर धर्म में जीना भयानक है--निन्दित है |? जे अपने धर्म में प्रीति नहीं कर सकता उसका दूसरे घमे में प्रीति करता आडम्वर मात्र है, बह उसका व्यमिचार है | धर्म कोई भी हो परन्तु उसमें “हंढ

१४८ ] & ब्रह्मचय्ये ही जीवन है $

विश्वास” की परम आवश्यकता है। श्रद्धा बगैरः सभी धर्म-कर्म वृथा हैं हृढ विश्वास होने पर धर्मोन्‍न्तर करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है और दृढ़ विश्वास धर्म के अज्ञान से नहीं देने पाता | अतः सब से प्रथम अपने द्वी धमे का पूरा शान कर छो। स्वधर्म के अज्ञान से ही मनुष्य पर-धर्म के स्वीकार फरता हैः जो कि उसकी प्रकृति यानी स्वभाव धर्म फे विरुद्ध होने के कारण मद्दान, विनाशक है। यह नितान्त सत्य है कि प्रत्येक धर्म उसी एक परमात्मा के तरफ जाने का रास्ता है; तव फिर स्वघर्म का त्याग कर, पर धर्म फे स्वीकार करने की गरज़ ही क्या है? वैसा फरना घोर घूर्खता ्रध:पतन है। संपूर्ण धर्मों का सार “चित्त की शुद्धि” है। चित्त की शुद्धि विना, सभी धम-कर्मा श्रध्म' हैं। अरद्धायुक्त स्वर्मांचरण से चित फी शुद्धि अवश्य होती है। श्रीमत्ु मद्दाराज ने अपने हिन्दू धर्म के लक्षण यों बतलाए है;--

धृति: क्षमा दमो5स्तेयं शौच इन्द्रियनिग्रह:।

धीर्विया सत्यमक्रोघे दशर्क धरम लक्षणम ॥१॥

(१) ध्ृति अथोत्‌ बैये, ( २) क्षमा अथोत्‌ दयाछुता, (३ ) दम यानी मनानिम्रह, कुविचारों का दमन, (४ ) अस्वेय अर्थात्‌ चोरी करना (०) शौच का अथ कायिक वाचिक मानसिक साँस- गिक आर्थिक वगैरह सब प्रकार की-पविन्नता, ( ) इन्द्रियनिम्रह, (७) धी अर्थात्‌ सुबुद्धि, ( ८) विद्या यानी जिससे भाहान्धकार नष्ट हो, ऐसा ज्ञान (९ ) सत्य अथोत्‌ हँसी-दिल्लगी में भी मूठ बोलना और ( १० ) अक्रोध यानी क्रोध का करना अथात शान्ति;--ये धर्म के दश रक्तण हैं।

नियमितता ४8 [ १४९

यम-नियस अथोत सन तथा इन्द्रियनिमह करने बाछा पुरुष -

ही केवल धार्मिक अथात्‌ सदाचारी तथा त्रह्मचारी हो सकता है ब्रह्मचये से और धर्म के इन दस छत्षणों से अत्यन्त ही मिकट सम्बन्ध है इन छक्षणों से रहित पुरुष कदापि अह्मचारी हो ही नहीं सकता; धार्मिक पुरुष ही केवछ सदाचारी तथा त्रह्मचारी हो सकता है | सारांश धर्म ही आत्मोन्नति की जड़ है और इसी में ब्रह्मचय का सारा रहस्य है | जे धर्म की रक्षा करता है धम भी सब प्रकार से उसकी पूर्ण रक्षा करता है। अतः स्वधर्मनिष्ठ चना

“नियमितता”

नियम उन्नीसवाँ :---

प्रकृति स्वयथम्‌ नियम-वद्ध है। “कारण बिना कोई भी कार्ये नहीं होता” घस इसी एक वाक्य में प्रकति की अचरण्ड नियम बद्धता का परिचय मिल रहा है.। नियमितता यही प्रकृति का स्वरूप है। और प्रकृति के नियालुसार चढने ही में प्राणिमात्र का कल्याण है। अनियमित पुरुष सदा ढुःखी वना रहता है। स्वास्थ्य नाश के, जितने कारण हैं उन सब में “अनियमितता” यही प्रमुख कारण है। वहुतेरों के काम बढ़े ऊट-पटांग हुआ करते हैं। उनके न.सोने का कोई निमश्चित समय होता है, जागने का, नहाने का, खाने-पीने तथा पाखाने जाने का खेल, - वमाशे, नाटकों आदि सें रात रात जागते रहते हैं और इधर दिन भर सोया करते हैं--इस भ्रकार अपने नेत्र, नीति, पैसा ओर स्वास्थ्य पर अपने हाथ हुल्द्दाड़ी मार लेते हैं। ऐसी

१५० ] & अह्यचय्य हो जीवन है #8

» पेपरवादी से स्वांस्थ्य की तथा प्रह्मचय फी आशा करना व्यथे है। सेने-जागने, पाखाने जाने, नद्दाने, इेश्वर-पूजन, भजन करने खाने-पीने, पढ़ने पढ़ाने-घूमने तथा आराम करने आदि प्रत्येक कार्य का क्रम अर्थात्‌ नियमे बाँध लेने पर तुम्द बहुत जद भालत्ुम होगा कि तुम्दारा शरीर भी घड़ी की सुई की चार सेचल रहा है ओर प्रत्येक कार्य यंत्र के तुल्य सु्रपूवंक और उन्नतिग्रद हो रहा है। मन भी कर्तब्य-पालन से सुप्रसन्न बलिष्ट है| रद्दा है। निय- मितता से घूर्ख भी ज्ञानी, रोगी भी निरोगी, डुबंल भी प्रवर्ू, अमभागा भी भाग्यवान और नीच भी उच्च बन जाता दै। निय- मितता से मनुष्य में मनुण्यत्व एव' इंश्वरत्व प्रगट हे।ने लगता है। आज तक जितने मद्दापुरुष हुए एँ वे सथ नियम के पूरे पावस्द्‌ हुए हैं अनियमित पुरुष के हमने महापुरुष धना हुआ आज्ञ तक देखा है, सुना ही है। स्वास्थ्य-खुधार के जितने नियम संसार में घिद्यमान हैं, उन खब में “नियमित खमय पर काम करने का नियम”-सर्व-श्रेष्ठ है। अनियमित पुरुष कदापि निशेगो तथा ब्रह्मचारी नहीं हे! सकता | अतएव आरेग्य तथा ब्रह्मचय्ये की रक्ता के लिये नियमितता का पालन करना स्‍भाणिमान्र का प्रथम तथा श्रेष्ठ कत्तंग्प है यह नितानन्‍्त सत्य है कि “जिसका केाई नियम नहीं है उसके जीवन का भी कोई नियम नहों है ।”

& लंगोट बंद रहना $# [१५१

4 लंगोट बंद रहना

नियम वीसवाँ: --

वीरयरक्षा के लिये सदा सवेदा छूंगोट कसे रहना वहुत ही उपकारी है लंगोंट से मन शान्त होता है अण्डकोप बढ़ने नहीं पाते ) लंगोट दोहरा नहीं वल्कि एकहरा ही होना चाहिये जिससे “अनावश्यक गर्मी के कारण वीयेनाश हो। हंगोट पहनने से पुरुपल घटता नहीं, वल्कि अधिक शुद्ध अत्यन्त नियम-बद्ध होता है--इस वात को लूंगोट से डरने वालों को स्मरण रखना चाहिये, क्योंकि यह हमारा क्रीब २० वर्षों का स्वानु भव है

४77

/4 खड़ऊ नियम इक्कीसवाँ: -

पैर के अँगूठे के पास जो बड़ी नस है. उसका जननेन्द्रिय का बड़ा ही भारी लगाव है| वह नस यदि टूट जाय तो मनुष्य एक ही घंटे के भीतर मर जाता है | खड़ाऊँ से जब वह नस दबती है तब उसके साथ साथ काम-बासनायें भी दवने लगती हैं जूते की गन्दगी से जो जिन्दगी का नाश होता है, सो खड़ाऊँ से नहीं होने पाता। अक्सर सर्दी-गर्मी रोगादि पैर शिर इन द्वारों से ही प्रवेश करते हैं जूते में कितनी बदबू भरी रहती है इसका अचुभव जूते के पहनने वालों को भली भाँति होता है। इसी कारण ब्रह्म चारी को जूता पहनना सर्वथा मना है। जूते के टुकड़े टुकड़े उड़

१५२ ] 88 ब्रह्मचय्य ही जीवन है ४8

निज लता टाल

जाते हैं, परन्तु प्रेमी मनुप्य उस बेचारे का पिण्ड नहीं छोड़ते फिर रोग कामरिएु भी ऐसे पुरुष का पिण्ड नहीं छोड़ते यद्यपि बाहर से तेल-पानी और सज-धज के कारण ऐसा पुरुष वेश्या की तरह सुन्दर दिखाई देता हो, परन्तु उसका वह सौंदय शुप्तनरोग पाप से भरा रहता है और इस वात की सत्यता -थोड़ा सा निष्पक्त आत्म-संशोधन करने से तत्काल माल्म होती है। अस्तु ! सभी जगद्द पविन्नता आवश्यक है, इसमें कोई संदेह नहीं | खड़ाऊं से मनोविकार शान्त होते हैं, यह हमारा अनुभव है; तथा दृष्टि भी सतेज द्वोती है।पर हाँ, ऐसा रद्दी खड़ाऊँ पद्िनना चाहिये.जिससे कष्ट हो, खड़ाऊ' दलका घ॒ सुखप्रद्‌ होना चादिये। खड़ाऊ फा अच्छापन अथवा वुरंपन उसकी खू'टी पर सर्वथा निर्भर है। अतः खूटियों की गुण्डियाँ चौड़ी तथा स्रुखाचह हों

६६ पैदल चलना

नियम बाईसबाँ :-...

श्रह्मचय की रक्षा के लिये पैदल चलना आवश्यक वात है। व्यथ थोड़ी थोड़ी वात के लिये थोड़ी दूर के लिये विना आव- श्यकता के गाड़ी घोड़े, एकता, टाँगा, साइकिल इत्यादि पर चढ़ना निःसन्देह त्ह्मचये से नीचे गिरना है। साइकिल पर बैठने से तो महाचय तथा स्वास्थ्य को वहुत हानि होती कैसी ही दिशा मारे होती हो परन्तु एक भील तक साइकिल पर बैठ के जाने से ही

४8 लोक-निन्‍्दा का भय [ १०३

वहः दव जाती है; अब कहो ! फ़िर स्कास्थ्य की आशा कहाँ? साइकिल पर बैठने से जननेनिद्रय की निचली नसों पर बड़ा कठोर दवाव पड़ता है, जिससे मनुष्य का पुरुष-बल -घटने छूगता है। साइकिल पर विशेष बैठने वाले विशेष नासद एवं नपुंसक होते है।

आंराम-तलब पुरुष सात जन्म में भी अह्मचारी नहीं हो सकता और इस बात को पता धनी छोगों पर दृष्टि डालने से तत्कारू ऊूगता है | घनी पुरुष दमेशा बहुत दु:खी, बड़े लंगड़े ' और बहुत काम के कारण वेकाम बने हुए होते है। वे सदा सब दा रोगी दी बने रदते हैं। हे सगवन ! पैद्ल ददलने का भद्दत्व इन छोगों के ध्यान मे कब आवेगा और उनका' तथा देश का उद्धार कब होगा ? हमें अब शीघ्र जाग्रत कीजिए, यही आप से हमारी नप्न पाथना है !

.. “लोक-निन्दा का भय

नियम तेइसवाँ

इस भन्थ में वर्णन किए हुए “वीय-नाश के कुछ मुख्य लक्षण” वार बार पढ़ा और शीशे में अपना मुंह ज़रा देखो घमण्डी बनने के भाव से नहीं, किन्तु घमण्ड को दूर करने के भाव से देखों। यदि तुम्हारे नेत्र, नाक के कोने के पास काले होने लगे हों वो उन्हें वीये के नाश से और भी काठे सत वताओं और फिर अपनां काला मुँह लेकर अकड़ कर समाज में घूस्ों; चुद्धिमान पुरुष तुम्हें देखते ही पहचान लेंगे कि तुम कितने वरबाद हुए हो; भत्रा आब इस अथ को पढ़ने वाले पुरुष से तम छिप सकोगे ? क्‍या

१५४ ] & अद्मचय्ये ही जीवन है ६8

साबुन से वह नेत्र के काले धब्बे निकल सकेंगे ? कदापि नहीं! सभ्य स्री-पुरुप या वाछक को अपनी ऐसी पतित दशा देखकर-- अपना काला अँदद देखकर 'निःसंदेह वड़ा ही दुख होगा--उन्हें कृत कर्मों ' का पछतावा होगा प्रिय मित्रे। ! तुम्हें यदि सच्चा पछतावा होता हो तो हम आप को इसकी अत्यन्त सुलभ ओऔपधि बतलाते हैं कि “बीय-रक्षा करो” वस, यही इसकी सुलभ अनुभव-सिद्ध ओपधि है | जितत्ा अधिक तुम वीये धारण करोगे उतना ही अधिक तुम्दारा मुँह उज्ज्वल वनता जायगा। आँखों की वह कालिमा नष्ट होती जायगी और जितना अधिक तुम वीय-नाश करोगे उतना दी अधिक तुम्हारा मुँह काछा वनता जायगा | यदि तुम छः ही मास वीर्य-संग्रह करोगे तो तुम्हारे तन, मन दोनों पवित्र वन जॉयथगे और चेहरा स्वच्छु वन जायगा, पूर्ण विश्वास रक्खो। जब से तुम वीर्य धारण करने छूगो तब से ऐसी हद भावना खो कि:-- “हमारे नेत्र स्वच्छ हो रहे हैं ।” ( नेत्र पर से हाथ घुमाकर कहो कि--) अब कालिमा नष्ट हो रही है। सूर्य के भाफिक भेरे नेत्र तेज संपन्न हो रहे हैं मेरी दृष्टि पवित्र हो रही है--पाप दृष्टि नष्ट हो रही है में निष्पाप हूँ ! पवित्र हूँ !! तेजस्वी हूँ!!!” इत्यादि | तुम इस अन्थ सें के द्व्य नियमानुसार चलने से वीये-रक्षा प्रतिक्ञापुवक कर सकते हो, ऐसा हमारा अत्यन्त दृढ़ अनुभव है | आणायाम से दृष्टि अत्यंत तीत्र होती है। हाँ, कीति की तथा आत्मोद्धार की सच्ची इच्छा ज़रूर होनी चाहिये | 'लोक निन्‍्दा का भय वीयनाशकारिणी कछुद्दत्तियों को रोकने के लिये अति उत्तम उपाय है'--ऐसा सज्जनों को अनुभव है

, के ईश्वर भक्ति के [ १५५

“हैश्वर भक्ति” नियम चौबोलवां :-

अ्पि चेत्छुदुराचारों भजञते मामनन्‍्यभाक्‌ | साधुरेव स॒ मन्तव्य: सम्यगृष्यवसितादि सः ॥शा ज्षिप्र' भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निमच्छति कौन्तेय भ्रतिजानीद्दि मे भक्त: प्रयुश्यति २॥॥ “गीता अ० शछो० ३०--३१। अथ:---कितने ही दुराचारी क्‍यों हों; परन्तु यदि वह “एक निष्ठ भाव से! भजता है तो उसे साधू ही सममना चाहिये; क्योंकि उसकी चुद्धि का निश्चय अच्छा हुआ है | वह बहुत शीक्र धमात्मा होता है. चिर-शान्ति को आप्त होता है। हे कौन्तेय ! तू पूर्ण ध्यान में रख कि “मेरे भक्त की कभी अधोगति हो ही नहीं सकती ।” संतप्त मन को शान्त करने के लिए और अपवित्र मन को पविन्न सब श्रेष्ठ बनाने के लिए “भगवद्धक्ति” एक मात्र सब से श्रेन्‍्ट सुलम सच्चा उपाय है अन्य उपाय कप्ठप्रद हैं। अतणव * आत्म-शुद्ध्यर्थ भगवान का स्मरण, ध्यान, यान, आदि आप को रोज अवश्य ही करना होगा | जैसी हमारी भक्ति होगी वैसी ही हम में विरक्ति भी प्रकट होगी “(हरि व्यापक सवत्र समाना, श्रेस ते प्रकट होहिं मैं जाना ।” श्रद्धामया5्यं पुरुषो या यच्छ दूकक एवं सः |” यानी “मनुष्य श्रद्धामय है; जैसी उसकी श्रद्धा होती है

... # भक्तियोगेनमन्निप्ोमद्दावायोपपदयते ॥-- भगवान्य श्रीकृष्ण

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१५६ ] &$ त्रह्मचय्य ही जीवन है. +

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ठीक बैसा ही वन जाता है” ऐसा भगवान का भी वचन है। क्रोंधी भाव से क्रोधी, कामी भाव से कोमी, अभिमानी भाव से अभिमानी, व्यमिचारी भाव से व्यमिचारी, प्रेमी भाव से ओमी; ब्रह्मचारी भाव से श्रह्मचारी ईश्ंरी भाव से मनुष्य भी निसन्देह इंश्वररूप बन जाता है। वास्तव में मन जिसका ध्यान करता है, वह तद्रूप ही घन जाता है। दोपबर्णन से मनुष्य जैसा दोपी घन जाता है, वेसे ही सदृगुण वर्णन से मनुष्य भी निस्सन्देह सदूगुणी बन जाता है। तब फिर भगवान्‌ के गुण वर्णन करने से और उसी का नियम पूर्वक ध्यान करने से हम प्रयत्ञ भगवद्रूप ही क्‍यों वन जॉँयगे ? अवश्य बन जायँगे यदि हम हनुमान जी का ध्यान और शुणगान करेंगे तो हम भी उन्हीं के समान भक्त न्रह्मचारी अवश्य वन जाँयगे अतएव अ्मचारी को चित्त-शुद्धि के लिये रोज “नियम- पूवक सुबह शाम दोनों वक्त भ्रगवद्धजन, पूजन, स्मरण ध्यान आदि अवश्यावश्य करना ही चाहिये; क्‍योंकि भगवान कहते क्षेरी भक्ति करने वाले मेरे ही स्वरूप में आकर मिलते हैं. और स्री की भक्ति करने वाले स््री-रूप में वा शूकर कूकर के रूप में जा सिलते हैं “विषय विरक्तत बस, इसी एक शब्द में संपूरों नह्मचर्य का सार भरा हुआ है जो कि “भगवद्भक्ति” से हर किसी का सहज ही में “निसन्देह” प्राप्त होती है। आत्मोद्धार चाहने बालों को अवश्य अनुभव करना चाहिये |

भेजन के अत्येक कौर से जैसे भूख की शांन्ति शरीर की पुष्टि वथा कान्ति बढ़ती जाती है, वैसे ही ज्यों ज्यों भक्ति का सेवव किया जाता है, त्यों त्यों विरक्ति मुक्ति भी महुष्य को निस्सन्देंह प्राप्ति होती रहती है

#े ईश्वर भक्ति के [१५७

संत्ञेप में कहा जाय तो, विषय-वैराग्य ही भाग्य है और वही शान्ति का मूल है। आचार्य कहते हैं:--/दुखी सदा कः १” खदा डुखी अभागा कौन है ? “विषयाजुरागी,” जो विषधासक्त है सतत | “शान्ति शान्तिमात्वोति नकाम कामी” भगवान कहते हैं;--"कामी पुरुष कदापि शान्त नहीं दो सकता,” विषयवासना ही संपूर्ण डुःखों की ज॑ड़ है और विंषय-वैरांग्य ही संपूर्ण खुखों की एक मात्र कुझ्छी है। और यह विषय-बैराग्य किया विषय विरक्ति सगवान की सक्ति से हमें निस्सल्देह प्राप्त होती है, ऐसा असंख्य महापुरुषों का तथा भ्रीवुल्सीदास जी जैसे कट्टर मदाभक्त का स्वानुसाविक सिद्धान्त है-“प्रेम सक्ति जरू-बिद्य खग राई, अभ्यन्तर भर कवहु' जाई ।” अहृह ! बहुत ही खत्य सत्य वचन अरू नप्नता परतिय मात समान! | इतने पर हरि ना मिल तुल्सीदाल जमान १॥| अतः यदि हमें अपना उद्धार करना हों, अपने मन को दुरुस्त करना हो, परम शुद्ध परम श्रेष्ठ बनाना हा, तो “रोज़ नित्य नियम पूवेक” परस कृपाछ परमात्मा का भजन, पूजन हमें अवश्य ही करना चाहिये | मगवद्भक्ति ही सव दुःखों से मुक्ति पाने का तथा चित्त शुद्धि का सर्वेश्रे्ठ उपाय है; और चित्त शुद्धि ही ऋह्मचर्य का सच्चा रहस्य है।

१५८ ] 88 ब्रह्मचय्य ही जीवन है

[ ॥०

“निल्य नियमावली का पाठ वियम पदत्चीसवाँ :---

रोज़ प्रातः इस त्रद्मचर्य की नियमावली का अवलोकन पठन

करना कभी भूलना चाहिये; क्योंकि इसी में त्ह्मचये रक्षा का सार है--इसीमें चतावनी है. इसीमें त्रह्मचय के संस्कार है| निय- सावली को एक बार “प्रातःकाल में रोज़ देखो ? बहुत उपकार द्वोगा हम विश्वास दिलाते हैं कि यह आपका “नियम दशन वा पठन कभी निष्फल नहीं हे।गा,” तुम्हें वह अवश्य वलपूर्वक सन्मा- गंपथ पर घसीट कर ले आवेगा | इत्तना ही नहीं वल्कि यदि कोई इस नियमावली का सतत एक वर्ष तक पाठ शुरू रक्खेगा ते उसमें क्या ही ऊँचे भाव पैदा होंगे इसका खुद उसी को अछ्ुभव हो जावेगा, हाथ कंगन को आरसी कया ? हम अ्रतिज्षापूवेंक कह सकते हैं कि यह पचीस नियम वा “क्चर्य-नियम पचीसा' मुर्दे को भी चैतन्यसयी बचा सकता है! बस ! इससे अधिक क्या कहें | स्वयं अनुभव कीजिये ! <# | इति !

१६--सम्पूर्ण सुधारों का दादा अह्यचर्य्य

आजकल देश भर में शूरों की सेना बढ़ रही है। जिसे देखा वही व्याख्यानदाता और देशसुधारक बनता फिरता है। इधर-उधर मण्दकमंडली का टर टर॑कोलाहल सुनाई दे रहा है। कागज़ी घोड़ों के खुरों की खनखनाहट जोर शोर से कानों में घुस रही है

& सम्पूर्ण सुधारों का दादा अह्मच्य क.....[ १५९

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ऐसा मारछूम होता है मानों अब कोई वड़ा भारी कर्मचीर हमारी सहायता करने के लिये ही रहा है| परन्तु देखते हैं क्या “कुछ नहीं !” कोई देशभक्ति के बहाने, कोई देशकार्य के बहाने, कोई समाजख्वापन के बहाने, अपना अपना स्वार्थलाधन कर रहे हैं। कोई ऐसे उदार पुरुष हैं, कि विना पैसे लिये व्याख्यान ही नहीं देते ? भला ऐसे देशभक्तिशून्य वाक्य पंडितों से देश .का क्‍या सुधार है| सकता है ? केवछ बातों के लडडुओं से कौन तृप्त है| सकता है हमें ऐसे प्रत्यक्ष निःस्वार्थी कमचीरों की बड़ी भारी आवश्य- कता है, जिनके केवल मुख ही नहीं, वल्कि संपूर्ण शरीर ही हमारे सच्चे कतेन्य की हमें सच्ची शिक्षा दे सकते हैं एक आदर्श पुरुष देश का जितना सुधार कर सकता है, उस सुधार का एक सहखांश भी सुधार हज़ारों निर्वीय वाक्यपंडित अपने आयु भर के कोरे व्याख्यानों से नहीं कर सकते ! व्याख्यानवाज़ी से कोई कदाचित्‌ सममता हा कि भारत अब जाग उठा है, तो यह उसकी गलती है। भारत जैसा पहले था वैसा ही आजभी है; हिन्दुस्तान पहले की तरह आज भी ठण्डा ही है। विशेष फ़रक हुआ है से यही कि वह पहले से आज अधिक बड़बड़ करने लगा है | भारत में अयक्ष दिःस्वार्थी कर्मवीर वहुत ही कम दिखाई देते हैं; स्वयं दुराचारी, अत्याचारी दम्भी होने पर भी अपने को सदाचारी ओर बह्म- चारी सममना तथा लोगों के नेता हैेने का दम भरना; इससे सुधार ते नहीं वल्कि भारत का विगाड़ ही अधिक हुआ है और हेता है| वग्रेर नीतिवल के--चारिज्यवछ के--कोई पुरुष कदापि श्रेष्ठ यशस्त्री है| ही नहीं सकता, यह अटल सिद्धान्त है। और नीतिवल, चारिज्यवल किंवा आत्मवरछ; विना अह्यचये के धारण

१६० ] . ४8 त्रह्मचय्स ही. जीवन है के. -

किये सप्तजम्म में भी प्राप्त नहीं है। सकता, यह भी उतना ही सत्य सिद्धान्त है। अपने को नेता समझने वाले बड्ढे बड़े लोग आज दो चार ही नहीं वल्कि सैकड़ों सुधारों के पीछे . पढ़े. हैं। कया सामाजिक, क्या धार्मिक, कया.व्यवह्ारिक, कोई भी सुधार क्यों हो, परन्तु बिना इस एक विपय.में अथोत्‌ ब्रह्मचर्य में सुधार किये, कोई भी सुधार कदापि चिरस्थायी यशस्वरी हद नहीं सकता यह सिद्धान्त वाक्य हमें हृदय पट में अंकित कर वा कर द्ष्टि के समाने चड़े बड़े अक्षरों में टैंगवा कर रखना चाहि# ओर, रोज़ उसका दशेन करना चाहिये। ज्ञणिक सुधार किस काम का पानी पर लकीरें ख़ीचने से क्या सतलव जड़ को छोड़ कर डाल और पत्तियों पर पानी छिड़कने से क्या लाभ यह नितान्त सत्य है कि, सम्पूर सुधारों की और यश की कुजी एक मात्र ब्रह्मचये ही है। बिना वीयेघारण किये कोई भी जाति कदापि उन्नत नहीं हे सकती निवीय जाति दूसरों की सदा गुढम ही वनी रहती है। यदि हमें गुछामी को जड़ मूल से हटाना हो, हमें स्वतंत्र, सुखी, सत्ताशाली ओर वैभवसपन्न बनना हो और पहले की तरह पुनः श्रेष्ठ बनना हे ते हमें पहले के समान पुनः वीयेसम्पन्न अवश्य ही बनना होगा ! बिना ब्रह्मचये धारण किये हम कदापि पूर्व वैभव ग्राप्त नहीं कर सकते अक्मचये ही सम्पूर्ण उन्नति का वीज मंत्र है ! ब्रह्मचय ही सम्पूर्ण सुखों का निधान है !! ब्ह्मचय ही एक मात्र सम्पूर्ण सुधारों का दादा है !!!

& हमारी भारत माता $# [१8१

२०--+हमारी भारत भाता

अब स्पष्ट मालम हो गया है कि केवल त्रह्मचये धारण ही में हमारा तथा देश का सच्चा कल्याण है, पुनरुद्धार, है। अह्मचये ही से हम पुनः सिंह' बन सकते हैं अद्मचय ही से हम सभी को भय- भीत कर सकते हैं, त्रह्मचये ही से हम सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं 7*ग्वये ही से हम स्व॒तंत्र तथा सम्पूर्ण जगव के स्वामी बन सकतेसे, यही नहीं वल्कि शक्षचर्य ही से हम परअह्म को भीं वशीभूत कर सकते हैं फिर सामान्य लेगों की कथा ही क्‍या है

जे भारत एक समय सिंह-तुल्य निर्भय, स्वतंत्र बलिष्ट था; . जिसके गजन तजन से सम्पूर्ण दिगू मण्डल कांप उठता था, जिसके तरफ कोई भी राष्ट्र आँख उठा के नहीं देख सकता था, जिस भारत में मणि. मौक्तिक के खिलोने हमारे हाथ में रहते थे, उसी भारत में आज हमारे हाथ में की रोटी का डुकड़ा भी छीन छूट कर और मार पीट कर दूसरे लेग ले जा रहें हैं और हमें भूखों मार रहे हैं हांय।! इससे बढ़कर और दुःखमय स्थिति कोन सी हे सकती है ? आज हम बकरी के माक्रिक बन गये हैं; जो आता है सेई , हमें हलाल करता है। हम अपना सच्चा सिंह स्वरूंप' भूल गये हैं। हमारे में पूर्वजों का वीये नहीं दिखाई देता; हम आज निर्वीये से हागयेहैं।

/ मेरे परम प्रिय भाइयो और वहिनो ! अब आँखें खोलों ! जागों ! बिपय की सोहनिद्रासे अति शीघ्र जागो। और अपनी तथा देश की स्थिति पर कृपादृष्टि डालो ! हमारी असहाय भारत माता

'आऑँसू-भरे नयनों से आशायुक्त अन्तःकरण से हमारी तरफ़ देख ११

श्धर ] & म्रह्मचय्य द्वी जीवन. है $ः

रही है। भाइयों ! अपनी इस परमप्यारी भारत मातां को अब दास्य से मुक्त कीजिये, उसका वैभव उसे पुनः श्राप्त कर दीजिये ! भारत की स्वतंत्रता एक मात्र हमारी खतंत्रता के ऊपर सवंथा, निर्भर है और हमारी स्वतंत्रता एक मात्र विपय की गुलामी छोड़ने में अथोत्‌ पूर्वजों की तरह वीये धारण करने ही में है

जैसे कोई गत-वैभव असहाय विधवा अपने एकलौते पुत्र पर सुख की आशा रखकर दुःख में दिन विताती है, उसी प्रकार यह परम दुखी भारत-माता भी तुम जैसे बालकों पर सुख की आशा रखकर जीवन धारण किये हुये है और बड़े कष्ट आपदा को सह रही है। वह अब कहां तक धीरं पंकड़ेगी सालूम नहीं | चेतावनी

“तू सिंहशावक हिन्द्वालक ! छोड़ अपनी भीरुता पूजा के तुल्य जग में अब दिखा दे वीरता १॥ “वीर्य ही में वीरता है वीय॑ धारण अब करो। आयेमाता दास्य में है दुःख उसका तुम हरो २॥ “आ्राणधारण कर रही है बाट अपनी हूढ रही | हाय ! तो भी हिन्दजनता विपयसुखमें सो रही ) “घोर निद्रा छोड़ करके जग उठो अब एक दूम | *-' आयपुन्नो | शीघ्रता से अब बढ़ाओं निज कदम || दासता से म्रत्यु अच्छी दीनता को फेंक दे। राज्य अपना आत्म-चल से आप्त कर दिखलाय दे '

& हमारी भारत माता के [ १६३

“दीयही में वीरता है ! बाहुबल है !! राज्य है ||! आत्मवल # में मुक्तता है! और मारगत्याज्य है॥।

अतणव वीर-पुत्रो ! अब ऐसा मुदापन छोड़ दा | सर्व अपने पूषजों की तरह शह्यचर्य धारण कर, वीय॑वान और नरसिंद वन कर अपनी हुःखी माता को अब तत्काल मुक्त करों व. मुक्त करके उसे उसके पू्व वेभवयुक्त स्वातत्य-सिंहासन पर आदरपूक विठला दो। अहह ! क्‍या ही वह आनन्द का दिन होगा! अ्रभे ! अब कृपा करो ओर “वह शुभ दिन” अति शीघ्र दिखलाओं !

परमात्मा तुस्दें सुवुद्धि तथा चल प्रदान करे ऐसा हमारा आप

को पूर्ण प्रेमाशीवाद है

क! . - अप

“बताओ मुझे; देश फाई कहीं, इसी हिन्द का दो ऋणी जो नहीं १॥ “जहाँ थे भीष्म भीम जैसे वी छुखी, दी्घजीवी, शुच्री, निच्छुली २॥ “रहा विश्व में जो बड़े से बड़ा ! वी देश ! दवा ! श्राज नींचे पड़ा ३॥

#ग्रात्मल यानी अपना बल, सच्ची स्वतन्त्रता अपने ही बाहुबल से मेल सकती है श्र चिरकाल तक उपभोगी जा सकती है! दूसरों के बल मिली हुईं स्वतन्त्रता परतन्त्रता के तुल्य ही होती है; क्योंकि वह बिना त्मवल के- अपने बल के--बहुत॑ कोल तक आपने पास रह ही नहीं कती | घारांश “बल में चल अपना ही बल ?” .

१६४ ] & ब्रह्मचय्य दी जीव॑न है ६8

“धवचाओ उसे जोश जी में भरो, उठो भसाइयो ! घीय रच्ता करो ४॥ वोय रक्षा ही श्रात्मोद्धार है वीय रक्षा ही देशोद्धार है !! वीय रक्षा ही स्वर्गद्वार है !!! संपूर्ण गुलामिओं से मुक्ति पाने का एक मात्र दिव्य साधन है। - “किस काम की नदी वह जिसमे नद्दों रवानी। जो जोश दो है। ते किख काम की जवानी ॥शा .'

बस प्यारे ! सब की जड़ एक मात्र ब्रह्मचय ही है | अह्मचय ही से त्रह्म की प्राप्ति होती है और त्ह्मचयय द्वी से मनुष्य काल को जीत लेता है | इसके लिये वेद का प्रमाण-- “ब्रह्मचयेंण तपसा देवा खुृत्युमुपाप्नत्‌। इन्द्रोह ब्रह्मचयेण देवेश्यः स्वराभरत्‌॥ १॥ अथवेबेद १००५-१९

ऋषियों ने त्रह्मचयय के तप ही से मत्यु को जीत लिया और

ब्रह्मचय ही. से उन्हें आत्मप्रकाश भी हुआ है अथात्‌ वे ईश्वरत्व को प्राप्त हुये हैं ।” |

धउत्तिष्ठत ! जाग्रत !]-प्राप्यंवरान्षिवोघत !!!

“उठो | जागो !! और खद॒वेध रूपी

इस मद्दाप्रसाद्‌ का यथेष्ठ सेवन करे !!]

उंशान्तः पुष्टिस्तुष्टिश्चास्तु बऋह्मापणमस्तु !

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के परिशिष्ट पे [१६५

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भैतग-चिकित्सा

ब्रह्मचय्ये त्रत पाछ॒न के विषय में पिछले परिच्छेदों में सब कुछ लिखा जा चुका है। परन्तु हमारे कुछ ऋपाछ पाठकों वथा मित्रों ने हमें सम्मति दी है कि इसमें योग-चिकित्सा विषय पर भी एक अध्याय होना चाहिये | विचार करने पर हमें भी उनकी सम्मति उचित अतीत हुईं | इसलिए हम यहां परज्रह्मचय्य त्रतपालन के लिए, योग-चिकित्सा के विषय में भी कुछ बता देना आवश्यक सममभते हैं !

हमारे प्राचीन सद्भन्थों में योगाभ्यास की बड़ी महिमा पर्णित है। योगाभ्यास से शरीर के समस्त दौप दूर हो जाते हैं। यही नहीं, हमारे प्राचीन साहित्य में तो इस वात तक के प्रमाण मिलते हैं कि हमारे पूर्वज ऋषियों ने मृत्यु तक को. इसी योगाभ्यास द्वारा जीत लिया था | हमारा अतीत इतिहास यह प्रमाणित करता है कि हमारे पूर्वज इच्छासुसार दीघोयु लाभ करते रहे हैं।. आज कल जब कभी हम सुनते हैं. कि अम्ुक पुरुष की आयु सौ वर्ष से अधिक की है तो हमकों आश्चर्य सा होता है। पर हम इस बात का विचार नहीं करते कि हमारे पूंवेजों की आयुं तो श्रायः सौ वर्ष से ऊपर हुआ करती थी ।- वात यह है कि हमारे पू्वज योगाभ्यास . क़रते,हुए इच्छाहुसार स्वास्थ्य ल्यभ,करते थे। ऐसी दशा में दीघायु प्राप्तहोना क्या कृठिन था १, . है 2. रे >

१६६ “| # ब्रह्मचय्य ही जीवन है. #

पांठखल येग-सूत्र में योग के आठ अइ बतलाये है। यथाः-- ध्यमनिय पा खंन प्राणायाम, प्रत्यादार धारणाध्यान | समाधियोष&ष्टावज्ञानि? :

अथोत्‌ यम, नियम, आसन, ग्राणयाम, अ्रत्याहार, धारण, ध्यान ओर समाधि इनमें भी आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि ये पांच अंग ही मुख्य माने गये हैं। प्राचीन काल में हमारे देश में थोड़ा बहुत योग का अभ्यास रखने का प्रचलन था | इसी कारण उस काल में हमारे पूवेज मानसिक और शारीरिक बल प्राप्त करके पूर्ण स्वस्थ रहते ओर पूर्णायु को प्राप्त होते थे | जिन रोगों पर औषधियाँ काम देती थीं, याग-साधंन से वे उन रोगों से भी मुक्त हो जाते थे | अविद्यां से ज्यों ज्यों शने: शनेः याग-विद्या का लोप होता गया, देशवासियों ने स्वास्थ्य और फलतः दीघोयु का द्वाला निकाल दिया आसन और आखणायाम योग के सब से मुख्य अक्ञ माने गये हैं कितने खेद की बात है कि इन ' दोनों के दोनों येग-साधनों कां लोप सा होगया है। अनेक धार्मिक सज्जन महानुभाव प्राणायाम तो येन केन प्रकारेण कर भी लेते. हैं, पर यागासनों का तो सर्वथा लोप होगया है पर प्राणायाम आत्म- शुद्धि के लिए जितना आवश्यक है, योगासन शारीरिक विकास के लिए उससे भी अधिक उपयोगी है कहा भी है--

“आखसनानि समस्तान, सावन्तो जीव जन्तव; चतुरशीति लक्षाणि, शिवेनकथितंपुरा

येगासनों का अभ्यास शौच, स्नान, व्यायाम आदि से-निपट कर विना कुछ खाये-पिये, प्रातःसाय ऐसे स्थान परः करना चाहिये,

, के सिद्धासन के [१६७

जहाँ झद्ध वायु विपुलता से आती हो और प्रकाश भी पय्याप्त हो। थों तो.यागासन अगशित हैं | येनियों की संख्या चौरासी लाख है यानियों की संख्या के अलुसार ही चौरासी लाख योगासन यागिराज भगवान शहर ने बतलाये हैं; पर उनमें चौरासी मुख्य हैं। योगी और महात्मा लोग इन चौरासी आसनों का अभ्यास करते हैं | पर साधारण जीवन में त्रह्मचय्य ब्रत पालन के लिए इन सभी आसनों का प्रयोग आवश्यक नहीं है। इस लिए हम यहां पर उन्हीं मुख्य आसनों का वर्णन करेंगे, जिनसे प्रह्मचय्य- सत्ता में अपेक्षित सहायता मिल जाती है |

(१) सिद्धासन-

पहले पल्थी मारकर बैठ जाइये फिर वाँयें पैर की एड़ी को शुदा और अण्डकोपों के मध्य में, मजबूती के साथ जमा दीजिये इसके बाद दाहिने पेर की एड़ी को लिंग फे ऊपर, मूल में, जमा दीजिये ठोढ़ी को हृदय में, अथोत्‌ कंठमूल से थोड़ी दूर लगाइये और, स्थिर होकर शरीर को सीधा कीजिये, फिर भौहों के मध्य में दृष्टि को ऐसा स्थिर कीजिये कि पलक और नेत्र बिलकुल हिल- छुल सके | हाथों को घुटनी पर रख लीजिये। दोनों पैर एक दूसरे पर इस तरह जाने चाहिये कि दोनों की संधि-स्ान की हृड्डियाँ ठीक एक दूसरे पर जायेँ | इस समय श्वास-अदहृण और श्वास-त्याग की क्रियायें बहुत धीरे .धीरे शान्ति के साथ होनी चाहिये। इस आसन का अभ्यास करते समय इस वात. का- ध्यान

१६८ || 88 त्रह्मचय्य ही.जीवन है 88

रंखना आवश्यक है कि पीठ की रीढ़ सीधी रहे | पीठ की रीढ़ में शरीर की सारी नसें फैली हुई हैं इसी को मेरुदंड कहते हैं। शरीर का यही मूलाधार है। साधारण रूप से चलते फिरते समय भी इसको सीधा रखना चाहिये

यह आसन एक .मास फे निरन्तर अभ्यास से लाभग्रद्‌ सिद्ध होता।है। पर. इस आसन का अतिशय अभ्यास हानिकारक भी होता है क्‍योंकि यह आसन कामोत्तन का नाशक है। अतिशय अभ्यास से इसका प्रभाव सन्तानोत्पादन शक्ति को इतना क्षीण वना देता है कि काम बिल्कुल शान्त पड़ जाता है। और पुरुष स्त्री के काम का नहीं रह जाता पर इस भय से इस आसन का करना ही स्थगित कर देना ठीक नहीं है| अह्मचय्ये के लिए यह आसन अतीव लाभकर है | अति तो सर्वत्र और सबवदा वर्जित है। इसलिए इसका थोड़ा अभ्यास अवश्य रखना चाहिये |

: * (२) पत्मासन

इस.आसन में भी पहले पलथी मारकर बैठ जाइये, फिर दाहिने पैर को बाई जाँघ पर और बायें पैर को दाहिनी जाॉँघ पर जमा दीजिये। फिर बाँया ह्वाथ बायें घुटते पर और दाहिना हाथ दायें घुटने पर रखिये,।। इस आसन में पीठ, गला, सिर, रीढ़ बिल्कुल सीध में होनी चाहिये. अपनी दृष्टि को-भौहों के. बीच या नासिका पर लगा देना चाहिये। : . रह

है. अर:

के ब्रह्मचय्य ही जीवन है 89

चत्र नस्वर

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& प्रह्मचय्ये ही जीवन है:

$ जाड शिरासच के [१६९५

(३) जानुशिरासन

इस आंसन सें पहले दोलों पावों को जुमीस .पर -समान रेखा में फैला दीजियें! पाँव जमीन से इस तरह चिपके रहने. चाहिये कि विल्कुल उठ सकें। इसके वाद किसी एक पैर को शुद्रा और अण्डकोण के वीच में लाकर उसकी एड़ी को वहाँ इस तरह जमा दीजिये कि उस पैर का पंजा और तलवा दूसरे पैर के जंघा से बिल्कुल चपक जाय। उसका द्वाव भी वरावर पड़ता जाय इसके वाद दोनों की केंची बनाकर उन्हें फैले हुए पैर के तलचे के यहाँ ले जाइये और उस पैर के इस तरह पकड़ लीजिये कि आपकी नाक ठीक उसी पैर के घुटने के ऊपर जाय | यह आसन पाँच मिनट से लगाकर आध घंटे तक, या जैसी सामथ्य हो, उसके अनुसार करना चाहिये

यह आसन यदि पहले दाहिने पैर से 'कीजिए, तो फिर वायें पैर से | इसी तरह चदलते रहिये। इसमें भूल नहीं होनी चाहिये भूल होने से हानि होगी वात यह है कि दोनों पेरों का अभ्यास वरावर होना चाहिये इसमें अत्येक्त वार समय भी समान लगना चाहिये

यह आसन स्त्रियों के लिए नहीं है

१७० ] के भक्षचय्य ही जीवन है. $

(४) पादांशुश्सन

[

इस आसन में किसी एक पैर की एँड़ी के गुदा और अंडकोप के सध्यभाग में लगाकर शरीर के समस्त भार के उसी पर छोड़ दीजिये दूसरे पैर को घुटने के ऊपर रखिये। अगर सहारे की आवश्यकता हो तो या तो एक हाथ का सहारा लीजिये, यः दीवार का |

“इस आसन का प्रभाव बहुत शीत्र होता है। इसके अभ्यास से कैसा ही स्वप्नदोप हो दूर हो जाता है पर इस आसन को ब्रद्मचारी ही को करना चाहिये। गृहत्धों के लिए इसका निरन्तर अभ्यास करना विशेष हितकर होगा। ज्लियों के लिए यह आसन वर्जित है

(५४) शीर्षासन

.. इस आसन में सिर के बल खड़ा होना होता है। इसलिए या तो एक गदेला रख लेना चाहिये, या किसी वस्र की ऐसी गिंडुई बना लेना चाहिये जो सिर के वल खड़े होने में सहायक दो मतलब यह है कि इस आसन के समय सिर के नीचे सख्र ज़मीन नहीं होनी चाहिये सख़ ज़मीन होने से मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव पड़ने का भय रहता है इसलिये यही अच्छा है कि इसका आसन बहुत मुलायम ओर गुदगुदे घरावल में करें। आरम्भ में यह आसन दीवाल का सहारा लेकर किया जाता है। अगर इस आसन के

के ब्र्मचय्य ही जीवन है के

चित्र नम्बर

48 ब्रद्मचग्य दी जीवन है

चित्र नम्बर

आसन

इस आसन सें तो एक गदेला रख हे बना लेना चाहिये जो वतन यह है कि. नहीं होनी चाहिये सख् * का भय रहता है। इसलि.., शीर्षासन मुलायम और गुदगुदे धर | दीवाल का सहारा लेकर |

" शीपौसन $ [१७१

करते समय प्रारम्भ में मित्रों से संहायता ली जाय तो भी अच्छा है

इसमें पहले सिर को गदेले या गिंडुई में रखकर दोनों हाथों की केची वना कर सिर को अच्छी तरह साध लीजिये फिर दोनों पैर, के जमीन से वहुत धीरे धीरे उठाकर ऊपर आकाश में सीधे ले जाइये पैरों को विल्कुल सीधा रखिये

इस आसन को पहले १०-१५ ज्ञणों से प्रारम्भ करना चाहिये छः मास के अभ्यास के अनन्तर इसे आध घंटे तक लगाया जा सकता है। पर एक घंटे से अधिक इसे करना चाहिये इस आसन के कर लेने पर तो लेटना चाहिये और बैठना जितनी देर इस आसन में लगी द्वा, उतनी द्वी देर विल्कुल सीधा खड़ा रहना चाहिये | वात यह है कि इस आसन से शरीर की नसों का रुधिर-प्रवाह पहले थोड़ा रुकता है और फिंर उल्टा प्रवाहित होने को होता है। इसमें मस्तिष्क के खराक मिलती है और दिमागी ताक़त बढ़ जाती है जिस समय यह आसन किया जाता: है उस समय झुँह एक दम लाल हो जांता है

पहले वो यह आसन दी वाल के सहारे से ही ग्रारस्भ होता है; फिर जब दीवाल के सहारे से इस आसन को करते हुए एक सास तक अभ्यास कर ले, तव विना किसी का आश्रय लिए करनाः चाहिये | यह आसन शरीर के समस्त विकारों के नाश करता है। तरुणावस्था में जिन लोगों के वाल सफ़ेद हो जाते हैं, यदि वे इसका छः सास भी अभ्यास करें तो उनके वाल फिर काले हो

ज़ायेंगे।

१७२ )] & ब्रह्मचय्ये ही जीवन है 83

विशेष ४, 9 विशेष सूंचनाएँ

१--इन योगासनों का अभ्यास करते समय लघुपाक आहार अत्यन्त आंवश्यक है कंद, मूल तथा फलों का ही आहार किया जाय तब तो बहुत ही अच्छा हो, पर साधारण रूप से गौ क़ा दूध, चावल, खिचड़ी, दलिया, गेहूँ के मोटे आटे की रोटी, मूँग की दाल देशी सक्कर, सावूदाने की खीर, सूखी मेवा तथा हरे फल खाने चाहिये

. २-जन आसनों की “जो विधियाँ ऊपर बतलायी गई हें वे यद्यपि कुछ वंहुत कठिन नहीं हैं, तथापि -विना किसी अभ्यस्त शिक्षक के इनका अभ्यास करने से लाभ के बदले प्रायः हानि भी द्। जाती है इसलिए इन्हें शिक्षक या 'यागी -से - ही सीखना चाहिये |

३--इन आसनों का अभ्यास करते समय श्वास का -निकालनां और अहण करना--ये दोनों क्रियायें बहुत धीरे धीरे होनी चाहिये

४--यदि शरीर में वीय॑-सम्वन्धी कोई विकार हे तो इन आसनों.का अभ्यास करते समय शुद्रा-संकाचन पर विशेष ध्यान रखना चाहिये वीय-रक्षा का यह एक मात्र अव्यथै-महौोपध है।

५--जे लोग विधिवत्‌ ब्रह्मचारी नहीं हैं; अर्थात्‌ जिनका विवाह है| गया है, वे भी इनका अभ्यास करके अपने शरीर के नीरोग बना सकते हैं। पर इन आसलों का अंम्यास करते समय हृढ़ संयम के साथ वीय-रक्षा करना अनिवाय्य रूप से आवश्यक है

नवयुवकों को स्वर्गीय सन्देश पहुँचाने चाड़ी . छात्रहितकारी- पुस्तकसाला

की अनुपम, शिक्षाप्रद पुस्तके | (९) ईश्वरीय बोध---जगतविस्यात स्वामी विवेकानन्द के शुरू परमहंस भीरामेंूप्ण के उपदेशों का संग्रद है। एक एक उपदेश अप्तूल्यं हैं भशुष्यमात्र के लिये 'बहुत उपयोगी है। सघूल्य ॥|)- १2० ह।आी तप कि

(२) सफलता को कुझी---भीयुत स्वामी रामतीथे एम पएु० के “सीकरेट -आफ़ सक्सेस” नामक खेख का हिन्दी असुवाद | क्या आप अत्येक काय्ये में सफलता चाहते हैं? क्या आप को अपना जीवन खुखमय बनाना' है? यदि है तो इस.

पुस्तक को अवश्य पढ़िये मूल्य ।) , है

(३) सनुष्य जोवन की उपयोगिता--यद्द पुस्तक तिद्वत के भाचीन पुस्तकालय में पड़ी हुई थी, जिसे एक चीनी पं० ने खोज विक्राछा था और उसको चीनी भाषा में. अनुवादित किया था। पस्तुत पुस्तक उस चीनी पुस्तक का रुपान्तर' है। यूरोप की प्रत्येक भाषा.में इसके अज्ुवाद हो चुके हैं। इस विचित्र पुस्तक में जीवन की सब समस्याओं - और अवचस्थाओं पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। काम, क्रोध, 'लोभ, मोहादि

(२३)

विकारों फो किस प्रकार वश में करना चाहिये, इसकी समुचित शिक्षा दी गई है। पुस्तक की उत्तमता एक बार पढ़ने द्वी से ज्षात द्वोगी ( सूल्य ॥£) ' |

(४) भारतके दश रत्म---पद जीवनियों का संग्रद है। भीष्मपितामद, श्रीकृष्ण, मद्दाराणा प्रतापसिंद, स्वामी विधेकानन्द आदि दश महापुरुषों को जीवनियाँ बड़ी खूबी के, साथ संक्तेप में लिखी गई हैं। मूल्य प्रति पुस्तक का ८)

(५) ब्रह्म चय्य ही जीवन है--दिुस पुस्तक की प्श'सा खभी पत्न-पत्रिकाओं ने की है। अधिक लिख कर कुछ पतन्न: 'पविक्ताओं की सस्मतियां हम यहाँ उद्धुध्ुत करते हैं;-- : |.

“असभ्युदय” इस पुस्तक की विस्तृत समालेचना करते हुए अन्त में लिखता है:---'यद्द पुस्तक क्‍या है, नवयुव्कों के, लिये 'कहंपवृ्त है। दम “अभ्युद्य” के पाठकों से जोरों के साथ अज्ञः रोध करते हैं कि वे एक बार इस पुस्तक के। अवश्य पढ़ें और अपने बालकों के दे'। समरालोचक ने स्वयं इसे बीसों वार पढ़ा है पर तृप्ति नहीं हुई ।”

“प्रताप” लिखता है---/'इस पुस्तक में ब्रह्मचथ्ये के सम्बन्ध 'में छयमभग सभी ज्ञाठब्य वार्तों का समावेश किया गया है। अह्म- चय्य की मदिमा, अष्टमेथुन, वीर्य नाश के मुख्य लक्षण, ग॒दस्थी में अ्ह्मचय्ये, वीय्ये रक्षा फे नियम आदि का वर्णन अच्छे ढंग से किया गया है।****“'यद्द पुस्तक नवयुवककों के बड़े काम - की है। हम चाहते हैं कि प्रत्येक युत्र॒क इस पुस्तक के पढ़कर लाभ डठावे 7? |

(३)

( ) वौर राजपूत--यहद एक चीररस पूर्ण ऐतिददा- लिक उपन्यास है एक सच्चे राजपूत की वद्दाडुरी का जीता: जागता चित्र खींचा गया है इसे पढ़ कर कायर पुरुर्षों का हृदय घीररस पूछ।' दो जायगा | एक प्रति मंगा कर देखिये। छपाई सफाई सराहनीय है। ढाई खौ से अधिक पृष्ठों फी पुस्तक का दाम केचल १]

($ ) हम सौ वर्ष केसे जीवें---पुस्तक का विपय नाम दी से स्पष्ट है | इसमें चतलाया गया है कि दम छोग किस प्रकार सौ वर्ष की आंयु तक स्वस्थ तथा नोरोग रद्द कर जीवन के आनन्द का उपभोग कर सकते हैं। दम दावे के साथ कहते हैं कि हिन्दी मे यद्द पुस्तक अपने हंग की एक ही है। इसकी भूमिका 'आज' के विद्धान तथा यशस्वी “पादक पं० बावूराव विष्णु पराड़कर ने लिखी है, जो भूमिंका के अन्त में लिखते हैं: -- “ऐँखी उंपयेगी पुस्तक लिखने के लिए में श्रीयुत्‌ केदारनाथ गुप्त के बधाई देंता हूं। आशा है कि हिन्दी संसार इसका सम्तुंचित आदर करेगा तथा भारत की भावी आशा के अंकुर हमारे दोनद्वार विद्यार्थी इससे विशेष रूप से छाभ उठाचंगे !! * *

(८ ) भहात्मा दाल्मदाय की वैज्ञानिक कहा- नियां---विश्लान की शिक्षा देने वाली रोचक तथा मनोरञ्षक पुस्तक है। सूलय ।) पे

' (४) बोरों की सच्ची कहानियाँ---यदि आप के

अपने प्रांचीन. भरत के गौरव का ध्यान है, यदि आप बीर और

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प्रद्दाहर घंनना चाहते हैँ, ते ..इसे पढ़िये। इस में अपने पुरुषाओं की सच्ची चीरता पूण यश गाथाये पढ़ कर आप का हृदय फड़क उठेमा। नसों में चीर रस धवाहित होने लगेगा पुरुषांओं के गौरव का रक्त उबलने लगेगा स्कूल में बालकों के। इतिहास पढ़ाने में अपने पुरुषाओं की चीरता पूर / 'घटनाएं नहीं पढ़ाई जाती विदेशी पुरुषों फी प्रशंसा के द्वी पा८' , पढ़ाये जाते हैं। आवश्यकदा दे देश का फाई बालक ऐसे समय | इस पुस्तक के पढ़ाने से चूके | मूदय केघल ॥) .._ (९० ) झाहुतिया---पदह एक विलकुल नये प्रकार की नयी पुस्तक दे देश और घम पर धलिदान धोने घाले वीर किस प्रकार हँसते हँसते स॒त्यु का आवाहन फरते हैं ! उनकी आत्मायें क्यों इतनी,प्रवल द्वो जाती हैं ? वे मर कर भी कैसे जीचन का पाठ 'पढ़ाते है ? इत्यादि दिल फड़काने वाली कहानियाँ पढ़नी हों तो “आहइदियाँ” श्राज दी मेंगा लीजिये | सूल्य फेचछ ॥॥)

( ९९ ) जगमभगाते होरे---प्रत्येक आर्य खंतान के पढ़ने छायक यद्द एक ही नयी पुस्तक है यदि रहस्यमयी,. म्रनोरंजक, दिल में शुद शुदी पैदा करने. वाला मद्दापुरुषों की जीवन घटनाय पढ़नी हैं यदि छोटो छोटी बातों से ही मदापुरुष बनने को ज़रा भी अमिलाण दिल में है तो-एक बार/ अवश्य इस सचित्र पुस्तक को आप खुद पढ़िये और अपर्न स्वी बच्चों को पढ़ाइये। मूल्य फेचल १)

( ९३ ) पढ़े! झ्लोर हँसो--विषय जानने के लिंये पुस्तक

का नाम ही काफी है एक एक लाइन पढ़िये और छोट पो<* दीते जाये आप. पुस्तक अलग अकेले में पढ़ेगे; पर सरेद'

लक. 7 कक 22

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छोग समझे गे कि आज किससे यद कुहकृदा हो रहा है। पुस्तक की तारीफ़ यह है कि पूरी मनोरंजक होते हुए भी अश्लीकता का कहीं नाम नहीं यदि शिक्षा-प्रद मनोरंजक पुस्तक पढ़नी है तो इसे पढ़िये। मूल्य केचछ ॥)

(९३ ) कुसुस-कुझु--ऋविवर शुरू भक्त खिंद भक्त” छत फ़मनीय कविताओं का संग्रह है | ये फवितायें अपने ढंग की एकही है। मूल्य ।5)

(९४ ) चारुचिन्तामणि कोष--इस प्रुस्त्क में श्री गास्वामी ठुल्सीदास जी के सब श्रन्थों से उन भागों का संग्रह किया गया है जिनका सम्बन्ध श्री रामनामं से है। संग्रदकर्ता राम के अनन्य भक्त श्री जयरामदास जी हैं.। पुस्तक अपने दंग की पएकड्ी है। घूल्य।”)

सेनेजर छात्र हितकारी पुस्तकमाला दारागंज, अयाग

सस्ती साहित्य पुस्तकमाला . प्रकाशित पुस्तकें

धंकिम प्रस्थावदी-प्रथमं खंड--बंकिस बावू के आनन्द मठ, लोक-रहस्यं तथा देवी चौधरानी का अधिक अनुवाद . पृष्ठ संड्या ४९२ घू० १)

गोरा--जगत्‌ विज्यात रवीन्द्रनांथ ठाकुर कृत गोरा नामक पुस्तक का अविकल अज्ञवाद | पृष्ठ-लंख्या ६८८ सू० १८)॥ सजिर्द १॥५) |

बंकिम श्रन्धावछ्ी --छितीय खण्ड--वंकिम बावू के सीताराम और दुर्गेश बन्दिनी फा अधिक अनुवाद पृष्ठ संख्या ४३४ सू० ॥“)॥ सजिल्द १६) ;

चंकिम भ्रत्थाबलो--तीसरा खण्ड--बंकिम बाबू के कृष्ण फान्तेर बिल, कपाल कुएडछा, और रजनी का अधिकल अज्चुवाद पृष्ठ संख्या ४३२ म्‌० ॥“)॥ सजित्द १५)

चरण्डी चरण अन्थावली--प्रथम खण्ड अर्थात्‌ टाम काका की कुथिया ( 0709]6 7008 08४॥ ) का अधिक अज्- घाद्‌। पृष्ठ संख्या ४६२ सू० १५)॥ सजिद्द शा)

चरडी चरण ग्रन्धावछो--दुूसण खण्ड--चण्डी चरण सेन के दीबान गंगा गोविन्द सिंद का अधिक्रर अनुवाद | पृष्ठ संख्या २६० घू० ॥)

श्रीमत्‌ वाल्मीकीय रामायण--वालकाएड--खाहदित्याचारयें पं० चन्द्रशेजर शाज्ली कृत सररू हिन्दी झडुवाद खसद्दित बड़े साइज़ का १६२ पृष्ठ का सू० ॥)

अयोध्या काएड--सू० श॥)

आरण्य कारड--पछू० ॥।) े0 सस्ती साहित्य पुस्तकमाला कार्यालय, धनारख सिंटी।